(शंकर शरण)
एक मित्र लिखते हैं, एक दूसरे की खिल्ली उड़ाना, भद्दा कमेंट करना, बात-बात में चिल्लाना, अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल करना, अकारण झूठ बोलना, मनमानी करना, बिना तथ्य के बहस करना, अपनी जगहँसाई करना, अपनी पीठ ठोकना, चमचागिरी का बोलबाला होना, रीढ़विहीन और मूर्खों की फौज तैयार करना आज का नया फैशन है … और दावा करना कि हम भारत को विश्व-गुरु बनायेंगे, कुछ अजीब सा लगता है। नारा और क्रियाकलाप में कोई सामंजस्य नही दिखता है।
इस में एक-एक बात हमारी गिरावट का संकेत है। बड़ी-बड़ी बातें या तो लोगों को बरगलाने के लिए होती हैं, अथवा वैसी बातें करने वाले उसे जमीन पर उतारना नहीं जानते। यद्यपि काफी लोग ऐसी लफ्फाजियों से प्रभावित हो जाते हैं, चाहे कुछ समय के लिए ही। किन्तु इस से देश की हानि तो होती जाती है।
राजनीतिक विमर्श में भाषाई गिरावट इस दृष्टि से और निराशाजनक है, कि भाजपा पहले चाल और चरित्र की उच्चता का दावा करती थी। विचार-विमर्श में गाली-गलौज की भाषा का आरंभ और सर्वाधिक प्रयोग यहाँ वामपंथियों ने किया है। मार्क्सवादियों ने भारत की राजनीतिक शब्दावली को विषैली हद तक गिराया। फिर समाजवादियों ने। इन्होंने इंदिरा गाँधी के लिए ऐसे गंदे नारे बनाये थे, जिसे लिखा नहीं जा सकता!
उन की तुलना में जनसंघ और भाजपा के नेता सार्वजनिक शिष्टता के लिए जाने जाते थे। लेकिन इधर उन के नेताओं ने राजनीतिक जीवन, मीडिया और सोशल मीडिया में लांछन, झूठे, क्षुद्र आरोप और अशिष्ट भाषा को भरपूर प्रोत्साहन दिया है। उन्होंने ऐसा क्यों किया?
यह नहीं कि पहले उन का शिष्टाचार दिखावा था। असल कारण यह लगता है कि अपने राष्ट्रवादी दावों को पूरा करने की बुद्धि और सामर्थ्य उन के पास नहीं है। यही छिपाने के लिए वे विपक्षियों को जोर-जोर से निंदित कर विषय बदलने की कोशिश करते हैं, ताकि उन के अपने सही-गलत कामों, अकर्मण्यता और खोखलेपन का हिसाब न लिया जाए।
इस के लिए उन्होंने कम्युनिस्टों वाली मानिसकता और शब्दावली तक अपना ली है। वही मित्र आगे लिखते हैं, नया जमाना है और नया रंग है। राष्ट्र-प्रेम मतलब बीजेपी। विपक्ष मतलब पाकिस्तान-समर्थक। बीजेपी पुरजोर तरीके से विपक्षियों के खात्मे की कोशिश कर रही है। जनतंत्र में उन का विश्वास नहीं रहा क्या? चीन और रुस की तरह एक पार्टी की सरकार!
यहाँ यह भी जोड़ दें कि कम्युनिस्टों की तरह ही भाजपा समर्थकों को अपने उन लोगों को भी लांछित करने को उकसाया जाता है, जो नेताओं की हर सही-गलत की हाँ-में-हाँ न मिलाएं। ऐसे व्यक्तियों को पदलोभी, स्वार्थी, मूर्ख, बाहरी एजेंट, आदि कह कर निंदित करना भी कम्युनिस्ट परंपरा है। आलोचकों और असहमत लोगों पर आरोप लगाकर अपने को बेहतर समझना।
इस स्थिति में विश्व-गुरू बनने की बात भारी प्रवंचना है। वैसी लफ्फाजी अपने समर्थक हिन्दुओं का भावनात्मक दोहन भर है। तलछट की भाषा बोलने वाले अच्छे विद्यार्थी तक नहीं हो सकते, गुरू होना तो दूर रहा। ऐसे लोगों में अपने कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन, बल्कि अपना भी मार्ग ढूँढने की क्षमता नहीं है। ऐसा मार्ग, जिस में स्वाभिमान से समझौता न करना पड़े। किसी तरह गिर कर, मिथ्याचार और अवसरवाद के सहारे सत्ता पाना, रखना ही उन का लक्ष्य लगता है।
दशकों तक जनसंघ-भाजपा ने अपने समर्थकों को कहा था कि बिना सत्ता पाए वे उन राष्ट्रीय, हिन्दू हितों को नहीं पा सकते, जिन्हें कांग्रेस ने उपेक्षित किया तथा वामपंथियों, इस्लामियों के प्रभाव में बिगाड़ा। अब लंबा अनुभव दिखाता है कि भाजपा में वह सब कर सकने की कोई समझ नहीं थी। कोई माद्दा भी न था। वरना वे उस के लिए सीखने, प्रयत्न करने की कोशिश तो करते।
उस के बदले भाजपा ने अपने खालीपन को कांग्रेस और वामपंथियों की नकल कर ढकने की कोशिश की है। गरीब-अमीर और अन्य विभेदकारी नारे देना, जातिवादी हिसाब और आर्थिक विषयों पर केंद्रित रहना, अंधा-धुंध प्रचार, विविध पार्टियों के नेताओं की जोड़-तोड़, स्वतंत्र बड़े पत्रकारों, बुद्धिजीवियों को किसी तरह मिलाने और आलोचकों को लांछनों से गिराने, जैसे सारे उपाय यही दिखाते हैं। कुलदीप नैयर जैसों की खुशामद, और अरुण शौरी जैसों पर आक्षेप इस के उदाहरण भर हैं। इस में से एक भी हिन्दू गुण नहीं कहा जा सकता।
अतः यदि साहेब के प्रति गरीबों में भरोसा बना है, तो सचेत हिन्दुओं में घटा भी है। यदि गरीबों की स्थिति बेहतर हो, तो निस्संदेह स्वागत योग्य है। किन्तु यह वैसी ही बात होगी कि वर्षों तक फुटबॉल के लिए चंदा माँग कर, जमीन लेकर, स्टेडियम बनाकर, कोई कबड्डी खेलने लगे और फुटबॉल साफ भुला दे। कबड्डी-प्रेमी इस से खुश हों, किन्तु फुटबाल के लिए चंदा देने वालों के साथ धोखा छिप नहीं जाता।
इस रूप में, भाजपा केवल बेहतर कांग्रेस बनने में लगी हुई है। इस के लिए तरीके कम्युनिस्टों जैसे अपना रही है। इस का अंततः फल यह भी संभव है कि भाजपा न तीन, न तेरह में रहे। ऐसा भारी मिथ्याचार उस के समर्थक दूर तक न झेल सकें। अभी सत्ता, धन और प्रचार के बल पर उन्हें दिलासा दिया जा रहा है। किन्तु सचाई साफ होने के बाद उन में वही मनोबल नहीं रह जाएगा। संघ-भाजपा में ही अनेक महसूस करेंगे कि राजा की पोशाक वह नहीं है, जिस का दावा किया गया था। यह राजा कोई एक व्यक्ति नहीं, वरन उन का संपूर्ण नेतृत्व, संपूर्ण आइडियोलॉजी है, जिस में अपने दावों को पूरा करने का माद्दा नहीं है।
वह स्थिति धीरे-धीरे बन रही है। फलतः कांग्रेस अपनी खोई जमीन पा रही है। उस की कमजोरियाँ, पारिवारिक नेत्तृत्व, वामपंथी बौद्धिकों से ताल-मेल, हिन्दू-मुस्लिमों के बीच देन-लेन कर चलने की आदत, आदि कांग्रेस के अपने गुण-अवगुण हैं। इस में से कुछ भी बदले बिना उस ने तीन राज्यों में भाजपा को अपदस्थ कर दिया। अतः भाजपा से आस लगाए बुद्धिजीवी समुदाय में सैम पित्रोदा, दिग्विजय सिंह, या मणिशंकर अय्यर के बयानों पर जो नाराजी हो, वह सब चुनावों में शायद ही विशेष असर डालते हैं।
चुनावी नतीजे विविध पार्टियों के तालमेल और राष्ट्रीय भावना से बनी किसी आशा-निराशा, दोनों से निर्धारित होते हैं। जहाँ तक भाजपा की बात है, तो दशकों से उस की पहचान रहे मुद्दे छोड़े जा चुके। स्वयं उस के नेताओं द्वारा वह सब भुला दिया गया। अब वे रूसी सत्ताधारी कम्युनिस्टों वाली शैली में मातृभूमि पर खतरे, दुश्मनों की घेराबंदी, और इस हालत में अपनी पार्टी की महानता और अपरिहार्यता का प्रचार कर रहे हैं। तमाम विरोधियों को देश-द्रोही, पाकिस्तान-परस्त, आदि कहना उसी का अंग है।
ऐसे नकारात्मक प्रचार की प्रभाविता सीमित होती है। देर-सेवर समझ आएगा ही कि देश जिन बुनियादी समस्याओं से ग्रस्त है, उस से ध्यान बँटाया जा रहा है। ऐसे सूरतेहाल भाजपा रूपी बेहतर कांग्रेस, या नेहरूवंशी पारंपरिक कांग्रेस, यही दो मुख्य विकल्प बचते हैं। हिन्दू समाज के लिए कौन अधिक हितकर या अहितकर है, इसे तय करना आसान नहीं।
(साई फीचर्स)