बालाघाट का दशहरा ईश्वरी वरदान

(हेमेन्द्र क्षीरसागर)
मां दुर्गा और प्रभु श्री राम की असीम कृपा से मध्यप्रदेश के हृदय स्थल बालाघाट में विगत 61 वर्षों से महावीर सेवादल समिति द्वारा प्रतिवर्ष दशहरा पर दशहरा चल समारोह का आयोजन अनुष्ठान पूर्वक किया जाता है। जिसमें भगवान श्रीराम की शोभायात्रा के साथ ही महावीर का रूप धारण करने वाले रामभक्त हनुमान के जीवंत आकर्षण और प्रदर्शन देखते ही बनता है। जिसमें साधक अपने सिर पर 40 किलो का मुकुट धारण कर निकलते है। जिसके पीछे उनकी सेना जय भवानी, जय श्री राम, जयवीर महावीर के जयघोष के साथ उनके पीछे-पीछे चलती है। दशहरा से एक दिन पूर्व महावीर का रूप धारण करने वाले तपस्वी सिर पर मुकुट लेकर नगर का अर्द्धभ्रमण करते हैं। बालाघाट जिले का दशहरा पर्व चल समारोह के चलते मध्य प्रदेश में ही नहीं बल्कि पूरे देश में प्रसिद्ध है। ये केवल हरियाणा के पानीपत के अलावा बालाघाट और कुछेक जगह में उपासना के तौर पर अधिष्ठित है। प्रफुल्लित, हनुमान साधक सचमुच ऐसा लगता है, कुछ पल के लिए जैसे धरती पर वीर हनुमान का अवतरण हो गया हो।
जैसे-जैसे चल समारोह आगे बढ़ता चलता है। भावविभोर, शहर की सड़कों के दोनों किनारों के उपर जुलूस में हजारों की संख्या में लोग हनुमान जी के दर्शन पाने के लालायीत नजर आते हैं। प्रतिवर्ष सैकड़ों युवा हनुमान बनने समिति के पास नाम लिखवाते हैं। लेकिन इस कठिन तपस्या उपवास के लिए किसी एक सौभाग्यशाली का चयन होता है। तबसे ही बड़े ही तन्मयता से इस तपस्या और प्रभु वंदना में साधक लगे रहते हैं। नैनन देखी मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम और संकटमोचक पवन पुत्र हनुमान के साक्षात दर्शन हो जाते हैं। अद्भुत संस्कृति और परंपरा जिले के लिए ईश्वरी वरदान से कम नहीं है।
मुकुटधारी हनुमान
अभिभूत, मुजफरगढ़ (अब पाकिस्तान में) लय्यिया समाज द्वारा 80 साल पहले श्री हनुमान जी के स्वरुप पहन कर नवरात्र पर नगर परिक्रमा की शुरुआत हुई थी। श्री गुरु प्यारालाल झाम्ब ने इस परंपरा की शुरुआत की थी। वर्ष 1941 में पाकिस्तान में श्री गुरु प्यारालाल झाम्ब एवं श्री ढालूराम ने हनुमान सभा बनाकर हनुमान स्वरुप का ये मुकुट बनाये थे। श्री गुरु प्यारालाल झाम्ब, दुलीचंद जी के गुरु हुआ करते थे।
भगत दुलीचंद महाराज ने पाकिस्तान के मुज़फरगढ़ तहसील लहिया में ये मुकुट पहन कर वर्षों तक झांकी निकाली थी। विभाजन के समय परिवार समेत हनुमान जी का मुकुट वे बॉक्स में डालकर ले आये थे। रास्ते में रोक कर कई लोगो ने मुकुट ले जाने पर चेतवानी दी लेकिन आस्था के चलते मूर्ति को जान से प्यारी बता कर पानीपत ले आये। भगत दुलीचंद महाराज विभाजन के बाद जब पानीपत आये तो उन्होंने ही स्वरुप पहन कर पहली बार नवरात्र में नगर परिक्रमा निकाली थी। तब से लेकर अब तक श्री भगत दुलीचंद हनुमान सभा द्वारा पानीपत में यह परंपरा चलायी जा रही हैं।
श्री किशनलाल दीवान जो भगत दुलीचंद जी के शिष्य थे। उन्होंने इस परंपरा को आगे बढाया। तब से उनके कई शिष्य पानीपत में बन गए। जैसे किशनलाल दीवान, मोहनलाल जी, लुधिनचंद दीवान, अथरचंद दीवान, नोताराम चावला इत्यादि। आजादी के बाद से लेकर अब तक पानीपत में तब से यह परंपरा चली आ रही है।
सैंकड़ो हनुमान सभाएं पानीपत में या पानीपत के अलावा बालाघाट और दुसरे शहरों में भी हनुमान स्वरुप पहन कर झांकियां निकालती हैं। और यहीं से बालाघाट तक पहुंची हनुमान जी के मुकुट धारण करने की संस्कृति और परंपरा। जो आज भी श्रद्धा भाव से दशहरा के पावन पर्व पर अनवरत श्रद्धा भाव से जारी है।
40 दिन तक ब्रह्मचर्य
हनुमान स्वरूप बनने वाले भगत परिवार से विमुख 40 दिन तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए घर व व्यवसाय का त्याग करते हुए मंदिरों में अपना डेरा जमा लेते हैं। व्रत रखकर एक समय खाना खाते हैं व ज़मींन पर सोते हैं। इन दिनों प्रभु राम की आराधना में लीन होकर राम नाम का जाप करते रहते हैं।
अष्टमी से दशहरे के अगले दिन तक व्रतधारी श्रद्धालु भक्त हनुमान स्वरुप धारण करके नगर परिक्रमा करते हैं। पावन बेला में श्रद्धालु बड़ी संख्या में अपनी मन्नत मांगते और वीर बजरंगबली का आशीर्वाद लेने आतुर रहते हैं। पानीपत में दशहरे के दो दिन बाद हरिद्वार पहुंचकर गंगा किनारे हवन क साथ परिक्रमा का समापन होता हैं। भगत दुलीचंद जी का पूरा परिवार इस परंपरा को बखूबी ढंग से अदा कर रहा हैं। उनके सुपुत्र स्वर्गीय चरणजीत चावला व कालूराम चावला ने कई वर्षों तक सभा में प्रमुख सेवादारों के रूप में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया हैं। वेदप्रकाश गाँधी ने सभा की स्थापना से लेकर अब तक अपना योगदान दे रहे हैं।
अभी फिलहाल में भगत दुलीचंद के पौत्र श्री संजय महाराज इस सभा के प्रमुख सेवादार हैं। जो प्रभु श्रीराम जी के अनन्य भक्त हैं व उन्ही की तरह शांत स्वभाव वाले हैं। संजय जी के भ्राता श्री हरीश महाराज (सोनू) ओर रमेश नारंग भी सभा के प्रमुख सेवादार हैं। सभा का ये संकल्प हैं कि वे इस परंपरा को इसी तरह से आगे भी बढ़ाते रहेंगे। सौभाग्य वश मध्यप्रदेश के बालाघाट में भी यह संस्कृति और परंपरा भक्ति भाव से बरसों से चलायमान है।
(साई फीचर्स)