इस तरह भगवान श्री गणेश ने लिया था गजानन का अवतार . . .
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ओम गम गणपते नमः, भगवान श्री गणेश जी विद्या-बुद्धि और समस्त सिद्धियों के दाता हैं तथा अपने पिता देवाधिदेव महादेव भगवान शिव की तरह ही थोड़ी सी उपासना से ही प्रसन्न हो जाते हैं। उन्हें हिन्दू धर्म में प्रथम पूज्य देवता माना गया है। किसी भी कार्य को प्रारंभ करने के पूर्व उन्हीं का स्मरण और पूजन किया जाता है। गणेशजी ने तीनों युग में जन्म लिया है और वे आगे कलयुग में भी जन्म लेंगे। धर्मशात्रों के अनुसार गणपति ने 64 अवतार लिए, लेकिन 12 अवतार प्रख्यात माने जाते हैं जिसकी पूजा की जाती है। अष्ट विनायक की भी प्रसिद्धि है। आओ जानते हैं उनके द्वापर के अवतार गजानन के बारे में संक्षिप्त जानकारी . . .
जानकार विद्वानों के अनुसार भगवान श्री गणेश जी ने आठ अवतार लिए हैं। इसमें से एक नाम गजानन भी है। गणपति जी को गजानन भी कहते हैं क्योंकि उनका मुख गज यानि हाथी का है। यह अवतार उन्होंने लोभासुर नामक असुर के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए लिया था। इस अवतार में भी वे मूषक पर सवार थे।
आईए आज आपको गजमुख महात्म्य की कथा बताते हैं। जानकार विद्वानों के अनुसार देवगण कहते हैं कि भगवान शिव और माता पार्वती की जोड़ी देखने में सबसे सुन्दर है। उस जोड़ी के समान कोई भी सारी सृष्टि में काई भी जोड़ी नहीं है। जब यह बात सारे ब्रम्हाण्ड में गूंजने लगती है तब इस तारीफ को सुनकर कुबेर देव, कैलाश पर्वत इस उद्देश से पहुंचते हैं कि वे माता पार्वती और भगवान शिव के दर्शन करेंगे। कैलाश पर्वत पर पहुंचने पर कुबेर देव देखते हैं कि भगवान शिव बहुत ही सुन्दर देवों के देव महादेव पुरुष की तरह दिखाई दे रहे हैं और माता पार्वती ब्रम्हाण्ड सुन्दरी से भी सुंदर दिख रहीं हैं।
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कहा जाता है कि कुबेर देव ने देवी पार्वती की ओर अपलक देखना आरंभ कर दिया, यह बात माता पार्वती को बुरी लगी। सदा मुस्कुराते रहने वाली माता पार्वती क्रोध में आकर माता कालिका का रूप धारण कर चुकीं थीं। इसे देख कुबेर देव भयभीत हो गए और वे क्षमा मांगकर वहां से भागने लगे। माता पार्वती के क्रोध से भयभीत कुबेर देव इस तरह कांपे कि उनके अंदर से एक दानव लोभासुर पैदा हो गया। लोभासुर के पैदा होते ही राक्षसों के देव शुक्राचार्य बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने लोभासुर को युद्ध आदि विद्या में निपुण करना आरंभ कर दिया। शुक्राचार्य के आग्रह पर भगवान शिव ने लोभासुर को पंचाक्षरी मंत्र की दीक्षा दी और तप के लिए चले गए।
फिर क्या था, लोभासुर के द्वारा ओम नमः शिवाय मंत्र का लगातार ही जाप किया जाने लगा। लंबे समय तक पंचाक्षरी मंत्र का जाप करते रहने से भगवान शिव प्रसन्न हुए और वे लोभासुर के सामने प्रकट हुए एवं उन्होंने लोभासुर को अभय होने का वरदान दे दिया। असुरों के गुरू शुक्राचार्य के द्वारा लोभासुर को इस तरह शिक्षित किया था कि लोभासुर ने समूची सृष्टि के समस्त असुरों को एकत्र किया और देवताओं के राजा इंद्र पर चढ़ाई आरंभ कर दी। इसके बाद लोभासुर ने इंद्र के आसन पर कब्जा जमाया, जिससे इंद्रलोक में हाहाकार मच गया।
देवलोक पर विजय प्राप्त करने के बाद लोभासुर के मन में लोभ जागा और उसने तीनों लोकों को अपने कब्जे में लेना आरंभ कर दिया। इस समय भगवान शिव कैलाश पर्वत से दूर जंगल में साधनारत थे। लोभासुर के इस तांड़व से सारे देवता बुरी तरह दुखी थे। जब सारे देवताओं ने देवाधिदेव महादेव भगवान शिव का आव्हान किया तब भगवान शिव ने उन्हें गजानन, गजमुख भगवान गणेश की अराधना कर उन्हें प्रसन्न करने की सलाह दी।
देवताओं ने गणेश जी का ध्यान लगाया और देवताओं की अराधना से भगवान गणेश प्रसन्न हो गए और देवताओं के समक्ष प्रकट होकर उन्होंने देवताओं पर आए संकट को हरने का वचन दे दिया। इसके बाद विध्नहर्ता भगवान श्री गणेश जी, लोभासुर के सामने गजानन रूप में प्रकट हुए। भगवान श्री गणेश जी के इस विशाल स्वरूप को देखकर लोभासुर थर थर कांपने लगा और उसकी बोलती बंद हो गई। भगवान श्री गणेश जी के गजानन स्वरूप को देखकर लोभासुर रोने लगा और भगवान श्री गणेश जी की शरण में वह पशु बन गया। इसके बाद उसके द्वारा बंदी बनाए गए देवताओं और उनके सारे साम्राज्य को वापस कर दिया गया।
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जानकार विद्वानों के अनुसार इसी तरह की एक अन्य कथा के अनुसार एक बार नंदी महाराज से माता पार्वती की किसी आज्ञा के पालन में ऋुटि हो गई। जिसके बाद माता ने सोचा कोई तो ऐसा हो जो केवल उनकी आज्ञा का पालन करें। तब मां पार्वती ने अपने उबटन से एक बालक की आकृति बनाकर उसमें प्राण डाल दिए। इसके बाद माता पार्वती स्नान के लिए गईं और उन्होंने बालक को बाहर पहरा देने के लिए कहा।
माता पार्वती ने बालक को आदेश दिया था कि उनकी इजाजत के बिना किसी को अंदर नहीं आने दिया जाए। जब भगवान शिव के गण आए तो बालक ने उन्हें अंदर जाने से रोक दिया। इसके बाद स्वयं भगवान शिव आए तो बालक ने उन्हें भी अंदर नहीं जाने दिया। जब बालक ने उन्हें अंदर जाने नहीं दिया तो भगवान शिव क्रोधित हो गए और उन्होंने बालक का सिर धड़ से अलग कर दिया। ये सब देखकर माता पार्वती क्रोधित हुईं और उन्होंने उनके बालक को जीवित करने के लिए कहा। तब भगवान शिव ने एक हाथी का सिर बालक के धड़ से जोड़ दिया। तब से भगवान गणेश को गजानन भी कहा जाने लगा।
इसी तरह की एक अन्य कथा भी जानकार विद्वान बताते हैं। ब्रम्हा वैवर्त पुराण के अनुसार, भगवान श्री गणेश जी के जन्म के बाद सभी देवतागणों ने उन्हें आशीर्वाद दिया लेकिन शनि देव ने भगवान श्री गणेश जी की तरफ देखा भी नहीं। इससे माता पार्वती बहुत नाराज हुई और शनि देव से कहा कि वह बाल गणेश को आशीर्वाद क्यों नहीं दे रहे हैं?
इस पर शनिदेव ने कहा कि उनके द्वारा गणेश जी को न देखना ही ज्यादा सही होगा, लेकिन माता पार्वती ने शनिदेव की बात नहीं मानी और उन्हें गणेश जी को देखने की आज्ञा दी। शनिदेव ने माता पार्वती की आज्ञा मानकर गणेश जी को देखा ही था कि शनि देव की वक्री दृष्टि के कारण गणेश जी का सिर उनके धड़ से अलग हो गया। उसी समय गणेश जी को जीवन दान देने के लिए भगवान विष्णु गरुड़ पर सवार होकर हाथी का सिर ले कर आए और उसे गणेश जी के धड़ पर रख दिया। इसी कारण भगवान श्री गणेश जी को गजानन कहा जाता है।
इसके अलावा कुछ अन्य बातें भी प्रचलन में हैं . . .
द्वापर युग में उनका वर्ण लाल है। वे चार भुजाओं वाले और मूषक वाहन वाले हैं तथा गजानन नाम से प्रसिद्ध हैं। द्वापर युग में गणपति ने पुनः पार्वती के गर्भ से जन्म लिया व गणेश कहलाए। परंतु गणेश के जन्म के बाद किसी कारणवश पार्वती ने उन्हें जंगल में छोड़ दिया, जहां पर पराशर मुनि ने उनका पालन-पोषण किया। ऐसा भी कहा जाता है कि वे महिष्मति वरेण्य वरेण्य के पुत्र थे। कुरुप होने के कारण उन्हें जंगल में छोड़ दिया गया था। इन्हीं गणेशजी ने ही ऋषि वेदव्यास के कहने पर महाभारत लिखी थी। इस अवतार में गणेश ने सिंदुरासुर का वध कर उसके द्वारा कैद किए अनेक राजाओं व वीरों को मुक्त कराया था। इसी अवतार में गणेश ने वरेण्य नामक अपने भक्त को गणेश गीता के रूप में शाश्वत तत्व ज्ञान का उपदेश दिया।
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(साई फीचर्स)