सिवनी का नूर थीं तीन टॉकीज़!

 

 

सिवनी में पदस्थ रहे पुलिस अधीक्षक हरिशंकर सोनी की फेसबुक वाल से

(ब्यूरो कार्यालय)

सिवनी (साई)। अस्सी के दशक में सिवनी जिले में पदस्थ रहे पुलिस अधीक्षक हरि शंकर सोनी के द्वारा सिवनी में पदस्थापना के दौरान जिन बातों से वे दो चार हुए थे, उन संस्मरणों को उनके द्वारा सोशल मीडिया फेसबुक पर साझा किया गया है। उनके द्वारा हाल ही में सिवनी में सुबह कैसे हुआ करती थी इस बात का उल्लेख किया गया था, अब आगे पढ़ें..

इन सब बातों के बीच अगर सिवनी में बने उन दिनों के सिनेमा घरों की चर्चा न कि जाये तो बेमानी होगी जो वहाँ उन दिनों का एक मुख्य आकर्षण हुआ करता था। कुल मिलाकर उन दिनों वहाँ 03 मुख्य टॉकीज़़ हुआ करती थीं। अशोक टॉकीज़़, अमर टॉकीज़ व महावीर टॉकीज़।

शहर की चहल पहल शाम को सिनेमा घरों के फर्स्ट शो आरंभ होने के पहले ही हो जाती थी। दोपहर 12 बजे का शो व मैटनी शो में अक्सर महिजाएं व युवतियां ज्यादा जाया करतीं थीं। चूँकि उन दिनों ध्वनि प्रदूषण के ऊपर कोई रोक टोक नहीं थी अतः शाम को नयी नवेली फ़िल्म के गानों को जोर जोर से लाउड स्पीकर के माध्यम से बजाया जाता था ताकि अधिक से अधिक पब्लिक सिनेमा घरों की ओर आकर्षित हो सके।

घरों से उठते चुल्हों के धुंए में उनका तेज धीमा संगीत हर शाम को एक अजीब रुमानियत से भर देता था। उन्होंने लिखा है कि मुझे आज भी याद है, फ़िल्म आया सावन झूम के और तीसरी कसम के गाने वहाँ अक्सर बजा करते थे। आज भी जब कभी वो पुराने गीत कहीं बजते हैं मैं सिवनी की उन धुंधमय यादों में खो सा जाता हूँ।

उन दिनों पिक्चरें इतनी जल्दी नहीं बनती थीं और रिलीज़ होने के बाद सिवनी के सिनेमा घरों में भी काफी लेट लगा करती थीं। इसका असर यह होता था कि जब भी कोई नयी फिल्म रिलीज़ होने के बाद यहाँ पहुँचती, हर वर्ग के लोगों का हुजूम पिक्चर देखने टूट पड़ता था।

बाहर ठेले में गरमा गर्म मूंगफली बेचते लोगों के साथ ही सिनेमा घरों में भीड़ आरंभ हो जाती थी। युवतिया व मुस्लिम समुदाय की पर्दानशीं महिलाएं अक्सर समूह में फिल्में देखने आया करती थीं जिनके पीछे चलते मनचले शोहदों के झुण्ड भी गाहे बगाहे छींटा कशी करने से बाज नहीं आते थे।

उन दिनों सिनेमा घरों में महिलाओं की और पुरुषों के बैठने की अलग – अलग व्यवस्था अलग – अलग रखी जाती थी और इंटरवल होते ही एक गहरा काला कपड़ा दोनों के बीच खिंच जाया करता था। आज भी वो सब बातें याद कर अकस्मात होंठों पर मुस्कान तैर जाती है और फिर आज के खुलेपन से उस समय की तुलना करने लगता हूँ।

(क्रमशः जारी)