(उमेश चतुर्वेदी)
भारत और पाकिस्तान के बीच आतंकवाद को लेकर जारी तनाव देश के मीडिया के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण है। लगातार बेगुनाहों के बहते खून पर नागरिकों का गुस्सा जायज है और एक लोकतांत्रिक समाज के मीडिया में जनाक्रोश की अभिव्यक्ति पर सवाल भी नहीं उठाया जा सकता। लेकिन दो मुल्कों के बीच तनाव के दौरान कई सूचनाएं इतनी संवेदनशील होती हैं कि उन्हें सामान्य तथ्य की तरह पेश नहीं किया जा सकता। जनहित और राष्ट्रहित में कई बार कुछ मुद्दों को प्रकाश में आने से रोकना भी पड़ता है। यह मीडिया की जिम्मेदारी है कि वह विवेकपूर्ण ढंग से तय करे कि क्या बताना है, क्या नहीं। लेकिन दुर्भाग्य से आपसी होड़ के कारण देश का मीडिया जाने-अनजाने अपनी इस जिम्मेदारी को गंभीरता से नहीं निभा रहा है।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1949 में हुए जिनीवा समझौते के तहत युद्धकाल में संघर्षरत देशों के कैदियों के लिए कुछ कायदे-कानून तय किए गए हैं। उनमें से एक यह भी है कि युद्ध बंदियों के साथ मारपीट या किसी और तरह का दुर्व्यवहार नहीं होना चाहिए। अगर कैदी कुछ बताना नहीं चाहता तो उसके इस अधिकार का भी सम्मान होना चाहिए। मिग-21 के दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद पाकिस्तान की कैद में आए विंग कमांडर अभिनंदन के मामले में मीडिया ने जिस तरह की रिपोर्टिंग की, उससे तो यही लगता है कि अब मीडिया को भी कम से कम युद्ध जैसे हालात के दिनों में रिपोर्टिंग करने, समाचार दिखाने, सुनाने आदि के लिए आचार संहिता बना लेनी चाहिए। यह आचार संहिता तमाम मीडिया संस्थानों के संपादक-पत्रकार मिलकर बनाएं।
पाकिस्तानी सेना ने अपनी गिरफ्त में आए अभिनंदन का एक विडियो जारी किया है, जिसमें उनसे उनका नाम पूछा जाता है तो वह बता देते हैं। लेकिन जब उनसे उनके मूल राज्य के बारे में पूछा जाता है तो वह कहते हैं कि नहीं बता सकते। इसी तरह उनसे जब पूछा जाता है कि वह कौन का विमान उड़ा रहे थे, तो वह उसका भी यही जवाब देते हैं कि बता नहीं सकते। उनसे सर्विस नंबर पूछा जाता है तो भी वह बताने से इनकार करते हैं। कैद में होने के बावजूद अभिनंदन भारतीय सेना के जिम्मेदार अधिकारी की भूमिका से विचलित नहीं होते। लेकिन हमारे मीडिया ने उनकी पूरी कुंडली बता दी। यह बता दिया कि वह एयर मार्शल वर्धमान के बेटे हैं। उनकी पत्नी भी स्क्वाड्रन लीडर रही हैं और उनके एक बेटा भी है। अभिनंदन ने भले ही वे जानकारियां पाकिस्तानी अधिकारियों को नहीं दीं, जिसका इस्तेमाल पाकिस्तान अपने हित में कर सकता था, लेकिन वे सारी सूचनाएं हमारे मीडिया ने सार्वजनिक मंच पर मुहैया करा दी। ऐसे में अभिनंदन के स्टैंड क्या महत्व रह गया?
संभव है कि अतिरेक में अभिनंदन की पारिवारिक पृष्ठभूमि की जानकारी मीडिया ने उनकी बहादुरी दिखाने के लिए ही दी हो, लेकिन इसी बहाने एक महत्वपूर्ण जानकारी पाकिस्तान के हाथ लग गई। यह पता चलने के बाद कि अभिनंदन पूर्व उप-वायुसेना प्रमुख के बेटे हैं, इस जानकारी का इस्तेमाल वह सौदेबाजी के लिए कर सकता था। आज जितने भी पत्रकार सक्रिय हैं, उनमें से ज्यादातर ने युद्ध की रिपोर्टिंग नहीं की है। मीडिया के पाठ्यक्रम में भी जंग या जंग के माहौल को लेकर अध्याय न के बराबर हैं। इसलिए ऐसे माहौल के लिए मुकम्मल आचार संहिता भी नहीं है। युद्धकाल या जंग जैसे हालात में अधिकारियों की बैठक, उन बैठकों की जगह की जानकारी, सेना और सुरक्षा बलों की गतिविधियों और रेलों के आवागमन पर रिपोर्टिंग करते वक्त संजीदगी और अतिरिक्त सावधानी की जरूरत है।
बेशक मुख्यधारा का मीडिया भी भारतीय राष्ट्रीय धारा का ही समर्थन कर रहा है लेकिन उसकी असावधानियां और अतिरेकी रिपोर्टिंग अनजाने में ही दुश्मन खेमे को वे सूचनाएं भी मुहैया करा देती हैं, जिनके लिए अन्यथा उसे काफी पसीना बहाना पड़ता। धर्मयुग के संपादक रहते धर्मवीर भारती ने बांग्लादेश की लड़ाई के दौरान खुद मोर्चे पर जाकर रिपोर्टिंग की थी। उस रिपोर्टिंग के दौरान उन्होंने एक रिपोर्ताज लिखा था- ब्रह्मपुत्र के मोर्चे पर। आज के जंगजू रिपोर्टरों, प्रड्यूसरों को इसे जरूर पढ़ना चाहिए। वे देखें कि इस रिपोर्ताज के जरिए धर्मवीर भारती ने उस मोर्चे की किस तरह रिपोर्टिंग की थी और किस तरह भारतीय पक्ष को मजबूती से रखा था, बिना इसके एक भी अंग-उपांग को खतरे में डाले! कहा जाता है कि करगिल की जंग के दौरान एक रिपोर्टिंग टीम के कैमरे का फ्लैश देखकर ही पाकिस्तानी सेना ने उस जगह पर गोले दाग दिए थे। सच्चाई है कि इस संदर्भ में भारतीय सरकारी मीडिया कहीं ज्यादा जिम्मेदार भूमिका निभा रहा है। इसकी वजह यह है कि वह अपनी आचार संहिता से एक कदम भी इधर या उधर नहीं होता।
आजकल तर्क दिया जा रहा है कि सोशल मीडिया के दौर में सूचनाएं छिपाईं नहीं जा सकतीं। बात सही है। लेकिन सोशल और मुख्यधारा के मीडिया के बीच एक महीन फर्क है। मुख्यधारा के मीडिया के साथ जिम्मेदारी और जवाबदेही जैसे दो शब्द जुड़े हैं, जबकि सोशल मीडिया को इनकी जरूरत नहीं है। इसीलिए सोशल मीडिया को एक सीमा के बाद उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता, जितना मुख्यधारा के मीडिया को। सोशल मीडिया के जरिए आई खबरें या खुलासे सिर्फ तभी प्रभावी हो पाते हैं, जब मेनस्ट्रीम मीडिया उन्हें अपने मानदंडों के अनुसार जगह देता है। सोशल मीडिया प्लैटफॉर्मों के संचालक इन दिनों बेशक खूब सक्रिय हैं। उन्होंने चौकीदारी का तंत्र विकसित भी किया है। इसके बावजूद इन मंचों पर आज भी ज्यादातर फेक न्यूज ही आ रहे हैं। इसलिए युद्ध जैसे मौकों पर समाचारों और विचारों के प्रसारण में मुख्यधारा के मीडिया की सोशल मीडिया से तुलना बेमानी है।
(साई फीचर्स)