(चंद्रभूषण)
गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स के बीस साल बाद आया अरुंधति रॉय का दूसरा उपन्यास मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैपिनेस मैं पहले चौप्टर के आगे नहीं पढ़ पाया था। वजह पहली नजर में यह रही कि पुरानी दिल्ली के निहायत भीतरी इलाकों वाले उसके माहौल को और उसमें मौजूद चरित्रों की बातचीत में जाहिर होने वाली सड़कछाप शायराना तुर्शी को अंग्रेजी की मुहावरेदारी में पकड़ पाना मेरे लिए लोहे के चने चबाने जैसा था। मुझे लगा कि अरुंधति को आगे भी उनकी ऐक्टिविस्ट राइटिंग की शक्ल में ही पढ़ते रहना बतौर पाठक उनके साथ मेरे रिश्ते के लिए ज्यादा अच्छा रहेगा। एक लेखक का अपने पूरे जीवन में एक बढ़िया रचना दे देना ही क्या कम है, जो उससे एक और मास्टरपीस की उम्मीद लगाए रखा जाए!
इस कोशिश के कोई दो साल बाद एक पढ़ाकू मित्र के यहां यही किताब मुझे हिंदी अनुवाद की शक्ल में उनकी स्टडी टेबल पर पड़ी दिखाई दी। कवि मंगलेश डबराल द्वारा अनूदित अपार खुशी का घराना। मित्र से पूछा कि पढ़ ली? बोले कि यार चल नहीं रही। पहले चौप्टर में ही अटक गया, आगे कभी फुरसत से शुरू करूंगा। मेरा अपना तजुर्बा यही रहा है कि जो भी किताब शुरू करने की एक गंभीर कोशिश के बाद आगे के लिए रख दी गई, वह फिर कभी पढ़ी नहीं जाती। मैंने उनसे कहा कि वह शुभ दिन जब आएगा तब आएगा, क्यों न उसके पहले मैं ही जोर आजमा कर देख लूं। उनके एवमस्तु कहने पर मैं किताब ले आया।
आश्चर्य की बात है कि इस बार बात कुछ बनती सी लगी। किताब खास बांध तो नहीं रही थी, लेकिन उसकी लय मेरी पकड़ में आने लगी थी। बीच-बीच में यह कविता पढ़ने जैसा था, जो कि हमेशा ही कठिन काम होता है। किताब के पहले हिस्से के आखिरी पन्ने तो पूरी तरह कविता ही थे। शायद अभी तक कायम दूरी की वजह हमारे आम मिजाज में थी, जो हमें एक हिजड़ा चरित्र को भय, उपेक्षा और सहानुभूति के हिंडोले में बैठकर ही देखने देता है। साथ में एक ऐसी हताशा, जिससे निकलने का कोई रास्ता न हो। लगातार दम घुटने जैसा एहसास। उपन्यास का पहला हिस्सा तो अक्सर खुलकर सांस लेने की मोहलत भी नहीं देता।
फिर आता है दूसरा हिस्सा, जहां हताशा और भी ज्यादा गहरी है। इतनी गहरी कि वह देखते-देखते कई सारे अघोषित युद्धों की शक्ल अपना लेती है। ऐसी लड़ाइयां, जो हमारे इर्द-गिर्द चल रही हैं लेकिन उनकी तरफ हमने अपनी आंखें मूंद रखी हैं। दशकों से जारी कश्मीरी अवाम की लड़ाई, जो अब अपने लक्ष्य को लेकर भी कन्फ्यूज हो चुकी है। दंडकारण्य में नक्सली नेतृत्व में आदिवासियों और गरीब किसानों का संघर्ष, जो अक्सर अस्तित्व के संघर्ष का रूप ले लेता है। और इन लड़ाइयों की तह में औरतों, दलितों और गरीब शहरी आबादी की खदबदाहट, जिसका कोई साझा आम मुहावरा कभी रहा भी हो तो अब उसका कोई नामलेवा नहीं है।
अतीत में कुछ समय एक पूर्णकालिक राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में बिता चुके मेरे जैसे व्यक्ति को यह किताब अचानक अपने मन के भीतर बजती हुई सी लगने लगी। हालत यह हुई कि इसे रोज थोड़ा-थोड़ा पढ़ने का सिलसिला अचानक खत्म करके मुझे एक ही रात में इसको पढ़ डालना पड़ा। इस दौरान लगातार रुलाई सी आती रही कि विकास की इस मृगमरीचिका ने हमें कहां ला फंसाया है? देखते-देखते क्या से क्या बना डाला है? हम न सिर्फ उन लोगों की तरह बोलने और लिखने लगे हैं, बल्कि उन्हीं की तरह सोचने भी लगे हैं, जो इस महादेश की आधी से ज्यादा आबादी को दरिद्रता और वंचना की भट्ठी में झोंक देने के लिए जिम्मेदार हैं!
सिर्फ जिंदा रहने के लिए इतना भय हमने अपने भीतर पाल लिया है कि सच कहना तो दूर, सच देखना भी हमसे नहीं हो पाता! वाकई यह अरुंधति रॉय की बहुत बड़ी कामयाबी है। उन्होंने एक ऐक्टिविस्ट नॉवेल लिखा है, जो मेरे जानते इस देश में पहले कभी संभव नहीं हुआ।
(साई फीचर्स)