उन दिनों बंगाल बाढ़ की मार से जूझ रहा था। बहुत-से गांव बाढ़ में डूबकर पूरी तरह बर्बाद हो चुके थे। लोगों को हर पल बीमारियों और अन्न-वस्त्र के अभाव का सामना करना पड़ रहा था। इन कठिन परिस्थितियों में कुछ युवा दिन-रात लोगों की सेवा में जुटे हुए थे और इन्हीं में से एक थे सुभाष यानी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस।
वह उन दिनों कॉलेज की पढ़ाई कर रहे थे और अपने कुछ मित्रों के साथ बाढ़-पीड़ितों की सहायता में लगे हुए थे। एक दिन वह जब सेवा-कार्य के लिए घर से जा रहे थे, तब उनके पिताजी ने उनसे पूछा, बेटा, तुम कहां जा रहे हो? लगता है कि आज-कल तुम बहुत व्यस्त रहते हो। सुभाष ने उत्तर दिया, पिताजी, मैं बाढ़-पीड़ितों की सेवा में लगा हूं। बाढ़ ने लोगों का घर-बार उजाड़ दिया है।
उनकी हालत देखकर मेरा दिल रो उठता है। इस पर जानकीनाथ बोस बोले, सुभाष, मैं तुमसे सहमत हूं। लोगों की मदद जरूर करनी चाहिए। लेकिन ऐसा करने के लिए अपने कर्तव्यों को अनदेखा नहीं करना चाहिए। अपने यहां दुर्गा-पूजन का भव्य कार्यक्रम आयोजित किया गया है। इसमें मेरे साथ तुम्हारा होना भी बेहद आवश्यक है। पिता को जवाब देते हुए सुभाष ने कहा, पिताजी, मुझे माफ कीजिए।
मेरे लिए आपके साथ चलना संभव नहीं है। जब चारों ओर बाढ़ से हाहाकार मचा हुआ है, ऐसे में मेरे दिमाग में तो केवल एक ही विचार हर समय रहता है- किस तरह लोगों की अधिक-से-अधिक मदद की जाए। सुभाष ने आगे कहा, मेरे लिए दीन-दुखियों में ही मां दुर्गा का वास है। मेरी पूजा के भागी यही लोग हैं। उनकी यह बात सुनकर पिता की आंखों से खुशी के आंसू छलक पड़े और गदगद होकर उन्होंने सुभाष को गले से लगा लिया। देशभक्ति और सेवाभाव के लिए नेताजी बोस आज भी याद किए जाते हैं।
(साई फीचर्स)

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