उत्सवधर्मी मदारियों की मुश्क़ें कसती सोनिया

 

 

 

(पंकज शर्मा)

जानते तो बाकी भी रहे ही होंगे कि राजनीतिक मुठभेड़ आभासी-चौपालों पर नहीं, असली मैदानों में हो तो ही उसके अपेक्षित नतीजे मिलते हैं; मगर कांग्रेसी-डालियों पर पिछले कुछ वर्षों में फुदक कर बैठने के बाद अपने को कर्णधार समझने लगे वैश्विक-जमूरों को यह बात खुल कर सोनिया गांधी को समझानी ही पड़ गई। उन्होंने प्रदेश-प्रभारियों, प्रदेश-अध्यक्षों, कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों और देश भर से आए कांग्रेस विधायक दल के नेताओं की गुरुवार को हुई बैठक में कहा कि सोशल मीडिया के औज़ार कितने ही प्रभावकारी हों, वे लोगों से खुद जा कर सीधे मिलने का विकल्प कभी नहीं बन सकते। इसलिए मौजूदा हुकूमत की अंटशंट नीतियों और ख़ुराफ़ातों के खिलाफ जब तक कांग्रेस सड़कों पर नहीं उतरेगी, कुछ नहीं होगा।

सोनिया ने दो बातें और पूरी दृढ़ता से कहीं। एक, इस मौक़े पर तरह-तरह के बहाने बना कर जो कांग्रेस से विदा ले रहे हैं, वे अपने अवसरवादी चरित्र को साबित कर रहे हैं। दो, राज्यों के चुनावों में कांग्रेस ने अपने घोषण-पत्र के ज़रिए जनता से जो वादे किए हैं, अगर उन्हें पूरा करने के लिए क़दम नहीं उठाए गए तो लोग हमें माफ़ नहीं करेंगे। यानी विदा-गीत गा रहे लोगों की चिंता करना फ़िजूल है और कांग्रेसी मुख्यमंत्री अपने-अपने प्रदेशों में वादाखिलाफी से बाज़ आएं।

मैं इन सब की प्रतिभा और अनुभव का आदर करता हूं, मगर ज़रा सोचिए कि अगर आज मल्लिकार्जुन खड़गे, अशोक गहलोत, सुशील कुमार शिंदे, मीरा कुमार, मुकुल वासनिक, शशि थरूर, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट या शैलजा में से कोई कांग्रेस-अध्यक्ष होता और यह सब कहने का साहस जुटा भी लेता तो क्या किसी पर सचमुच कोई असर पड़ता? सोनिया गांधी की यही अहमियत है कि आज की कांग्रेस में वह नैतिक-बल सिर्फ़ उन्हीं के पल्लू में मौजूद है, जो पार्टी को बंदिरया का नाच नचा रहे मदारियों की मुश्क़ें कस सके। राहुल ने कांग्रेस-अध्यक्ष बनने के बाद पिछले आम-चुनाव में अपना पसीना बहा कर अपने लिए इस नैतिक-बल की काफी ठोस नींव तैयार कर ली थी, मगर भावुक-क्षणों में लिए इस्तीफ़े के फ़ैसले से उस पर फ़िलहाल तो पानी फेर ही लिया। प्रियंका में इस नैतिक-बल की आंतरिक उपस्थिति कितनी ही गहरी हो, लेकिन वह परिश्रम अभी बाकी है, जो उन्हें सार्वजनिक निग़ाह में इसका हक़दार बना दे।

सोनिया को अहसास है कि पिछले कुछ बरस में संघ-कुनबा तो पगडंडियां नापता रहा और कांग्रेस आभासी-आकाश में दंड-बैठक लगाती रही। भारतीय जनता पार्टी टिड्डी-दल की तरह पसरी और सियासी-फ़सल को चट कर गई, जबकि कांग्रेस हवाई-मार्ग से कीटनाशकों का उथला छिड़काव करती रह गई। नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह ने सोशल मीडिया के भारी-भरकम इस्तेमाल का तिलिस्म तो खड़ा किया, पर ज़मीन पर हल की मूठ भी वे पूरी मज़बूती से थामे रहे। लेकिन कांग्रेस के नवजात छौने इस तिलिस्म की काट की भूलभुलैया में ही उलझ कर रह गए। उन्होंने फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सऐप और इंस्टाग्राम के अपने प्रायोजित समर्थकों की संख्या को ही अंतिम सत्य मान लिया और धरती से जीवंत नाता रखने की कोशिशें किनारे कर दीं। ऐसे में कांग्रेस अपने अंतिम संस्कार की तरफ़ बढ़ने लगी तो हैरत कैसी?

यह तो भला हो सोनिया का कि वे फिर सूत्रधार बनने को राज़ी हो गईं। उन्होंने सब-कुछ इस दिन के लिए तो नहीं छोड़ा था कि इस तरह दोबारा लौटना पड़े! जिन्हें उनके इस फ़ैसले में तरह-तरह के कोण नज़र आते हैं, उनका साबका दीन-ईमान मुक्त आंधियों के बीच अपने बिखरते घरौंदे को बचाए रखने की जद्दोज़हद से कभी पड़ा ही नहीं है। सो, यह समझने के लिए संवेदना का एक अलग स्तर चाहिए कि सोनिया फिर कांग्रेस का बोझा उठा कर इसलिए नहीं चल रही हैं कि उनकी जान अपने बच्चों में अटकी है। वे भारत के उन बुनियादी विचारों, उसूलों, संस्कारों और सियासी आचरण संहिता की रक्षा के कर्तव्यबोध से अपने को बंधा पाती हैं, कांग्रेस जिनका प्रतीक है। वे जानती हैं कि आज के भारत में कांग्रेस का बचना, बढ़ना और पुनर्स्थापित होना इसलिए बेहद ज़रूरी है कि अगर वह नहीं रहेगी तो भारतीयता का समावेशी विचार समाप्त हो जाएगा। इसलिए नहीं कि कल को कौन कांग्रेस का मुखिया बनता है।

जिन्हें नही करना है, वे कभी नहीं करेंगे, मगर जो सोनिया का आदर करते हैं, वे इसलिए करते हैं कि उन्होंने कांग्रेस-मुक्त भारत की स्थापना के लिए मारकाट मचा रहे बघर्रे के सामने कांग्रेस के मेमने को अकेला छोड़ने से इनकार कर दिया। जब ज़िम्मेदारियों से पलायन और एकाएक जन्मे अंतराल को भरने के लिए गिद्ध-नज़रों की टिकटिकी का मंचन हो रहा था तो सोनिया ने अपनी भीष्म-भूमिका का निर्वाह किया। रोज़मर्रा की छिछली राजनीति के चश्मे से देखने वाले इसका मर्म कभी नहीं समझेंगे। इतना समझने की कूवत ही प्रभु ने उन्हें नहीं दी है।

अपने मुख्यमंत्रियों को चुनाव घोषणा पत्रों में किए गए वादों की याद दिला कर सोनिया ने जतला दिया है कि यह बात उन्हें साल रही है कि कुछ प्रदेशों में जनता से वादाखि़लाफ़ी हो रही है। उनके कुछ मुख्यमंत्री बट्ठर बने बैठे हैं। चुनावों के वक़्त तो प्रादेशिक-क्षत्रपों ने घोषणा पत्रों में लुभावनी बातें जुड़वा दीं और राहुल गांधी से आम-सभाओं में मतदाताओं को ज़ुबान दिलवा दी कि सरकार बनते ही ये वादे कांग्रेस के मुख्यमंत्री पूरे करेंगे और जो नहीं करेगा, उसकी जगह दूसरा मुख्यमंत्री आएगा; मगर अब आनाकानी हो रही है। सोनिया जानती हैं कि यह कांग्रेस के शिखर-नेतृत्व की साख का सवाल है। वरना वादाखिलाफ़ी के लिए नरेंद्र मोदी पर हमला करते समय कांग्रेस क्या मुंह दिखाएगी?

भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद-जनित उपभोक्तावादी अपसंस्कृति की वजह से राजनीतिक दलों में भी पिछले पांच-सात साल में एक ऐसी टोली के लिए प्रवेश द्वार खुल गए हैं, जो सियासत को एक संजीदा विषय कम, उत्सव-प्रबंधन ज़्यादा मानते हैं। इसका सबसे बड़ा शिकार कांग्रेस हुई है। परदेस के आन गांवों से आए ये सिद्ध सोचते हैं कि राजनीतिक संसार के स्वयंसेवी एमेजॉन, फ्लिपकार्ट, जोमेटो, वगैरह के वितरण-कर्मी जैसे ही हैं। वे कांग्रेस के प्राकृतिक प्रवाह में बह रहे लोगों का ऐसे प्रशिक्षण कार्यक्रमों के ज़रिए अनुकूलन करने की कोशिशों में लग गए हैं, जो बेसिर-पैर के हैं। राजनीतिक कार्यकर्ताओं को वैचारिक प्रशिक्षण देने की ज़रूरत तो हमेशा रहती है, लेकिन सवा सौ साल पुराने किसी राजनीतिक दल के भीतर यह काम कारोबारी दुनिया की पेशेवर ज़मात भला कैसे कर सकती है? क्या कोई सिर्फ़ कांग्रेस के बारे में पढ़-सुन कर कांग्रेसी हो जाएगा? विचारधारा की बुनियाद कहीं लिखित टॉकिंग प्वाइंट्स और बुलैट प्वाइंट्स से पड़ा करती है?

मैं जब नए-नए मुल्लाओं को अपनी अंग्रेज़ीदां हिंदी में वंशानुगत कांग्रेसियों को यह बताते सुनता हूं कि कांग्रेस क्या है और कांग्रेसी को कैसा होना चाहिए तो मन करता है कि रो-रो कर आसमान सिर पर उठा लूं। जो यह प्रशिक्षण-प्रलाप सुन कर वाह-वाह करते हैं, मुझे उनकी भड़ैती पर दया आती है। सुधारों के नाम पर आंय-बांय-शांय कुछ भी करने की ललक से भरे बच्चे-बूढ़ों से कांग्रेस जितनी जल्दी छुटकारा पा लेगी, उतनी ही जल्दी उठ कर खड़ी हो जाएगी। कांग्रेस की संस्कार-दृष्टि और संस्कार-बोध तो इतना अंतर्निहित है कि उसे निरक्षरों से इसे नए सिरे से सीखने की कोई ज़रूरत नहीं है। प्रचार और प्रशिक्षण तंत्र के इन नए व्यापारियों के सिखाए गुरों पर चल कर ही कांग्रेस आज यहां पहुंची है। सोनिया ने सही कहा है कि ख़याली दुनिया के बादलों से बाहर आ कर मिट्टी में लोट लगाए बिना अब उसका उद्धार नहीं है। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं.)

(साई फीचर्स)