अठारहवीं शताब्दी में इटली के प्रसिद्ध संत अलफांसस लिग्योरी संत बनने से पहले वकील का काम करते थे। उनकी इस पेशे में बहुत प्रसिद्धि थी और लोग उन्हें बहुत आदर देते थे। असत्य कथन एवं झूठ उन्हें मंजूर नहीं था।
एक बार की बात है। वह न्यायालय में बहस कर रहे थे। उनकी बहस की शैली से प्रभावित होकर न्यायालय अपना निर्णय उनके पक्ष में देना चाहता था। विरोधी पक्ष के वकील ने केवल इतना ही कहा कि अलफांसस महोदय को अपनी बहस पर एक बार फिर विचार कर लेना चाहिए। अलफांसस को अचानक स्मरण हो आया कि एक ऐसी नकारात्मक बात की उन्होंने उपेक्षा कर दी है जिससे विरोधी पक्ष का लाभ हो सकता था, पर न्यायालय ने उन्हें विश्वास दिलाया कि यह ऐसी बात नहीं है जिससे निर्णय में कोई अंतर आए।
उपस्थित लोगों ने भी उनकी बहस की प्रशंसा की। पर उन्हें अपनी भूल खटकती रही। असत्य की दुनिया से उन्हें ग्लानि हो गई। वह इस तरह से झूठ एवं असत्य की बुनियाद पर अपना जीवन निर्वाह करना नहीं चाहते थे। वह न्यायालय के सामने सादर विनत हो गए। झूठ की दुनिया! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूं। मैं समझ गया और तुमसे भर पाया।
मन ही मन ऐसा कहते हुए अलफांसस न्यायालय के बाहर हो गए। उन्होंने वकालत छोड़ दी, अभी नौजवान थे पर उन्होंने जीविका के मिथ्या साधन को तिलांजलि देकर आत्मा की खोज आरंभ की परमात्मा के प्रेम-राज्य में प्रवेश करने के लिए। उनका यह अद्भुत त्याग एक मिसाल बन गया। वह नहीं चाहते थे कि असत्य एवं झूठ के बल पर जीवन जिया जाए। उनकी आत्मा इसके लिए तैयार नहीं हो सकी। मिथ्या को त्यागने की उनकी हिम्मत ने आगे की राह तैयार की। वह सत्य की खोज में निकल पड़े और एक महान संत के रूप में उनकी पहचान हुई।
(साई फीचर्स)

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