एक बार औषधियों की खोज-बीन में राजवैद्य चरक जंगल-जंगल घूम रहे थे। उन्हें जिस औषधि की तलाश थी वह कहीं भी नजर नहीं आ रही थी। तभी एकाएक उनकी दृष्टि खेत में पौधे पर लगे एक सुंदर फूल पर पड़ी। इससे पहले उन्होंने हजारों फूलों के गुण-दोषों की जांच की थी और उनसे औषधि भी तैयार की थी, परंतु यह तो कोई नए प्रकार का ही फूल लग रहा था। उनका मन उस फूल को पा लेने के लिए उत्सुक था, किंतु पैर आगे ही नहीं बढ़ रहे थे।
उनको सकुचाते देख समीप खड़े उनके एक शिष्य ने उनसे पूछा, गुरुदेव, क्या मैं वह फूल लेकर आ जाऊं? वत्स, फूल तो मुझे चाहिए, लेकिन खेत के मालिक की अनुमति के बिना फूल तोड़ लेना तो चोरी मानी जाएगी। गुरुदेव, कोई वस्तु किसी के काम की हो, तो उसे बिना अनुमति के ले लेना चोरी हो सकती है, परंतु यह तो बस एक पुष्प है। आज यह खिला हुआ है, लेकिन एकाध दिन में मुरझा जाएगा, फिर इसे ले लेने में हर्ज ही क्या है? फिर… गुरु चरक ने बीच में ही पूछा। शिष्य ने कहा, फिर क्या गुरुदेव! आपको तो राजाज्ञा मिली है कि आप कहीं से कोई भी वन-संपत्ति इच्छानुसार बिना किसी की अनुमति के भी ले सकते हैं।
चरक ने शिष्य को समझाने की कोशिश की, राजाज्ञा और नैतिकता में बहुत अंतर होता है। शिष्य ने उत्सुकतावश चरक से पूछा, इसका क्या अर्थ हुआ गुरुदेव? चरक ने समझाया, सुनो वत्स, यदि अपने आश्रितों की संपत्ति को स्वच्छंदता से हम अपने व्यवहार में लाने लगेंगे तो फिर लोगों में आदर्श कैसे जागृत कर पाएंगे? इसके बाद गुरुदेव चरक तीन कोस पैदल चलकर उस किसान के निवास स्थान पर गए और फिर उससे अनुमति लेकर फूल तोड़ा। फूल के गुण-दोषों की जांच करके ही उन्होंने औषधि का निर्माण किया।
(साई फीचर्स)
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