(हरी शंकर व्या स)
जैसे मैंने नसीब में नरेंद्र मोदी के होने की बात लिखी वैसी मजबूरी राहुल गांधी को ले कर भी यदि है तो है हम और आप क्या कर सकते है! आज देश में विपक्ष और नेता-विपक्ष की जरूरत कितनी अधिक है। लेकिन हमें नसीब में क्या प्राप्त है? राहुल गांधी। तभी सन् 2019 के वक्त की भारत राजनीति अपनी किस्मत पर रो ही सकती है। कोई नहीं समझ पा रहा है कि राहुल गांधी क्या चाह रहे है और उससे अंततः कांग्रेस का, जनता का, हिंदुओं का, देश की राजनीति का क्या बनेगा? इस्तीफे के पहले दिन ही मैंने लिखा था कि राहुल ने इस्तीफा दिया है तो उन्हे क्या पता भी है कि वे चाहते क्या है? दो महिने बाद आज राहुल को खुद मां और बहिन के साथ बैठ कर विचारना चाहिए कि उन्होने इस्तीफा जब दिया था तो वह सब सोचा था जो उनके इस्तीफे के बाद कांग्रेस में हुआ है? कांग्रेस में आज जैसी भगदड़, अनिश्तितता, किंकर्तव्यमूढ़ता है क्या उस सब का राहुल गांधी को अनुमान था?
घटनाओं ने साबित किया है कि अध्यक्ष कोई भी बनें वह कांग्रेस को संभाल नहीं सकता। जो बनेगा वह परिवार का डम्मी होगा और कांग्रेस में सब बेलगाम बनेगा। कांग्रेस बिखरेगी। कांग्रेस नेताओं ने बता दिया है कि सोनिया, राहुल गांधी और प्रिंयका गांधी के अलावा दूसरा कोई पार्टी नहीं संभाल सकता है। उस नाते कुछ जानकारों का यह सोचना गलत नहीं है कि राहुल ने इस्तीफा दे कर साबित किया कि उनके अलावा दूसरा नेता नहीं है। लोग- कांग्रेसी हार के कारण राहुल गांधी पर सवाल करते उससे पहले राहुल गांधी ने इस्तीफा दे कर अपनी अनिवार्यता की और पुख्ता जरूरत बनवाई। मतलब इस्तीफे का खेल जानबूझकर प्लानिंग में था। लेकिन अपना मानना है राहुल गांधी ने अपने मन में जो आया वह किया। वे जिद्दी है और नया अध्यक्ष बनवा कर मानेंगे।
मगर इससे कांग्रेस की यह हकीकत तो जाहिर हुई है कि कांग्रेस के एक भी नेता में, कार्यसमिति या किसी भी कांग्रेसी थिंक टैंक, व्यवस्था में समझ नहीं है कि संकट बनने पर उससे कैसे बाहर निकले? कांग्रेस में न अंदरूनी राजनीति है और न बाहरी राजनीति का माद्दा और विजन!
सोचे, इतनी बड़ी और पुरानी पार्टी और इतने चेहरे मगर बिना राजनीति के! नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने 2012 से ले कर अब तक के सात सालों में प्रमाणित किया है कि वे राजनीति के ग्रांडमास्टर है। राजनीति की धूर्तताओं में सबकुछ साधने में समर्थ है। साम-दाम-दंड-भेद के सभी नुस्खों के धुरंधर है जबकि इन सात वर्षों में सोनिया गांधी, राहुल गांधी से ले कर डा मनमोहनसिंह, पी चिंदरबरम, अहमद पटेल आदि कार्यसमिति के तमाम सदस्यों ने बार-बार लगातार प्रमाणित किया है कि उन्हे पता ही नहीं है कि यदि शतरंज के खेल में सामने घाघ खिलाड़ी आ गया तो ये उसके आगे कैसे खेले? क्या गेमप्लान हो? कौन हो कप्तान और कैसे टीम को रखे संगठित?
एक स्तर पर कांग्रेस और राहुल गांधी के संकट का एकमेव कारण नरेंद्र मोदी है। सोनिया गांधी, उनके दरबार से लेकर राहुल गांधी और उनके दरबार के लोग अभी तक यह बूझ, समझ नहीं पाए कि मोदी-शाह का क्या अर्थ है? भला ऐसा क्यों? इसलिए क्योंकि पीवी नरसिंहराव के बाद से कांग्रेस बिना राजनैतिक थिंक-टैंक के है। मैनेजरों से कांग्रेस चली है। वाजपेयी सरकार के मुगालतों से वक्त ने भले कांग्रेस को मौका दिया लेकिन उस मौके को कांग्रेस ने मैनेजर व्यवस्था में सत्ता भोग गंवाया और नरेंद्र मोदी के लिए स्थाई अवसर बनवा दिया।
कांग्रेस की गलतियों से नरेंद्र मोदी का कैसे दिल्ली में अवसर बन रहा है और हिंदूओं का सोचना कैसे बदल रहा है, इस पर मैं 2012 से लगातार लिखता रहा हूं। लेकिन कांग्रेस के तमाम नेताओं का रूख रहा है कि कुछ नहीं है, हम सत्ता में है और सत्ता नहीं जा सकती। हम सब जानते है।
वही हाल राहुल गांधी के इस्तीफे का बाद भी है। मौजूदा संकट पर राजनैतिक चुनौती, अंदाज में विचार नहीं हो रहा है। मैनेजरी अंदाज में रास्ता निकाला जा रहा है कि ऐसा नहीं तो वैसा। डम्मी को बनाओ या वफादार को या ऐसे चेहरे को जो नए -पुराने दोनों तरफ के नेताओं याकि सोनिया-राहुल के दरबार के लिए समान रूप से मैनेजमेबल हो। या यह कोशिश की राहुल से इस्तीफा वापिस करवा लेंगे या यह कि सोनिया गांधी अस्थाई तौर पर अध्यक्ष बने।
एक तरह से राहुल गांधी ने इस्तीफा दे कर कांग्रेस को परीक्षा में डाला। इस परीक्षा में कांग्रेस के नए-पुराने दोनों तरह के मैनेजर साफ तौर पर फेल दिख रहे है। सो राहुल गांधी यदि विपक्ष की कसौटी के नसीब में भारत के लोगों की नियति है तो कांग्रेस भी वह नियति लिए है जिसमें विकल्प दीवार पर सिर पीटना और रोना है। कोई कुछ नहीं कर सकता।
(साई फीचर्स)

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