(आगा खान)
कान्हीवाड़ा (साई)। पुराने समय में पलास के फूलों से होली खेलने की परपंरा थी किंतु पिछले दो दशक से लोगों पर आधुनिकता का रंग ऐसा चढ़ा कि लोग अपनी पहले की परंपरा और मान्यताओं की रूढ़ि वादिता के नाम पर उसे भूलते जा रहे हैं। इन दिनों जिले में हर ओर पलास के पौधों में फूल नजर आ रहे हैं।
पहले पलास के फूलों से बने रंग से होली खेलने का चलन था और उसके पीछे सोच यह थी कि ठण्ड के दिनों में शरीर की त्वचा पर जो मैल आदि की परत बैठ जाती थी, पलास के रंग उन त्वचाजन्य कई विकारों को दूर करने में काफी सहायक होते हैं। होली पर वनस्पतियों से रंग बनाकर होली खेलने की परपंरा थी।
आज वक्त बदला और रासायनिक रंगों ने इनकी जगह ले ली है। इस समय खेतों और सड़कों के किनारों पर पलास के पेड़ों पर फूल भरपूर मात्रा में नजर आने लगे हैं, जो लोगों के मन को मोह रहे हैं। मान्यता है कि पलास के फूल बसंत के आगमन का संकेत देते हैं।
पलास उत्तर प्रदेश सरकार का राज्य पुष्प है और इसको भारतीय डाकघर विभाग द्वारा डाक टिकिट पर प्रकाशित कर सम्मानित भी किया जा चुका है। भारतीय साहित्य और संस्कृति से गहरा संबंध रखने वाले इस वृक्ष का चिकित्सा और स्वास्थ्य से भी गहरा संबंध है।
बसंत में खिलना आरंभ करने वाला यह वृक्ष गर्मी की प्रचण्ड तपन में भी अपनी छटा बिखेरता रहता है। जिस समय गर्मी से व्याकुल होकर सारी हरियाली नष्ट हो जाती है, जंगल सूखे नजर आते हैं, दूर तक हरी दूब का नामों निशान भी नजर नहीं आता है, उस समय भी इसके पत्ते हरे-भरे रहते हैं।