(अखिलेश दुबे)
अगर आपकी नज़रों के सामने दीपक रौशनी बिखेर रहा हो और आपको उसके प्रकाश का अहसास न हो तो इस तरह दीये का टिमटिमाना या रौशनी देना किस काम का! आज देश-प्रदेश सहित सिवनी में भी सस्ती चाईनीज़ सामग्रियां अटी पड़ी हैं फिर भी, सनातन पंथी अपनी परंपराओं के अनुरूप तेल के दीये जला रहे हैं। यद्यपि तेल के दीये से रौशनी पर्याप्त नहीं होती है फिर भी लोग अपनी परंपराओं का बखूबी निर्वहन करते आ रहे हैं।
आज नवीन और प्राचीन के बीच समाज संघर्ष करता दिख रहा है। प्राचीन परंपराएं, संस्कार, खेलकूद, गीत संगीत, भावनाएं आदि बीते जमाने की बातें हो चली हैं। इस भंवर में फंसी आज की युवा पीढ़ी, झंझावात से निकलने का जितना भी प्रयास कर रही है वह, उसके अंदर उतनी ही उलझती जा रही है। देखा जाये तो आज बाहर रौशनी के चाईनीज़ सस्ते बल्बों के द्वारा फैलने वाली रौशनी और चकाचौंध के चलते लोगों के द्वारा अपने अंदर के ज्ञान के दीपक को प्रज्ज्वलित करना ही बिसारा जा रहा है। आज के युग में हर कोई अपने जीवन में वैभव, पद, प्रतिष्ठा, शक्ति को चाईनीज़ बल्ब की भांति चमकाने को आतुर दिख रहा है।
याद पड़ता है कि जब केवल प्राकृतिक मिट्टी से बना तेल का दीपक रौशनी करता था तब, लोगों की लालसाएं और आकांक्षाएं इतनी अधिक नहीं थीं। रौशनी के लिये जैसे-जैसे कृत्रिम सामान बनते गये, वैसे-वैसे वह उसकी आकांक्षाएं और लालसाएं बढ़ाती गयीं। मनुष्य को आज बस अपना वर्चस्व चाहिये, भले ही उसे इसकी चाहे जो कीमत चुकानी पड़ जाये। मनुष्य का स्वभाव भी अजीब है.. पद, पैसा और प्रतिष्ठा में ही अपने जीवन की रौशनी ढूंढने वाला आदमी उनको पाकर भी संतुष्ट नहीं रह पाता। उसके मन में अंधेरा ही रहता है क्योंकि वह ज्ञान के दीपक नहीं जलाता।
चंचल मानव मन कभी स्थिर नहीं रह पाता है। पहले यह चाहिये, वह मिल गया तो फिर वह चाहिये.. उसकी चाहत कभी समाप्त नहीं होती। हाँ, एक बात और है कि उसे बस चाहिये ही है, वह किसी को कुछ देना नहीं चाहता है। आज के मनुष्य की बस एक ही सोच है कि लोग उसे खुश कर दें, उस पर पूरा विश्वास करें, उसे ही सर्वश्रेष्ठ मानें पर वह किसी को खुश नहीं करना चाहता, किसी पर विश्वास नहीं करना चाहता, किसी को अपने समकक्ष नहीं समझना चाहता।
पश्चिम की मायावी संस्कृति में देश की सत्य संस्कृति मिलाकर जीवन बिताने वाले इस देश के लोगों के लिये दीपावली अब केवल रौशनी करने और मिठाई खाने तक ही सीमित रह गयी है। अंधेरे में डूबा आदमी रौशनी कर रहा है। यह आँखों से तो दिखती है पर उसका अहसास नहीं कर पाता है मनुष्य। पर्यावरण प्रदूषण, मिलावटी सामान और चिंताओं से जर्जर होते जा रहे शरीर वाला आदमी अपनी आँखों से रौशनी लेकर अंदर कहाँ ले जा पाता है।
एक और सत्य बात यह है कि मनुष्य, अपने मन के भटकाव को नहीं समझ पाता है। वह उस आध्यात्मिक ज्ञान से घबराता है जिसकी वजह से पश्चिम आज भी भारत को आध्यात्मिक गुरु मानता है। इतनी संपन्नता के बाद भी वह अपने मन से नहीं भागता तो, इस देश में व्यवसायी साधु, संतों, फकीरों और सिद्धों के दरवाजे पर भीड़ नहीं लगती। स्वयं ज्ञान से रहित लोग उनके गुरू बनकर उनका दोहन नहीं करते। अपने पुराने ग्रंथों में लिखी हर बात को पोंगापंथी कहने वाले लोग नहीं जानते कि इस प्रकृति के अपने नियम हैं, वह यहाँ हर जीव को पालती है।
विज्ञान में प्रगति आवश्यक है, यह बात तो हमारा आध्यात्म मानता है पर, जीवन ज्ञान के बिना मनुष्य प्रसन्न नहीं रह सकता, यह बात भी कही गयी है। जीवन का ज्ञान न तो बड़ा है न गौड़, जैसा कि इस देश के कथित महापुरुष और विद्वान कहते हैं। वह सरल और संक्षिप्त है पर, बात है.. उसे धारण करने की। अगर उनको धारण कर लें तो ज्ञान का ऐसा अक्षुण्य और दिव्य दीपक प्रकाशित हो उठेगा जिसका प्रकाश न केवल इस देह के धारण करते हुए बल्कि उससे बिदा होती आत्मा के साथ भी जायेगा। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि इस दिव्य दीपक की रौशनी से प्रतिदिन दीपावली की अनुभूति होगी फिर देख सकते हैं कि किस तरह वर्ष में केवल एक दिन लोग दीपावली मनाते हुए भी उसकी अनुभूति नहीं कर पाते।
हमें सन्यासियों से प्रेरणा अवश्य ही लेना चाहिये। इस धरा पर सन्यास लेना संभव है ही नहीं। हाँ, भगवान श्रीकृष्ण ने श्री गीता में इसको एक तरह से खारिज कर दिया है क्योंकि यह संभव नहीं है कि इस धरती पर रहते हुए आदमी अपनी इंद्रियों से काम न ले। सन्यास का अर्थ है कि आदमी अपनी सभी इंद्रियों को शिथिल कर केवल भगवान के नाम का स्मरण कर, जीवन गुजार दे। मगर वर्तमान में सन्यासी कहते हैं कि आजकल यह संभव नहीं हैं कि केवल भगवान का स्मरण करने के लिये पूरा जीवन कंदराओं में गुजार दें क्योंकि समाज को मार्ग दिखाने का भी तो उनका जिम्मा है।
निष्काम भक्ति और निष्प्रयोजन दया ही वह शक्ति है जो आदमी के अंदर प्रज्ज्वलित ज्ञान के दिव्य दीपक की रौशनी के रूप में बाहर फैलती दिखायी देती है। आज का कड़वा सत्य यह है कि ज्ञान खरीदा नहीं जा सकता पर गुरु उसे बेच रहे हैं। अपने अंतर्मन में ज्ञान और ध्यान के जलते दीपक की रौशनी में देख सकते हैं और खुलकर हंस भी सकते हैं और सुख की अनुभूति ऐसी होगी जो अंदर तक स्फूर्ति प्रदान करेगी। दीपोत्सव की शुभकामनाओं सहित . . .।

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