बुद्धि के दाता भगवान गणेश के धूम्रवर्ण अवतार की कथा जानिए . . .

इसलिए लिया था विध्नहर्ता भगवान श्री गणेश ने धूम्रवर्ण अवतार . . .
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बुद्धि विनायक भगवान श्री गणेश को प्रथम पूज्य माना गया है। हिंदू धर्म में कोई भी पूजा पाठ या शुभ काम बिना भगवान गणेश की पूजा कर या आरती उतारे शुरू नहीं की जाती। गणपति जी को प्रथम पूज्य देवता की उपाधि प्राप्त है। इसलिए हर शुभ कार्य में सबसे पहले उन्हें याद किया जाता है। वहीं शास्त्रों में बुधवार का दिन भगवान गणेश को समर्पित है। माना जाता है कि इस दिन भगवान गणेश की पूजा कर उनकी कृपा पाई जा सकती है। मान्यता के अनुसार, बुधवार के दिन विध्नहर्ता भगवान गणेश की पूजा करने से विशेष लाभ होता है। गणेश जी के आखिरी अवतार का नाम धूम्रवर्ण है। इस अवतार की उत्पत्ति अहंतासुर नाम के दैत्य से देवताओं समेत पूरे ब्राम्हाण्ड को मुक्त कराने के लिए हुई थी।
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अद्भुत बुद्धि प्रदान करने वाले धूम्रवर्ण गणेश भगवान गणेश का एक प्रमुख रूप हैं, जिनका रंग धूम्र जिसे अंग्रेजी में स्मोकी कहा जाता है, होता है। वे आम तौर पर धूम्रवर्ण या आसमानी रंग के होते हैं और इसलिए इस नाम से जाने जाते हैं। धूम्रवर्ण गणेश के मंत्र का जप करने से जीवन में सकारात्मक परिवर्तन और सफलता की प्राप्ति होती है। उन्हें भक्ति, विवेक, और अद्भुत बुद्धिमत्ता का प्रतीक माना जाता है। धूम्रवर्ण गणेश को संगीत, कला, और साहित्य के क्षेत्र में भी सफलता प्रदान करते है।
आइए जानते हैं कि भगवान श्री गणेश ने धूम्रवर्ण का अवतार क्यों व कैसे लिया था,
भगवान श्रीगणेश के वैसे तो कई अवतार हैं, धूम्रवर्ण अवतार में आकर भगवान श्रीगणेश ने अभिमानासुर का संहार किया। यहां विशेष बात यह है कि भगवान श्रीगणेश के धूम्रवर्ण अवतार का वाहन भी मूषक ही है। धूम्रवर्ण अवतार से जुड़ी एक प्रचलित कथा से पता चलता है कि एक बार लोक पितामह ब्रम्हा ने सूर्य को कर्माध्यक्ष पद प्रदान किया। राज्य पद प्राप्त करते ही सूर्यदेव के मन में अहंकार हो गया और संयोगवश उसी समय उनको छींक आ गयी। जिससे अहंतासुर का जन्म हुआ। वह दैत्यगुरु शुक्राचार्य से गणेश मंत्र की दीक्षा प्राप्त कर तपस्या के लिए जंगल गया। जंगल में अहंतासुर उपवासपूर्वक भगवान गणेश का ध्यान तथा जप करने लगा। सहस्त्रों वर्षों की कठिन तपस्या के बाद भगवान गणेश प्रकट हुए। उन्होंने अहंतासुर से कहा, कि वे उसकी तपस्या से संतुष्टि हैं, और उसे इच्छित वर मांगने को कहा। अहंतासुर ने उनसे संपूर्ण ब्रम्हाण्ड पर राज्य, अमरत्व, आरोग्य तथा अजेय होने का वर मांगा। भगवान गणेश तथास्तु कहकर अंतर्धान हो गये।
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भगवान श्रीगणेश से आशीर्वाद प्राप्त कर अहंतासुर वापस लौटा और असुरों के गुरू शुक्राचार्य के चरणों में प्रणाम किया। अपने शिष्य की सफलता का समाचार प्राप्त कर शुक्राचार्य काफी प्रसन्न हुए। उन्होंने संपूर्ण असुरों को बुलाकर उसे दैत्यों का स्वामी बना दिया। इस अवसर पर दैत्यों ने अद्भुत महोत्सव मनाया। विषयप्रिय नामक नगर में अहंतासुर सुखपूर्वक निवास करने लगा। उसे सर्वाधिक योग्य पात्र समझकर प्रमदासुर ने अपनी सुंदर कन्या उसके साथ ब्याह दी। कुछ दिनों बाद उसे गर्व और श्रेष्ठ नामक दो पुत्र हुए।
जानकार विद्वानों के अनुसार अनेक जगहों पर इस बात का उल्लेख मिलता है कि परिवार बसने के बाद एक दिन अहंतासुर ने अपने ससुर की सलाह और गुरु का आशीर्वाद प्राप्त कर विश्व विजय के लिए प्रस्थान किया। असुरों के द्वारा भयानक नर संहार किया जाने लगा। सर्वत्र मार काट मच गयी। इस प्रकार पृथ्वी अहंतासुर के अधिकार में हो गयी। फिर असुर ने स्वर्ग पर आक्रमण किया। देवताओं की तरफ से भगवान विष्णु युद्ध करने आये, किंतु वह भी पराजित हो गये। सर्वत्र अहंतासुर का शासन हो गया। देवता, ऋषि, मुनि पर्वतों में छिपकर रहने लगे। धर्म कर्म नष्ट हो गया। अहंतासुर देवताओं, मनुष्यों और नागों की कन्याओं का अपहरण कर उनका शील भंग करने लगा। सर्वत्र पाप और अन्याय दिखाई देने लगा।
जब देवतागण इस उत्पात से परेशान हो गये और चारों ओर से उन्हें निराशा हाथ लगने लगी तो सभी ने भगवान शंकर एवं सृष्टि के रचने वाले भगवान ब्रम्हा की सलाह से भगवान श्रीगणेश की उपासना करनी शुरू की। सात सौ वर्षों की कठिन साधना के बाद भगवान गणनाथ प्रसन्न हुए। उन्होंने देवताओं की विनती सुनकर उनका कष्ट दूर करने का वचन दिया। पहले धूम्रवर्ण ने देवर्षि नारद को दूत के रूप में अहंतासुर के पास भेजा। उन्होंने उसे धूम्रवर्ण गणेश की शरण ग्रहण कर शांत जीवन बिताने का संदेश दिाय। अहंतासुर क्रोधित हो गया। संदेश निष्फल हो गया। नारद निराश लौट आये।
अनेक जगहों पर इस बात का उल्लेख भी मिलता है कि जब अहंतासुर ने शांति का प्रस्ताव ठुकरा दिया तो भगवान धूम्रवर्ण ने क्रोधित होकर असुर सेना पर अपना उग्र पाश छोड़ दिया। उस पाश ने असुरों के गले में लिपटकर उन्हें यमलोक भेजना शुरू कर दिया। चारों तरफ हाहाकार मच गया। असुरों ने भीषण युद्ध की करने की कोशिश की, किंतु तेजस्वी पाश की ज्वाला में वे सभी जलकर भस्म हो गये। निराश अहंतासुर असुरों के गुरू शुक्राचार्य के पास पहुंचा। उन्होंने उसे धूम्रवर्ण की शरण लेने की प्रेरणा दी। अहंतासुर ने भगवान धूम्रवर्ण के चरणों में गिरकर क्षमा मांगी। उनकी विविध उपचारों से पूजा की। संतुष्ट भगवान धूम्रवर्ण ने दैत्य को अभय कर दिया। उन्होंने उसे आदेश दिया कि जहां उनकी पूजा न होती हो, तुम वहां जाकर रहो। उनके भक्तों को कष्ट देने का कभी भी प्रयास न करना। अहंतासुर भगवान धूम्रवर्ण के चरणों में प्रणाम कर चला गया। देवगणों ने श्रद्धापूर्वक धूम्रवर्ण की पूजा की तथा मुक्त कंठ से उनका जयघोष करने लगे।
जानकार विद्वानों के अनुसार धूम्रवर्ण गणेश जी का मंत्र ओम गं ग्लौं धूम्रवर्णे नमः है और इसका जाप करने से अनेक लाभ होते हैं। यह मंत्र बुद्धि और ज्ञान को बढ़ाता है, जिससे आपके निर्णयों में सुधार होता है। धूम्रवर्ण गणेश मंत्र का जाप करने से संगीत और कला में प्रेरणा मिलती है। इस मंत्र का जाप करने से सकारात्मकता और सफलता की ऊर्जा मिलती है। यह मंत्र भक्ति और आनंद की अनुभूति में सहायक होता है।
इसी तरह धूम्रवर्ण गणेश मंत्र का जाप करने से विवेक और निर्णय की क्षमता में सुधार होता है। यह मंत्र आपको सुरक्षित और स्थिर बनाने में मदद करता है। इस मंत्र का जाप करने से आपके कार्यों में सफलता मिलती है। यह मंत्र आपको उच्च विचारों और स्वप्नों को प्राप्त करने में मदद करता है। इस मंत्र का जाप करने से आपका मन संतुलित और शांत होता है। यह मंत्र आपको ध्यान और आत्म-संयम स्थिति तक ले जाता है।
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(साई फीचर्स)