मॉब लिंचिंग की हमारी भयानक संस्कृति समाज में बड़े पैमाने पर फैले अन्याय का एक उत्पाद है। भीड़ द्वारा होने वाली हत्या या मॉब लिंचिंग एक राष्ट्रीय महामारी बन गई है, लेकिन सरकार अभी भी काफी हद तक निष्क्रिय है। अफसोस की बात है, कुछ लोगों के बीच जागरूकता सामग्री वितरित करने के अलावा सरकार ने कुछ नहीं किया है। लिंचिंग के कुछ ही मामलों में दोषियों को कानून के दायरे में लाया गया है। ऐसी हिंसक भीड़ को रोकने के लिए हमें इस अपराध की प्रकृति को समझना चाहिए। ऐसी घटनाएं क्यों होती हैं? तथ्य यह है कि जनता खुद ही न्यायाधीश, ज्यूरी और जल्लाद बनकर अपना रास्ता बना रही है। यह इंगित करता है कि लोगों का न्याय व्यवस्था पर विश्वास कम होता जा रहा है। तथ्य यह है कि अधिकारी अक्सर कथित अपराधियों को पकड़ नहीं रहे हैं। अतः जब कोई कथित अपराधी लोगों की पकड़ में आ रहा है, तो लोग उसे पुलिस को सौंप नहीं रहे। हमारी कानून प्रवर्तन एजेंसियों पर भरोसा खत्म हो गया है?
एक पक्ष यह भी कि लिंचिंग में हिस्सा लेने वालों को दंडित नहीं किया जा रहा है। न्याय प्रणाली कमजोर पड़ रही है। जो लोग न्याय पर भरोसा कर रहे हैं, वे मुश्किल में पड़ जा रहे हैं। हमें यह पहचानना चाहिए कि लिंचिंग की हमारी भयानक संस्कृति समाज में बड़े पैमाने पर अन्याय और सरकार की अक्षमता का एक उत्पाद है। हाल ही में जब उच्च न्यायालय ने भीड़ के शिकार लोगों को बचाने में सरकार की निष्क्रियता की निंदा की, तो हम यह मान सकते हैं कि सरकार कुछ करेगी। यह एक सुझाव है कि सार्वजनिक संस्थानों को अधिक उत्तरदायी और जिम्मेदार बनाया जाए। समाज में क्षतिपूर्ति या मरहम लगाने की संस्कृति को समाप्त नहीं किया जा सकता। कानून प्रवर्तन अधिकारियों में लोगों का भरोसा बहाल होना चाहिए, वरना उस जहरीली मानसिकता को पूरी तरह से बदलना मुश्किल हो जाएगा, जिसके तहत भीड़ हिंसा के लिए जुटती है। तात्कालिक रूप से जरूरी है कि लिंचिंग के दोषियों को जल्द से जल्द कठोर सजा दी जाए, ताकि दूसरों को सबक मिले। (ढाका ट्रिब्यून, बांग्लादेश से साभार)
(साई फीचर्स)