किसान या अरबपति, रास्ता आत्महत्या!

 

 

(हरीशंकर व्यास)

भारत में जीना गरीब का हो या अमीर का, किसान का हो या अरबपति सेठ का, सभी एक सी दशा में जीते हैं। कॉलम को लिखने से पहले मैंने गूगल में सर्च मारी तो खबरे थीं- मध्यप्रदेश में हर तीन दिन में एक किसान आत्महत्या करता है। नासिक में दो किसानों ने आत्महत्या की। दिल्ली में बिजनेसमेन ने होटल में कमरा बुक कर आत्महत्या की। केरल में एक एनआरआई उद्यमी ने आत्महत्या की। हैदराबाद में एक टैकी उद्यमी ने आत्महत्या की। तमिलनाडु में बिजनेसमेन और उसके तीन परिवारजनो ने आत्महत्या की। जमीन के दलाल ने आत्महत्या की। ये मई – जून – जुलाई की खबरें है। किसानों की आत्महत्या की खबरे आम तौर पर खूब छपती है लेकिन कारोबारी-उद्यमियों की आत्महत्याएं इसलिए अनदेखी, आई-गई होती है क्योंकि भारत के सिस्टम ने धंधा करने वाले उद्यमियों, कारोबारियों, व्यापारियों को आम तौर पर चोर, शोषक, धनपशु माना हुआ है।

यही वजह है कि भारत 70 साल पहले भी भूखा-गरीब था और आज भी भूखा-गरीब है और सत्तर साल बाद भी रहेगा। मैं फिर इतिहास में जा रहा हूं लेकिन जरूरी इसलिए है क्योंकि हम हिंदुओं को गुलामी-भक्ति-मूर्खता-लूट का वह श्राप लगा हुआ है जिसकी जड़े जब तक जड़ से नहीं उखड़ेगी तब तक बदलना सभंव ही नहीं। इसके लिए इतिहास में ही जाना होगा।

आज किसान मरता है फसल न बिकने, सही दाम न मिलने और कर्ज की मार से। वही स्थिति कारोबारियों की है। उसका माल नहीं बिक रहा है, उसे वाजिब दाम नहीं मिल रहा और जैसे फसल बुवाई के लिए किसान कर्ज लेता है तो उद्यमी भी धंधा शुरू करने की पूंजी के लिए कर्ज लेता है। किसान-कारोबारी दोनों पूंजी के लिए कर्ज पर निर्भर है। और यह निर्भरता हर तरह से खून चूसती है। किसान और कारोबारी दोनों पर कर्ज चढ़ता जाता है। दोनों बरबाद होते है। इनका जीना अंततः सबसिड़ी, सरकारी खरीद-ठेके, कर्ज माफी, एनपीए आदि से ही है।

भारत का यर्थाथ तब और अब दोनों वक्त में राजा या आज की सरकार की लगान से कमाई, व्यापारी बनियो से रेवेन्यू चूसने का था और है। भारत माता का खून किसान और व्यापारी-उद्यमियों की मेहनत की बदौलत है लेकिन उस खून को कंट्रोल करने वाला दिल नादिरशाह की फौज, औरंगजेब के कारिंदे या पंडित नेहरू और नरेंद्र मोदी के अफसर एक सी तासीर वाले थे और रहेंगे!

कह सकते है ऐसा दूसरे देशों में भी होता होगा। नहीं होता है और यही भारत बनाम ब्रिटेन, अमेरिका, योरोपीय देशों, जापान आदि का फर्क है। वहा देश का दिल व्यक्ति की आजादी है। किसान हो या सिलिकोन वैली का उद्यमी उसका अपने आप कंट्रोल है। वह स्वतंत्रता के साथ जो खेती करेगा, बिजनेस करेगा उसी से देश के दिल को बनाने-बढ़ाने-घटाने- धड़काने का वह अंग है जिससे किसान हो या उद्यमी, गरीब हो या अमीर सभी की खुशहाली अपने आप बनती है। ठीक विपरीत भारत में क्या होता है? तो मोदी सरकार के इस अनुभव पर गौर करें। बड़ा नारा लगा स्टार्टअप इंडिया। नौजवानों को आव्हान किया गया लेकिन इधर आव्हान और उधर इनकम टैक्स के कारिंदो, हाकिमों का दिमाग लगा कि जो धंधा करेगा उसमें जहां से जिस बहाने पैसा आएगा तो वह गोलमाल भी हो होगा तो ठोको सालो पर टेक्स। मतलब नौजवान लड़के ने अपने आईडिया पर कंपनी बना कर अपना दस रू का शेयर सौ रू की वेल्यू से बेच पूंजी जुटाई तो वह पहले दिन से उसका मुनाफा। सो भेजो नोटिस कि बताए किसकों शेयर बेचा, इतना पैसा कैसे ले लिया और यह तुम्हारी टैक्स की देनदारी हुई!

यह एक बेसिक उदाहरण है जो नेहरू के समाजवादी (उन दिनों कंपनी में शेयर बनाने-रखने-बढ़ाने की अनुमति का भी भारत सरकार में विभाग हुआ करता था!) वक्त से ले कर मोदी के हिंदू राष्ट्र के वक्त में ढर्रा जस का तस है। स्टार्टअप के साथ पिछले तीन सालों में इनकम टैक्स विभाग ने जो आंतक मचाया है तो पीछे सोच है कि धंधा तो चोरी है। कोई उद्यमी फटाफट इधर-उधर से पूंजी जुटा ले तो यह बिना धांधली के कैसे संभव है। इसलिए तंग करो, उत्पीड़न करों, डराओं-धमकाओं और पैसा वसूलों। इस हकीकत को तमाम जानकारों- मैंने भी पहले कई बार लिखा लेकिन प्रधानमंत्री और उनके दफ्तर ने नहीं सुना-समझा। अब इस बजट में अक्ल आई लेकिन उससे भी फर्क नहीं पड़ना है। अमेरिका के सिलिकॉन वैली के स्टार्टअप वाली आजादी भारत में संभव ही नहीं है।

सो किसान हो या उद्यमी, उसकी बुवाई के बीज जुटाने से लेकर कारोबारी के उद्यम वास्ते पूंजी जुटाने का पहला कदम ही साहूकारों, लगान-टैक्स-रिश्वत वसूलने वाले कारिंदों की लूटने वाली नजर से शुरू होता है। डेढ सौ साल पहले मुंशी प्रेमचंद की कहानियों में किसान-गरीब से वसूली का चित्रण था तो आजाद भारत की कहानियां कल-कारखानों के बनने-लूटने, क्रोनी पूंजीवाद, अंबानियों-अदानियों, अऱबों-खरबों लाख रू के पूंजी लूटने के किस्सों से भरी हुई है।

प्रेमचंद के वक्त और आज के वक्त का फर्क सिर्फ पैमाने का, वसूली-लूट के आकार के हिमालयी बन जाने का है।

तो जरा कल्पना करें कि आजादी के बाद पंडित नेहरू के सरकारी कारखानों, राष्ट्रीयकरण में कितने अरब-खरब रू की पूंजी जुटी और लगी और फिर कुल रिटर्न क्या रहा? या बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद कितने लाख अरब रू की जनता की बचत बतौर पूंजी उद्योगों को गई और उसका कितना प्रतिशत बट्टेखाते या बरबाद हुआ? या यह कि किसानों को अब तक कितने लाख करोड रू की सब्सिडी-कर्ज माफ हुए फिर भी वे जस के तस गरीब क्यों है? इसलिए कि भारत के हर काम, हर उद्यम को साहूकारी, लगान व रिश्वत वसूली की दीमक में या तो मरना है या खुद दीमक बन कर क्रोनी पूंजीवाद के जरिए देश को खाना है! तभी नादिऱशाह की लूट अपने इतिहास की सबसे बडी लूट नहीं है बल्कि आजाद भारत की लूट सनातनी भारत की सर्वाधिक बड़ी और भयावह है जिसे हम समझ इसलिए नहीं सकते क्योंकि बेचारे मेमने समझने की भी एक सीमा लिए हुए होते है!

(साई फीचर्स)

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