(युगल पाण्डेय)
भारत में परंपरा और आधुनिकता का एक अनोखा संगम रहा है किन्तु आज बदलती पीढ़ी और युवा वर्ग नए मनोविज्ञान के साथ एक अनोखे दौर से गुजर रहा है। जनरेशन गैप, बदलता माइंडसेट, मर्यादाओं का पतन, एकल परिवारों का बढ़ता चलन, सेल्फ-सेंट्रिक सोच, और समाज के प्रति बेखौफ रवैया जैसे पहलू इस बदलाव के साथ परिलक्षित हैं।
परंपरा और आधुनिकता का टकराव भारत में हमेशा से मौजूद रहा है, लेकिन डिजिटल युग ने इसे और गहरा कर दिया है। पुरानी पीढ़ी जहां सामूहिकता, पारिवारिक मूल्यों और सामाजिक मर्यादाओं को महत्व देती रही है, वहीं नई पीढ़ी व्यक्तिगत स्वतंत्रता, आत्म-अभिव्यक्ति और त्वरित परिणामों को प्राथमिकता देती है। सोशल मीडिया और वैश्वीकरण ने युवाओं को वैश्विक संस्कृति से जोड़ा है, जिससे उनकी सोच कुछ हद तक पश्चिमी विचारों से प्रभावित हुई है। यह अंतर कई बार परिवारों में तनाव का कारण भी बनता है, क्योंकि माता-पिता और बच्चे एक-दूसरे की अपेक्षाओं को समझने में असफल रहते हैं।
आज का युवा वर्ग आत्म-केंद्रित (सेल्फ-सेंट्रिक) सोच की ओर अग्रसर है। तकनीक ने सूचना और अवसरों तक उसकी पहुंच को आसान बनाया है, लेकिन साथ ही यह तत्काल संतुष्टि की चाह भी पैदा करता है। सोशल मीडिया पर लाइक्स, फॉलोअर्स और वायरल ट्रेंड्स ने युवाओं में आत्म-छवि (self-image) को प्राथमिकता देने को मजबूर किया है। यह सोच कई बार सामाजिक जिम्मेदारियों और पारिवारिक कर्तव्यों से दूरी भी पैदा करती है। उदाहरण के लिए, करियर और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं अब सामाजिक कल्याण से ऊपर रखी जाने लगी हैं।
पारंपरिक भारतीय समाज में मर्यादाएं सामाजिक और पारिवारिक ढांचे की नींव थीं। हालांकि, आधुनिकता के साथ युवा वर्ग में मर्यादाओं के प्रति उदासीनता बढ़ रही है। विशेष रूप से डेटिंग, रिलेशनशिप, और सामाजिक व्यवहार में यह देखा जा सकता है। सोशल मीडिया पर बेखौफ अभिव्यक्ति और समाज के प्रति विद्रोही और बेखौफ रवैया इस बदलाव को दर्शाता है। हालांकि यह स्वतंत्रता कुछ हद तक सकारात्मक भी है, क्योंकि यह रूढ़ियों को तोड़ता है, लेकिन कई बार यह सामाजिक संवेदनशीलता और नैतिकता की कमी को भी प्रदर्शित करता है।
परंपरागत रूप से भारत में संयुक्त परिवार प्रणाली प्रचलित थी, जो सामाजिक और भावनात्मक समर्थन का आधार थी, लेकिन शहरीकरण, नौकरी के अवसरों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की चाह ने एकल परिवारों को बढ़ावा दिया है। एकल परिवारों में युवा अधिक स्वतंत्र होते हैं, लेकिन इससे सामुदायिकता और आपसी सहयोग की भावना कम हुई है। यह बदलाव विशेष रूप से बुजुर्गों के लिए चुनौतीपूर्ण है, जो अकेलेपन और इस पीढ़ी की उपेक्षा का सामना करते हैं।
युवा वर्ग में समाज के प्रति बेखौफ रवैया और बेरुखी बढ़ रही है। यह रवैया कई बार सामाजिक बदलाव के लिए सकारात्मक होता है, जैसे कि पर्यावरण, लैंगिक समानता, और मानवाधिकारों के लिए आवाज उठाना। लेकिन कई बार यह सामाजिक नियमों और नैतिकता की अनदेखी के रूप में सामने आता है। उदाहरण के लिए, सोशल मीडिया पर बिना सोचे-समझे की गई टिप्पणियां या ट्रोलिंग इस बेखौफ रवैये का हिस्सा हैं।
इंटरनेट और सोशल मीडिया ने युवाओं को वैश्विक विचारों से जोड़ा है, लेकिन यह पारंपरिक मूल्यों से दूरी का कारण भी बना है। प्रतिस्पर्धी शिक्षा प्रणाली और करियर की दौड़ ने युवाओं में तनाव और आत्म-केंद्रित सोच को बढ़ाया है। पश्चिमी जीवनशैली, जिसमें व्यक्तिवाद और स्वतंत्रता पर जोर है, ने भारतीय युवाओं के मूल्यों को प्रभावित किया है। इन बदलावों का प्रभाव समाज पर गहरा पड़ा है। एक ओर, यह युवा पीढ़ी नवाचार और परिवर्तन की वाहक है, लेकिन दूसरी ओर, यह सामाजिक एकता और पारिवारिक ढांचे को कमजोर कर रहा है।
आज जरूरी हो चला है कि परिवारों और समाज को जनरेशन गैप को कम करने के लिए खुला संवाद स्थापित किया जाए। पालकों को युवाओं की आकांक्षाओं को समझना जहां जरूरी हो चला है वहीं, युवाओं को पारंपरिक मूल्यों का सम्मान करने के लिए प्रतिबद्ध होना आवश्यक है। शिक्षा प्रणाली में नैतिकता, सामाजिक जिम्मेदारी, और मानसिक स्वास्थ्य को स्थान दिया जाना चाहिए। कौशल-आधारित शिक्षा और काउंसलिंग सेवाएं युवाओं को संतुलित जीवन जीने में मदद करेंगी।
एकल परिवारों के बढ़ते चलन के बावजूद, सामुदायिक गतिविधियों और सामाजिक जुड़ाव को प्रोत्साहित करना जरूरी है। सामाजिक संगठनों और एनजीओ को इस दिशा में काम करने आगे आना चाहिए। युवाओं को सोशल मीडिया के सकारात्मक उपयोग के लिए जागरूक करना होगा। डिजिटल साक्षरता और नैतिकता पर जोर देना महत्वपूर्ण और उपयोगी होगा।
सारांश यह कि बदलती पीढ़ी और युवा वर्ग का मनोविज्ञान एक सिक्के के दो पहलुओं जैसा है। एक ओर यह स्वतंत्रता, नवाचार, और वैश्विक सोच का प्रतीक है, तो दूसरी ओर यह सामाजिक एकता और मर्यादाओं के लिए चुनौती प्रस्तुत करता है। इस बदलाव को सकारात्मक दिशा में ले जाने के लिए शिक्षा, परिवार, और समाज को मिलकर काम करना होगा। यदि हम युवाओं की ऊर्जा और आकांक्षाओं को सही दिशा में ले जा सकें, तो हम न केवल आर्थिक, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से भी एक मजबूत भविष्य की ओर अग्रसर हो सकते हैं जो इस प्रौढ़ उम्र की जवाबदारी बनती है !!
(युगल पाण्डेय, नागपुर)
(साई फीचर्स)

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