विनर और लूजर के बीच यहां खड़े हैं हम

(प्रणव प्रियदर्शी)

यह प्रचार का दौर है। जोर से बोलने का दौर है। अगर आप धीरे से बोलते हैं तो यह मान लिया जाएगा कि या तो आपके पास बोलने को कुछ खास है ही नहीं, या फिर आपको अपने आप पर, अपनी बात पर भरोसा ही नहीं है। और आपकी बात जब आप में भरोसा नहीं जगा पाई तो फिर दूसरों के उस पर भरोसा करने की अपेक्षा भला कैसे की जा सकती है? सो, आपकी बात वहीं खारिज मान ली जाती है, जहां आप धीरे से शुरुआत करते हैं।

यह शिकायत हर उस व्यक्ति की है, जो आज चमचमाता हुआ नहीं दिख रहा, जिसकी तूती नहीं बोल रही। यूं भी कह सकते हैं कि जो खुद को विजेताओं की पांत में खड़ा नहीं पा रहा। अब जो विनर नहीं है, वह लूजर ही हुआ ना। तो सही हो या गलत, सारी शिकायत लूजरों की ही है। और लूजर्स फिलॉसफी पर बात करके टाइम वेस्ट करना विनर्स सोसाइटी को शोभा नहीं देता। नतीजा यह कि शिकायत दर्ज होने से पहले ही दफन हो जाती है और विजेताओं का काफिला अपनी विजयी मुस्कान के साथ आगे निकल जाता है।

जो दर्शन, जो सोच, जो नजरिया उसके पास बचता है, उसमें विजेता की जीत के अलावा और कुछ नहीं होता। उसके पास इतनी फुरसत नहीं कि पराजित अगर उसकी कोई गलती बता रहा है तो उस पर विचार करे। हार तो वह अपनी कभी मानता ही नहीं, लिहाजा इसके कारणों पर सोचने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता! यूं कहें कि विजेता के लिए उसका विजेता होना ही काफी है। किसी स्पष्टीकरण की उम्मीद उससे न करें। तो जो समाज हमारे सामने खड़ा हो रहा है, उसमें सिर्फ दो चीजें बची हैं- जीत और हार।

सारा फोकस उन्हीं पर है जो विजेता का ढोल पीटें और पराजितों पर लानत भेजें। ऐसा समाज विजेता ही बना रहे हैं। दिक्कत सिर्फ एक है कि आज के विजेताओं को लगता है, वे हमेशा विजेता ही रहेंगे। लेकिन आगे किसी भी वजह से उनके पांव फिसले और वे विजेताओं के काफिले से जरा सा पीछे छूट गए तो फिर उनके पास कहीं कोई सहारा नहीं बचेगा। उनकी तकलीफ सुनने कोई और तो आएगा नहीं, पर वे खुद को क्या दिलासा देंगे?

जाहिर है, यह नया समाज चाहे जितना भी चमचमाता हुआ दिखे, यह मनुष्यों का समाज नहीं है। मनुष्य चाहे हारे या जीते, रहता तो वह मनुष्य ही है। मनुष्यता को सिरे से दरकिनार कर देना उसकी फितरत नहीं होती, न हार में न जीत में। इसीलिए यहां जीत के साथ कुछ शर्तें जुड़ी होती हैं तो हार की भी कुछ गरिमा होती है। जीत कर हारने और हार कर जीतने की गुंजाइश भी यहां हमेशा होती है क्योंकि यहां हर लड़ाई का आखिरी मकसद अमन-चौन के कुछ पल गुजारना ही हुआ करता है।

(साई फीचर्स)