जानिए पाइथागोरस प्रमेय के बारे में

 

 

अगर आप ने दसवीं तक गणित पढ़ा है तो आपको पायथोगोररस के बारे में जरूर पता होगा जिसके अनुसार किसी समकोण त्रिकोण की सबसे बड़ी भुजा (कर्ण) का वर्ग उसकी बाकी की दोनों भुजाओं (आधार और लम्ब) के वर्ग के जोड़ के बराबर होता है।

भले ही यह प्रमेय बहुत आसान है पर आज इसका उपयोग छोटे से छोटे कमरे बनाने से लेकर बड़ी से बड़ी इमारतों को बनाने के लिए किया जाता है। इस प्रमेय को भारत समेत बाकी के देशों में पायथोगोरस के नाम से पढ़ाया जाता है। समकोण त्रिकोण जा त्रिभुज उस त्रिकोण को कहते है जिसका कोई एक कोण 90 डिग्री का होता है। 90 डिग्री के सामने वाली भुजा को कर्ण कहते है जो सबसे लम्बी होती है। बाकी की दोनो भुजाओ में से एक को आधार और एक को लम्ब कहते हैं।

कौन था पाईथागोरस?

पाईथागोरस प्राचीन ग्रीक का एक गणितज्ञ था जिनका जन्म 580 ईसापूर्व के लगभग हुआ था। वह एक गणितज्ञ के सिवाए एक वैज्ञानिक और दार्शनिक भी थे। उन्हें मुख्यत: पाईथोगोरस की प्रमेय के लिए जाना जाता है, जिसका नाम उनके नाम पर दिया गया है।

पाईथागोरस प्रमेय नही बौधायन प्रमेय कहिए!

पाईथागोरस से लगभग 250 साल पहले भारत में एक ऋषि हुए थे जिनका नाम था बौधायन। ऋषि बौधायन ने अपनी पुस्तक शुल्बसूत्र में यज्ञ की वेदियों के सही तरीके से बनाने के लिए कई फामूर्ले और माप दिए थे। शुल्बसूत्र में यज्ञ – वेदियों को नापना, उनके लिए स्थान का चुनाव तथा उनके निर्माण आदि विषयों का विस्तृत वर्णन है।

शुल्बसूत्र के अध्याय 1 का श्लोक नंबर 12 कुछ इस तरह से है –

दीर्घचातुरास्रास्याक्ष्नाया रज्जु: पार्च्च्वमानी तिर्यङ्मानीच!

यत्पद्ययग्भूते कुरुतस्तदुभयं करोति!!

आप को जानकार हैरानी होगी कि इस श्लोक का मतलब वही है जो पाइथागोरस प्रमेय का है।

इसका मतलब यही है कि पाइथागोरस से भी कई साल पहले भारतीयों को इस प्रमेय की जानकारी थी और इसके सबसे पहले खोजकर्ता ऋषि बौधायन थे।अब सवाल यह उठता है कि भारत के स्कूलों की किताबों में इस प्रमेय को पाइथागोरस थ्युरम क्यों पढ़ाया जाता है? इसका सीधा सा उत्तर है कि आजादी के बाद जिन लेखकों को भारत का इतिहास और अन्य विषयों पर किताबें लिखने का काम सौपा गया था वह सभी अंग्रेजों की शिक्षा पद्धति से पढ़े हुए थे।

जैसा उन्होंने पढ़ा था वैसा ही लिखते थे। वर्तमान में गणित और विज्ञान से संबंधित जितनी भी किताबें है वह मूल रूप से पश्चिमी वैज्ञानिकों द्वारा लिखी गई थी। उन पश्चिमी वैज्ञानिकों को उनकी प्राचीन ग्रीक सभ्यता, उसके वैज्ञानिकों का और उनकी खोजों का तो पता था पर शायद प्राचीन भारत के ज्ञान के बारे में उन्हें इतनी जानकारी नही थी।

इसीलिए उनकी किताबों में प्राचीन ग्रीक वैज्ञानिकों और उनकी खोजों का वर्णन तो मिलता है पर प्राचीन भारत के किसी वैज्ञानिक का नहीं। अगर उन्हें भारत के प्राचीन ज्ञान के बारे में थोड़ा बहुत पता भी था फिर भी उसके बारे में जानबूझकर बताते नही थे क्योंकि अंग्रेजों का उद्देश्य यही था कि भारतीय मानसिक गुलामी में जकड़े रहे और उन्हें गर्व करने का मौका ना मिले।

आशा की एक किरण पाइथागोरस प्रमेय

जनवरी 2015 में मुंबई युनीर्वसिटी में मोदी सरकार के उस समय के केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री डॉक्टर हर्षवधन जी ने कहा था कि – हमारे वैज्ञानिकों ने पायथागोरस प्रमेय की खोज की, लेकिन हमने इसका श्रेय यूनान को दे दिया। जिस प्रकार से छक्। सरकार राष्ट्रवाद को ध्यान में रखते हुए किताबों को नए सिरे से लिखवा रही है उससे हम यह अनुमान लगा सकते है कि भविष्य में भारत की किताबों में जरूर हमें पाइथागोरस प्रमेय की जगह बौधायन प्रमेय को पढ़ने को मिलेगा।

(साई फीचर्स)