राहुल का स्तीफा और कांग्रेस का भविष्य!

 

 

 

 

(ऋतुपर्ण दवे)

आखिर राहुल गांधी ने कर ही ली मन की बात। लोकसभा में हार की जिम्मेदारी लेते हुए कड़े फैसले की खुद से शुरुआत बेहतर इशारा जरूर है जो फूटा डिब्बा बजाकर कांग्रेस में क्रान्ति की कैसी आग फैलाती है देखना होगा। राहुल की एकाएक घोषणा और महीने भर पहले ही अध्यक्ष चुन लेने की बात से भले ही कांग्रेस में झटका लगा हो और जिसे भाजपा व तमाम सहयोगियों ने भी नहीं सोचा होगा। लेकिन कांग्रेस की 2019 के आम चुनाव में हार का दायित्व लेकर उठाया गया कदम राजनीतिक गलियारों में अप्रत्याशित इसलिए है कि इसकी संभावना नहीं लग रही थी। नैतिकता के नाम पर यह भविष्य में कांग्रेस और राहुल को कितना मजबूत करेगा इसके लिए इंतजार करना होगा।

इसमें कोई दो राय नहीं कि मां सोनिया के 19 साल अध्यक्ष रहने की तुलना में राहुल के 19 महीने कई मायने में यादगार होंगे। कहीं राफेल सहित अनेकों विषयों पर उनके आक्रामक तेवर तो कहीं संसद में प्रधानमंत्री के गले लगने जैसे कई प्रसंग चर्चाओं में रहे और लंबे समय तक रहेंगे। कांग्रेस पर परिवारवाद के आरोपों का इसे जवाब कहें या दूसरे दलों के लिए नसीहत, राहुल ने एक संदेश जरूर दिया है जिसके असर का इंतजार करना होगा।

कांग्रेस अध्यक्ष रहते राहुल ने विरोधियों पर लगातार और कई तीखे वार किए हैं। उनकी छवि में भी काफी बदलाव दिखा। अध्यक्ष न रहने की घोषणा करते हुए राहलु ने 4 पृष्ठ का भावुक चिट्ठी लिखी है जो चिट्ठी कम नसीहत ज्यादा दिखती है। भले ही इसमें राहुल की भावना दिखे लेकिन भविष्य के संकेत भी साफ हैं कि आने वाले दिनों में कांग्रेस में बहुत ही उठा पटक और बदलाव का दौर दिखने वाला है। एक बहुत गंभीर बात जिसमें कई बार अकेले खड़ा होने का जिक्र है राहुल की पीड़ा को झलकाती है। राजनीति की दशा पर उनके शब्दों के भले ही कुछ भी मायने निकाले जाएं लेकिन आने वाले दिनों में यह पत्र काफी रंग दिखाने वाला है। निश्चित रूप से समय के साथ बदलाव होता है। कांग्रेस भी इस बदलाव का शिकार हुई। कांग्रेस में मैदानी लड़ाई लड़ने की ताकत चुकती रही और आंतरिक गुटबाजी का शिकार होती रही। लोकतंत्र के लिए दो मजबूत दलों का होना बहुत ही जरूरी है। राहुल का कहना कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार उनके विरोधियों से लड़ाई की हार नहीं बल्कि सरकारी मशीनरी के विरोध में थी बड़ा मुद्दा बनने वाला है। शायद उनका इशारा सारी संस्थाओं पर है जिसने कांग्रेस के खिलाफ लड़ाई लड़ी। लेकिन राहुल शायद यह भूल गए हैं कि कांग्रेस शासित राज्यों में भी करारी हार हुई जहां 6 महीने पहले ही सत्ता मिली थी। मप्र,राजस्थान, छग मं तो नई नवेली कांग्रेस सरकारों के होते हुए भी संस्थाओं के दुरुपयोग की दलील खुद ही बड़ा सवाल है।

पंजब के तरनतारन के एक गुमनाम क्रान्तिकारी सरदार नन्द सिंह थे जो मिस्त्री थे। उन्होंने स्वतंत्रता की अलख जगाने के लिए 1918 में पंजाब में मार्शल लॉ लगाने का विरोध करने के लिए अनूठी मुहिम छेड़ी थी। अपना मजदूरी का काम छोड़कर वो पूरे दिन डुग्गी बजाने लग गए और तरनतारन के लोगों को हड़ताल के प्रेरित करने लगे। अंग्रेजी हुकूमत को यह नागवार गुजरा और पुलिस ने उन्हें कई बार जेल में डाला। काफी प्रताड़ित भी किया लेकिन जैसे ही बाहर आते ही अपने काम में जुट जाते। उनकी डुग्गी बस एक फूटा कनस्तर था जिसे लकड़ी की डंडी से पीटते और लोगों का ध्यान बंटाते थे। लोग उनका मजाक भी उड़ाते लेकिन बेपरवाह होकर आजादी के इस परवाने का लोगों से सवाल होता था कि बस बातें करोगे या कुछ और भी। कहते हैं बाद में बैसाखी के पर्व पर सैकड़ों लोग नन्द सिंह से प्रभावित होकर अमृतसर के जलियांवाला बाग पहुंचे थे जहां जनरल डायर ने गोली चलाकर निर्दाेष भारतीयों को मार डाला जिनमें वो खुद भी थे। मगर क्रान्ति के इस सिपाही को इतिहास में कहीं जगह नहीं मिली। कांग्रेस की स्थिति भी कुछ ऐसी हो गई है। पार्टी के अन्दर ही एक मजबूत संगठनात्मक क्रान्ति की जरूरत है। देश की स्वतंत्रता के समय अलग ही जज्बे के साथ पूरे शबाब पर रही पार्टी संभवतः अपने इतिहास के सबसे कठिन दौर से गुजर रही है जिसे अतीत से सीखना होगा।

बस अब यही देखना है कि कांग्रेस में कितना बदलाव होगा? साथ ही यह कहना भी जल्दबाजी होगी कि हर सर्जरी के बाद पुराने मर्ज के खात्मे की उम्मीद पूरी ही होती है। कांग्रेस का भविष्य, कांग्रेस के वर्तमान से कितना अलग होगा इंतजार करना ही बेहतर रहेगा। राहुल गांधी ने डुग्गी बजा दी है बस देखना है कि कांग्रेस में इससे कितनी क्रान्ति होती है!

(साई फीचर्स)

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