(प्रकाश भटनागर)
‘या देवी सर्वभूतेषू, शक्ति रूपेण संस्थिता….‘.तो अच्छा हुआ कि शक्ति की आराधना के नौ दिन बीत जाने के बाद यह घृणित कृत्य सामने आया। ताकि सनद रहे..इसलिए इस मटके की पूरी हिफाजत होना चाहिए। यह इस समाज का काला और डरावना सच है। यह उसी मटके की बात है जिसके भीतर उत्तरप्रदेश के बरेली में एक जिंदा नवजात पायी गयी है। पैदा होते ही उसे जीवित दफना दिया गया था। ऐसा किसने किया, पता नहीं। लेकिन यह कल्पना की जा सकती है कि ऐसा करने की वजह इस नवजात का लिंग रही होगी। उसका लड़की होना एक ऐसा अपराध माना गया होगा, जिसकी केवल यही सजा तय पायी गयी कि उसे जिंदा जमीन के भीतर गाड़ दिया जाए। शत-शत नमन उस जन प्रतिनिधि को जिसने इस बच्ची को गोद लेने का फैसला किया है। लाख-लाख लानत उनको, जिन्होंने उसे मरने की कगार पर पहुंचा दिया था
कब दफनाई गई होगी यह मासूम? तब जबकि देश की फिजाओं से ‘जय माता दी‘ का उद्घोष करती नवरात्रि चंद रोज पहले ही खत्म हुई थी। चलिये एकबारगी यह भी मान लिया कि इस बच्ची के गुनहगारों का संभवत: धार्मिक मान्यताओं से लेना-देना नहीं होगा, लेकिन वे उस देश में तो रहते ही हैं ना, जहां ‘बेटी बचाओ अभियान‘ और ‘बेटी है तो कल है‘ जैसे नारे एक मुद्दत से लगाये जा रहे हैं। तो क्या ये मान लें कि देवी के जयकारे या कन्या की हिफाजत वाली नारेबाजी भी मासूम बच्चियों के मामले में बेसबब साबित हुई है? मामला संजीदा है, लेकिन एक कटाक्ष भरा मीम इस मौके पर याद दिलाना गलत नहीं होगा।
किसी ने सोशल मीडिया पर लिखा है, श्वह बुजुर्ग औरत, जो नवरात्रि के नौ दिनों में रोजाना मां को अपने घर बुलाती थी, वही बारहवें दिन अपने परिवार में बेटी पैदा होने पर मुंह फुलाये बैठी है।‘ यह हमारे समाज के उस तबके का घिनौना सच है, जिसे देवी तो चाहिए, लेकिन बेटी नहीं। चौंकाने वाली बात यह कि स्त्री से संबंधित अनेक समस्यामूलक बातों का निराकरण करने के बावजूद हालात ज्यों के त्यों बने हुए हैं। किशोरावस्था में था, तब दहेज के लिए हत्याओं की लगभग रोज सामने आती खबरें दहलाती थीं। तब कई मां-बापों को इस बात के लिए चिंतित होते देखता था कि यदि उन्हें बेटी पैदा हो गयी तो कैसे उसके दहेज का बंदोबस्त करेंगे। फिर दहेज के खिलाफ सख्त कानूनी प्रावधान लागू हो गये।
मामला आगे बढ़ा और कार्यस्थल पर यौन प्रताड़ना के विरूद्ध किये गये प्रावधानों सहित ‘मी टू‘ अभियान ने भी स्त्री के हक में ताकत दिखायी। पॉजिटिव स्टोरी का हिमायती मीडिया आये दिन खबरों के जरिये बताता है कि हर तबके की बच्चियां कैसी शान से परिवार का नाम रोशन कर रही हैं। हरियाणा की फोगट सिस्टर्स इसकी ताजा मिसाल हैं। क्योंकि यह उस राज्य का मामला है, जहां कन्या भू्रण हत्या के चलते लैंगिक असमानता भयावह हालात अख्तियार कर चुकी है। जागरूकता के प्रचार प्रसार का असर यह कि खाप पंचायतों तक ने बच्चियों के हक में आवाज उठायी है। तो जब इतना सब हो रहा है, तब यह कैसे हो गया कि किसी बच्ची को जिंदा जमीन में दफन कर दिया गया! स्पष्टत: जमीनी स्तर पर हुए कामों में अब भी कुछ न कुछ कमी बाकी है।
और यह कमी इस समाज की मानसिकता में गहरे पैठी हुई है। इस कमी को जितनी जल्दी हो सके, दूर किया जाना चाहिए। हां, वह मटका जरूर संभालकर रखा जाए। उसके पोस्टर बनवाए जाएं। उनका वितरण नवरात्रि पर हरेक घर में हो। उन्हें उन सम्मेलन और भाषण वाली जगहों पर चस्पा किया जाए, जहां बच्चियों की हिफाजत या समाज के विकास में उनके योगदान पर बातें की जाती हैं। ये पोस्टर हर उस धार्मिक आयोजन के दौरान फहराया जाए। इसे सोशल मीडिया पर हर उस शख्स का स्टेटस बनाया जाना चाहिए, जो नारीवाद का परचम फहराता हुआ चलता है। ताकि हर कोई यह समझ सके कि जब तक ऐसा एक भी मटका अस्तित्व में है, तब तक बच्चियों का अस्तित्व खतरे से बाहर नहीं कहा जा सकता। ताज्जुब है जिस देश में आदिकाल से ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता:। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते, सर्वास्तत्राफला: क्रिया:‘ (जहां पर स्त्रियों की पूजा होती है, वहां देवता रमते हैं। जहां उनकी पूजा नहीं होती, वहां सब काम निष्फल होते हैं) का राग अलापा जाता है, वहां मानसिकता में लेंगिक असमानता कितनी गहरी पैठी हुई है।

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