(हरि शंकर व्यास)
पता नहीं आने वाले दशकों में क्या हो लेकिन पिछले 70 सालों के भारत इतिहास में 2019 का आम चुनाव इस हकीकत के साथ याद किया जाएगा कि नरेंद्र मोदी की कमान (मतलब मोदी की चौकीदारी की ताले-चाभी में) के आम चुनाव में भारत का मीडिया पागल था तो देश भी पागलखाना। जरा गौर करे इस पागलखाने पर।
सर्वप्रथम पागलखाने को कंट्रोल करते, उसकी चाभी लिए चौकीदार नरेंद्र मोदी। फिर पागलखाने के भीतर माहौल। टीवी चौनलों की बड़ी-बड़ी स्क्रीन। कही सोशल मीडिया को देखते पागल तो कहीं सिनेमा हॉल में चौकीदार नरेंद्र मोदी पर बनी फिल्मों का प्रदर्शन, कही उनके नाम का नाच-गाना, कही उनके लिए अमिताभ बच्चन के बोल तो कही कोई गायक तो कही कोई गायिका। सभी एक सुर में मोदी-मोदी करते हुए पागलखाने को गूंजाते हुए! सबकी थीम देश खतरे में और हम सबका रक्षक सिर्फ अपना चौकीदार। टीवी चौनलों की विशाल स्क्रीनों से एक सुर में एंकर गला फाड़-फाड़ चिल्ला रहे हैं नरेंद्र मोदी जिंदाबाद। देशभक्त अकेला नरेंद्र मोदी। विरोधी देशद्रोही। देखो उस देशद्रोही ने यह कहा। उसने सवाल किया। उसने शीशा दिखाया। बोलो नरेंद्र मोदी की जय!
सचमुच वैसे ही जैसे टीवी स्क्रीन से, सिनेमा हाल में दिखलाई जा रही फिल्म, सोशल मीडिया में आए मैसेज में चिल्लाहट है। दरअसल पागल को सदमा एक है। पागल की दिवानगी एक है। पागल की बेसुधी की वजह एक है। मतलब पत्रकार, एंकर और जनता वही एक सुर लिए हुए हैं जिसकी वजह में खौफ, बेसुधी, दिवानगी, झटके का कारण साझा है।
पागल और पागलखाना एक सा दिमाग, एक ही आबोहवा लिए होता है। तभी टीवी चौनलों, अखबारों, संपादकों, एंकरों में यह फर्क करना या मध्य वर्ग, किसान, मजदूर की विभिन्नताओं में पागलखाने के भीतर फर्क बूझना सब बेतुका है। इसलिए कि चिल्लाते एकंर और नारे लगाते दर्शक उन दिमागी तंतुओं के बिना है जिनसे सत्य बनाम झूठ का फर्क बनता है। जिस पर सोचने की, समझने की तर्क बुद्धि बनी हुई होती है।
लाख टके का सवाल है कि पागल मीडिया से देश की आबोहवा विक्षिप्त बनी है या चौकीदार के पागलखाना प्रोजेक्ट का यह पांच साला परिणाम है जिसके सत्ताबल, धनबल, प्रचारबल, संगठन बल के योग से देश पागलखाने मे तब्दील हुआ है। निश्चित ही चुनाव का मौका इस पागलखाने के शोर का कान फाड़ू मुकाम है। तभी हम और आप सबको चिंता यह करनी है कि पागलों की आवाज, पागलखाने में रहते हुए अपने कानों को फटने से कैसे बचाएं। दिमाग, बुद्धि की फिलहाल चिंता छोड़े। कान, आंख, नाक को बचाने की चिंता कर ले तो ही बहुत है। अन्यथा 23 मई के बाद पागलपन में यह देख सन्न होंगे कि अरे कहां गई हमारी वे इंद्रियां जिनसे बोलते थे। कपड़े फाड़ लेते थे। आंखे दिखा देते थे। सुन लेते थे या सुना देते थे। तब हम-सब और पागलखाना पूरी तरह मुर्दादिल हुआ मिलेगा।
(साई फीचर्स)