(शंकर शरण)
इधर एक दिन देश के एक बड़े अखबार के कुल 32 पृष्ठों में 23 पर एक ही नेता की छोटी, बड़ी, पूरे और आधे पृष्ठों पर तस्वीरें थी। 6 पृष्ठों पर एक अन्य छोटे नेता की तस्वीरें भी उसी प्रमुखता से थीं। अधिकांश किसी न किसी सत्ता संस्थान द्वारा विज्ञापन। कहने को वह सब जनता को कोई सूचना या बधाई देने हेतु था, पर अखबार देखने वालों ने असल उद्देश्य आसानी से समझाः नेता और उस की पार्टी का प्रचार।
उन तमाम विज्ञापनों का बिल केवल एक दिन, उस अखबार को, कम से कम 2-ढ़ाई करोड़ रूपए रहा होगा, जो सार्वजनिक कोष से गए। यदि देश के दर्जनों बड़े-छोटे अखबारों को भी जोड़ लें जिन में वे विज्ञापन थे, तो केवल एक दिन में पचास-साठ करोड़ रूपए साफ हुए। पूरे वर्ष ऐसे जितने विज्ञापन तमाम पत्र-पत्रिकाओं व विविध टीवी चौनलों को गए, जिस में सूचना नगण्य, तथा नेता प्रचार मुख्य रहता है, उन सब का हिसाब करें तो जनता के धन से सालाना अरबों रूपए ऐसे आत्म-प्रचार में उड़ाए जाते हैं!
जरा विचारें, दुनिया की सब से धनी कंपनियाँ भी अपने काम/ मालिक का ऐसा फिजूल विज्ञापन करती है? लगभग 500 अरब डॉलर सालाना कमाने वाली वालमार्ट या टोयोटा के मालिकों को सपने में भी ख्याल न आएगा कि केवल एक दिन अखबार में करोड़ों डॉलर के विज्ञापन देकर बधाई दें या लोगों को कंपनी के मालिक की फोटो दिखाएं!
तब यदि हमारे विविध सत्ताधारी राज-कोष का धन आत्म-प्रचार और पार्टी-प्रचार में बेतहाशा फूँकते रहे हैं – तो क्या यह सदाचार है?वह भी जब सत्ता के पास अपने प्रचार-प्रकाशन, रेडियो, तथा टी.वी. चौनल अलग से हैं। यह सब सरंजाम भी दुनिया की बड़ी से बड़ी कंपनियाँ नहीं रखतीं। जबकि अकेले वालमार्ट की सालाना आमदनी भारत सरकार की कर-आमद से अधिक है। फिर भी वे उतने विज्ञापन का शतांश भी नहीं देती, जितना हमारे सत्तासीन नियमित देते हैं।
विविध सत्ता विभागों, संस्थानों द्वारा सालाना वैसे सैकड़ों विज्ञापन मात्र जन-हित में दिए जाते हैं – यह बात शायद ही किसी के गले उतरेगी। तब यह किस उद्देश्य की पूर्ति करता है?
जन-हित केवल आड़ है। क्योंकि जिन चीजों से लोग नियमित प्रभावित होते हैं दृ यातायात व्यवस्था, अस्पताल, बिजली, म्यूनिस्पैलिटी, रजिस्ट्री दफ्तर, आदि दृ तो विविध कामों के लिए बने नियमों, शर्तों, पाबंदियों, कार्यालयों, आदि में होते परिवर्तनों की जानकारी शायद ही कभी प्रमुखता से दी जाती है। असंख्य सूचनाएं, आवेदन फॉर्म, साइनबोर्ड, ट्रैफिक चेतावनी, आदि कई बार केवल अंग्रेजी में होती हैं। फलतः अधिकांश लोग असहाय होकर किसी की मदद के मुँहताज रहते हैं। यदि जन-हित की चिन्ता होती, तो सब से पहले यह सब ठीक किया जाता।
आज सार्वजनिक सेवा संबंधी असंख्य सूचनाएं जनता को नियमित और सुलभ रूप में प्रायः नहीं मिल पाती। उन दफ्तरों या उन की बेवसाइट पर जाकर किसी को मौके पर ही मालूम होता है कि अब ये नहीं, वो नियम हो गया है। कि पुरानी सुविधा खत्म या कम हो गई है। नियमों के बावजूद अनेक कर्मचारी मनमाने निर्णय लेते, तंग करते हैं, और ऊपरी अधिकारी शिकायत सुनकर भी कुछ नहीं करते। अनेक वेबसाइटें बरसों से अपडेट नहीं हुई, और ठीक काम भी नहीं करतीं। पर यह सब देखने वाला कोई नहीं! लोग राम-भरोसे विविध उपक्रम से काम चलाते हैं।
अतः वैसी नियमित, भारी, फिजूल विज्ञापनबाजी द्वारा नेता-प्रचार और पार्टी-प्रचार में राजकोष के अरबों रूपए उड़ाना भ्रष्टाचार ही है। यह अपने या अपनी पार्टी के लाभ के लिए सरकारी धन चुराने के समान है। ऐसा अन्य किसी स्वाभिमानी लोकतंत्र में नहीं होता।
फिर, यहाँ राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार से मुक्त रखना, तथा अपने आय-व्यय की स्थिति गोपनीय रखने की अनुमति भी भ्रष्टाचार की छूट देने समान है। जहाँ सामान्य लोगों से एक-एक रूपए का हिसाब, परिवार में कितना गहना है, यह भी बताना अनिवार्य कर दिया गया है, वहीं राजनीतिक दलों को करोड़ों रूपए कहीं से भी चुपचाप लेने और कैसे भी खर्चने की छूट विचित्र है।
इस में गत वर्ष संसद द्वारा पारित वह निर्णय भी जोड़ लें कि राजनीतिक दलों द्वारा विदेशी स्त्रोतों से लिए गए धन की कोई जाँच नहीं होगी, तो भारी गड़बड़ी साफ दिखेगी। यह सब छिपा हुआ भ्रष्टाचार है। बल्कि, राजनीतिक दलों को भ्रष्टाचार का विशेषाधिकार दे देने के समान है! ईमानदारी का घमंड रखने वालों को इस से कष्ट क्यों नहीं होता?
महत्वपूर्ण संस्थाओं में बड़े-बड़े पदों पर योग्य व्यक्ति के बदले अपना आदमी रखना भी भ्रष्टाचार का ही रूप है। उस के माध्यम से कई जरूरी काम रोके जाते हैं, तो कुछ पक्षपाती काम करवाए जाते हैं। एक राष्ट्रीय जाँच एजेंसी इस के लिए बार-बार बदनाम हुई है।
बड़े पदों पर बैठे लोगों द्वारा बिना पैसा खाए भी गड़बड़ी की जाती है। जैसे, किसी पार्टी की, नजदीकी संस्था या कागजी संगठन को मुफ्त में जमीन या सरकारी बंगला आवंटित कर देना। किसी पद को जानबूझ कर महीनों न भरना, ताकि आगे किसी अपने को ही दिया जाए। महत्वपूर्ण पद को खाली रखा जाना सार्वजनिक काम ही हानि तो है ही। वह किसी को अनुचित कार्य का पुरस्कार भी हो सकता है। ऐसी गड़बड़ियाँ कई कोणों से अनुचित, तथा असंख्य भ्रष्टाचारों का मूल है।
सार्वजनिक हित से ऊपर निजी/पार्टी-हित को रखना, जान-बूझ कर सामाजिक रूप से अहितकर निर्णय लेना, जिम्मेदार पदों पर अयोग्य या संदिग्ध लोगों की नियुक्ति करना, पक्षपात करना, आदि भी भ्रष्टाचार ही है। जिस से देश की अधिक हानि होती है।
इस अर्थ में पैसे खाने वाला, रंगीन-मिजाज, अपने लिए कई महल, और मँहगी कारें रखने वाला शासक भी अधिक हितकर हो सकता है। बशर्ते, वह तेज, साहसी और चुस्त देशभक्त हो। जो अवसर देख कर सही निर्णय से देश के अंदरूनी, वैदेशिक हितों की वृद्धि करने में तत्पर हो। इस के लिए जो देश-विदेश से योग्यतम सलाहकारों को निकट रखता हो। उस की तुलना में कुर्ता-चप्पल पहने, मामूली क्वार्टर में जीवन गुजार देने वाला ईमानदार किन्तु बोदा, अनाड़ी, बड़बोला नेता देश की भारी हानि कर सकता है।
अतः हमारे चुनाव आयुक्त, सर्वाेच्च न्यायाधीश, लोकपाल या राष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पदधारी महानुभावों को उक्त बिन्दुओं पर विचार करना चाहिए। वे छोटे-छोटे बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णयों से सत्ताधारी दलों और नेताओं द्वारा की जाने वाली बड़ी-बड़ी गड़बड़ियाँ सदा के लिए बंद कर सकते हैं। वह महान राष्ट्र-सेवा होगी।
आज बोल-चाल में भ्रष्टाचार का अर्थ संकुचित हो गया हैः केवल पैसे का अवैध लेन-देन। किन्तु देश के लिए निर्णायक, तथा महत्वपूर्ण पदों के लिए भ्रष्टाचार की परिभाषा इतनी सीमित नहीं रहनी चाहिए। भ्रष्टाचार को संपूर्ण रूप में देखना जरूरी है। वरना भ्रष्ट लोग भी अपने को राजा हरिश्चन्द्र कहते रहेंगे।
(साई फीचर्स)