(विजय तिवारी)
लोकसभा चुनावों की गर्मी मंे नेताओं के कथन और उनके, नियम सम्मत होने को लेकर बार – बार सवाल उठ खड़े हो रहे हैं। जिन्हें निपटाने के लिए कभी सत्ता पार्टी भारतीय जनता पार्टी और कभी विपक्षी दल सुप्रीम कोर्ट और केंद्रीय चुनाव आयोग के सामने अपनी अर्जी लगाते हैं। परंतु दोनों ही निकायों के हुकुमनामे – उन कारणों का खुलाशा नहीं करते जिनके आधार पर फैसले लिए गये। कंगारू कोर्ट में भी सज़ा पाने वाले को उसकी गलती बता कर सर को धड़ से अलग कर दिया जाता हैं! कुछ – कुछ वैसा ही हाल के फैसलों में दिखाई पड़ता हैं।
हाल का फैसला वाराणसी से बसपा-सपा गठबंधन के उम्मीदवार तेज प्रताप यादव को उम्मीदवारी का पर्चा खारिज करने को लेकर हैं। तेजप्रताप ने पहले निर्दलीय के रूप में नामांकन दाखिल किया था। तब भी चुनाव अधिकारी ने उन्हें यह नहीं बताया कि वे भारत के आम नागरिक नहीं वर्ण खास हैं! क्योंकि वे अर्ध सैनिक बल में रह चुके हैं। इसलिए उन्हे अपने पूर्व नियोक्ता से अनापत्ति प्रमाण पत्र देना होगा, यहां एक सवाल उठता हैं कि क्या ऐसा प्रमाण पत्र जनरल वी. के. सिंह ने गाजियाबाद के चुनाव अधिकारी को दिया था? क्योंकि वे भी सेना के पूर्व अधिकारी थे!
अथवा अनापत्ति प्रमाण पत्र अधिकारियों के लिए अनिवार्य नहीं है। सिर्फ सैनिकों के लिए जरूरी हैं? सुप्रीम कोर्ट ने भी गुण-दोष के आधार पर जिलाधिकारी के आदेश को ही माना और तेज बहादुर यादव नरेंद्र मोदी के विरुद्ध चुनाव लड़ने मैं असफल कर दिये गये! वाह रे लोकतंत्र! दूसरा मामला 21 राजनीतिक दलों ने ईवीएम वोटिंग मशीनों के शासक दल द्वारा दुरुपयोग को नियंत्रित करने हेतु – प्रत्येक लोकसभा क्षेत्र के वोटों के पचास फीसदी वीवीपेट पर्चियों के मिलान के लिए केंचुआ को निर्देश दिये जाने की मांग की थी। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र के एक बूथ में यह प्रयोग किया जा सकता हैं, जैसा कि केंद्रीय चुनाव आयोग ने अदालत से कहा था।
अब जहां 1500 निर्वाचन बूथ होते हैं उनमें किसी एक में पर्चियों का वोट से मिलान वैसे ही हैं जैसे किसी बटलोई में पक रहे एक किलो चावल को जांच एक चावल निकाल कर की जाये कि यह भात बना या अभी भी चावल हैं! परंतु सुप्रीम कोर्ट ने पुनर्विचार याचिका को 60 सेकंड में यह कहते हुए खारिज कर दिया कि हम आपकी याचिका सुनने के लिए बाध्य नहीं हैं। इस फैसले का कानूनी पहलू कुछ भी हो परंतु देश के लोकतंत्र में मतदाता की मर्जी पर संदेह का निवारण तो परमावश्यक हैं।
चुनाव आयोग ने अपने जवाब में कहा था कि अगर 50 फीसदी पर्चियों का वोटों से मिलन होगा तो वोट गिनने में चार-पाँच दिन लग जाएँगे। जिन लोगों ने बैलेट पेपर से वोट दिया होगा उन्हें मालूम होगा कि वोटों कि गिनती में 24 से 30 घंटे औसतन लगते थे। अब आधे वोटों के पर्चियों के मिलान मैं चार से पाँच दिन का वक़्त लगने की बात हजम नहीं होती हैं। दूसरा प्रश्न यह है कि क्या सुप्रीम कोर्ट देश के पचास फीसदी मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीतिक पार्टियां क्या इतनी गयी – गुजरी हो गयी हैं कि उनकी अर्जी पर सिर्फ अदालत की मर्जी ही चलेगी? वह भी बिना कोई स्पष्ट कारण बताए।
नियम हैं की फैसला भले ही चार लाइन का हो, परंतु निर्णय में सारे तथ्य पर विचार करके उन तर्कों का हवाला भी होता हैं जिनके आधार पर फैसला किया गया। पर ऐसा नहीं हुआ। अब बात करते हैं चुनाव के रेफरी की, जिसने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के कृत्यों और भाषणों पर आपति जताने की अर्जियों पर क्लीनचिट की आदत सी बना ली हैं। उन्हें अब तक नौ (9) बार इस फैसले से नवाजा गया हैं।
सबसे पहले चिट उन्हें तब मिली जब चुनाव के दरम्यान उपग्रह के आसमान में छोड़े जाने की घटना पर मोदी जी ने देश के नाम टेलीविज़न (दूर दर्शन समेत सभी निजी चौनलों पर) पर राष्ट्र को संदेश दिया था, यद्यपि यह सूचना पारंपरिक रूप से इसरो के आद्यक्ष द्वारा की जाती थी। परंतु चुनावी माहौल में मोदी जी ने इसे भी अपनी सरकार के लिए भुनाने की सफल कोशिश की उसके बाद अहमदाबाद में जब वे वोट डालने गए, तब भी वे खुली गाड़ी में रोड शो किया, जो चुनाव आचार संहिता के तहत नियम विरुद्ध हैं परंतु चुनाव आयोग ने उसे भी अनियमित नहीं माना।
सहारनपुर में काँग्रेस के नवजोत सिंह सिद्धू ने अपने उद्बोधन में कहा कि मुसलमानों को सम्पूर्ण शक्ति से वोट डालना चाहिए। उनके इस भाषण को सांप्रदायिकता और भड़काऊ भाषण मान कर दो दिन तक उनके प्रचार करने पर रोक लगा दी। अब बंगाल के बैरकपुर में मोदी जी ने कहा की दीदी (ममता बनर्जी) जय श्री राम बोलने वालों को जेल में डाल देती हैं। तब शिकायत पर चुनाव आयोग ने फिर क्लीन चिट दे दी।
अभी हाल में पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी पर टिप्पणी करते हुए राहुल गांधी पर कटाक्ष करते हुए कहा कि आपके पिता को उनके दरबारियों ने मिस्टर क्लीन बना दिया था पर वे भ्रष्टाचारी के रूप में गए!
इस पर जब शिकायत हुई तब भी क्लीनचिट मिल गयी। और तो और वित्त मंत्री अरुण जेटली ने तो अपने ब्लॉग में लिखा अभिव्यक्ति की आज़ादी चुनाव आचार संहिता से कहीं ऊपर हैं, जिसका अर्थ हुआ कि चुनाव आचार संहिता सिर्फ आजम खान – नवजोत सिंह सिद्धू और प्रज्ञा ठाकुर आदि लोगों की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर नियंत्रण कर सकती हैं! नरेंद्र मोदी पर यह रोक नहीं लागू होती! क्योंकि वे बीजेपी प्रवक्ता राम माधव के शब्दो मैं वे किंग हैं और कहावत हैं किंग डज नो रांग केंद्रीय चुनाव आयोग के फैसलों में यह फैसले न्यायपूर्ण तो बिलकुल नहीं हैं। जबकि आयोग का काम हैं कि वह यह सुनिश्चित करे कि सभी दल और उनके उम्मीदवारों के लिए एक जैसे नियम और सुविधा मिले जिससे की निष्पक्ष चुनाव हो। सागर में मोदी जी की सभा को 5 मई को करने की अनुमति दी गयी, जबकि नियमानुसार मतदान के 48 घंटे पूर्व चुनाव प्रचार बंद हो जाता हैं और उस क्षेत्र में 6 मई को मतदान हुआ। केंद्रीय चुनाव आयोग का एक फैसला तो अत्यंत मजेदार हैं – दिल्ली से आप पार्टी की उम्मीदवार आतशी मारकेल के धर्म के बारे जब विरोधी पार्टियों ने उन्हें यहूदी और ईसाई बताने का कुप्रचार किया, तब दिल्ली के शिक्षा मंत्री मनीष सिंह सिसौदिया ने एक बयान देकर कहा कि भूलो मत की आतिशी एक राजपुतानी क्षत्राणी हैं!
बस आयोग को यह बयान धर्म और जाति सूचक लगा। अब उम्मीदवार की सामाजिक पहचान बताने पर आचार संहिता का उल्लंघन हो गया। एवं उधर अमित शाह का बंगाल में दिया गया बयान कि में जय श्री राम बोलता हूँ -जो उखड़ना हो उखाड़ लो यह भद्दा कथन आयोग की निगाह मैं अनुचित नहीं था। अचरज की बात यह हैं कि जब चुनाव के रेफरी यानि केन्द्रीय चुनाव आयोग के नरेंद्र मोदी को आठ बार आचार संहिता के उल्लंघन की शिकायत की गयी तब उन्हें क्लीनचिट दी जाती रही, हालांकि यह तीन सदस्यीय आयोग का 2-1 का फैसला था।
जब सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले के खिलाफ कार्रवाई की याचिका दायर की गयी तब सर्वाेच्च न्यायालय ने यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि चुनाव आयोग ने कार्रवाई कर दी हैं। अतः हम कोई निर्देश नहीं देंगे। उन्होंने सलाह दी कि यदि याचिकाकर्ता चाहे तो वह चुनाव याचिका इस मामले में दायर कर सकता हैं यानि की हो गयी पाँच साल की फुर्सत। अगर हम चुनाव याचिकाओं का इतिहास देखें तो अधिकतर यानि की नब्बे प्रतिशत मामलों में याचिका पर फैसला तब आता हैं जब वह निष्प्रभावी हो जाता हैं।
परदेश के एक मंत्री के विरुद्ध पेड न्यूज़ के मामले में वाद दायर किया गया। जब विधानसभा का जीवन काल समाप्त हो गया तब उस पर फैसला आया। तब तक वे दुबारा चुनाव लड़ कर विधान सभा पहुँच गये थे। अब ऐसे फैसले का होना या ना होना किस अर्थ का। इन दोनों सर्वाेच्च संगठनों द्वारा लोकतन्त्र की आत्मा अर्थात संविधान प्रदत्त अधिकारों और दायित्वों को सरकार और उसके तंत्र के भरोसे छोड़ देना, आम नागरिकों के अधिकारों की हत्या हैं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह कहना कि अपील करे का अर्थ ना केवल बहुत सारा धन और समय की बर्बादी होगा। क्योंकि बात गलती की त्वरित सज़ा ही आचार संहिता का आधार हैं।
यदि वह नहीं किया गया और सर्वाेच्च न्यायालय ने भी आयोग की गलती नहीं सुधारा, तब वह भी अपने कर्तव्य से विमुख हो रहा हैं। सिर्फ यह कह देना की कारवाई हो गयी हैं, पर्याप्त नहीं हैं। वरन देखना यह भी होगा की क्या कारवाई से न्याय हुआ अथवा फाइल आगे भर बढ़ाई गयी हैं। सर्वाेच न्यायालय यदि सरकारी तंत्र के कार्याे की समीक्षा नहीं करेगा तो दूसरा कौन सा निकाय हैं, जो यह कर सकता हैं।
(साई फीचर्स)

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