पूरा टाइम टेबल गलत है हमारी जिंदगी का

 

(स्व. शरद जोशी)

ऊंघना, झपकी लेना कितनी सुखद स्थिति है, इसका भान ऊंघते या झपकी लेते समय ही होता है। चौंकने पर अपराधबोध होता है कि मूर्ख ऊंघने क्यों लगा, पर फिर ऊंघ आप पर छाने लगती है। मालिक-नौकर वाली इस दुष्ट सभ्यता ने आदमी को चौकीदार, पहरेदार बना दिया है, जहां ऊंघने का अर्थ है निष्ठा में कमी अर्थात नमकहरामी। यह कितना बड़ा अन्याय है कि मालिक कमरे में खर्राटे ले रहा है और बाहर बैठे नौकर का ऊंघना वर्जित है।

दुनिया के आगे बढ़ने का यह अर्थ नहीं होना चाहिए कि आदमी से ऊंघने का सुख छिन जाए। वह सत्ताधारी हुआ तो सिंहासनों पर बैठकर ऊंघा, खजाने का प्रहरी हुआ तो दरवाजे पर बैठकर ऊंघा। बस में बैठा तो दचकों-भरी सड़क पर ऊंघा। टिकट खरीद रेल में ऊंघा। उसे पद मिला तो कुर्सी पर ऊंघा। सेमिनार में ऊंघा। सम्मेलनों में ऊंघा। संविधान पर हाथ रख शपथ ली और संसद में ऊंघा। ऊंघना चरित्र है, लक्षण है, स्वभाव है। कहा है, साधो सहज समाधि भली। सहज समाधि का अर्थ है बैठे-बैठे ऊंघना। इसमें समाधि लगानी नहीं पड़ती। सहज रूप से लग जाती है।

डॉक्टरों का कहना है- आप जानते हैं, प्रति सप्ताह किसी न किसी विषय पर डॉक्टरों के सम्मेलन होते ही रहते हैं और वे कोई न कोई नई अजीब बात कहते ही रहते हैं कि रात को सोने के अलावा दिन में दो बार झपकी लेना केवल जरूरी ही नहीं, स्वाभाविक भी है। प्रयोगों से पता चलता है कि मनुष्य के शरीर की संरचना कुछ इस तरह हुई है कि उसे दिन में दो बार नींद आती है। यदि उस समय वह सो ले कुछ देर तो फिर तरोताजा हो सकता है। वे समय हैं एक, सुबह नौ बजे और दूसरा शाम के पांच बजे।

समझे आप, मानव सभ्यता का नाश क्यों हो रहा है/ आदमी शारीरिक रूप से अस्वस्थ क्यों है/ इसलिए कि जिस समय उसे सोना या झपकी लेना चाहिए उस समय वह नौकरी करने जाता है। वहां से लौटता है। सुबह नौ बजे और शाम के पांच बजे। अब बताइए, जिसने भी यह प्रथा आरंभ की वह मानव-जाति का अव्वल नंबर का शत्रु था या नहीं/ आदमी को जिस समय सोना चाहिए, तब वह सिटी बस के पायदान पर लटक जाता है। पूरा टाइम टेबल गलत है हमारी जिंदगी का।

पर डॉक्टर लोग एक बात और कहते हैं कि जो नींद उस समय नहीं आती, जब उसे आनी चाहिए तो वह थोड़ी पोस्टपोन होती है, पर आती अवश्य है। इस तरह जो व्यक्ति नौ बजे बस या लोकल ट्रेन में लटकने के कारण तब सो नहीं पाता, दफ्तर पहुंचकर अवश्य सो जाता है। शारीरिक रूप से नहीं, पर मानसिक रूप से अवश्य।

यह बात व्यंग्य में नहीं कही जाती कि सरकार सो रही है, उसके विभाग सो रहे हैं। वाकई में सब कुर्सियों पर सो रहे हैं, क्योंकि मानव-शरीर की संरचना के अनुसार वे सब सुबह नौ बजे सो नहीं पाए थे। इसी तरह रात्रि के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में लोग आंखें खोलकर सोते हैं, क्योंकि शाम के पांच बजे सो न सके थे।

मुझे लीजिए, सुबह नौ बजे, जो मनुष्य के सोने का टाइम है, में यह प्रतिदिन लिखता हूं। आपको पढ़ते हुए प्रायः लगता होगा कि मैं नींद में ऊंघते हुए लिखता हूं। क्षमा कर दीजिए। वैसे ही जैसे आप रोज नींद में किए सैकड़ों सरकारी कामों को क्षमा कर देते हैं। नींद में। (26 फरवरी, 1987 को प्रकाशित)

(साई फीचर्स)