झाबुआ और भाजपा के हालात

 

 

 

 

(प्रकाश भटनागर)

झाबुआ में कांतिलाल भूरिया का जीतना बड़ा आश्चर्य नहीं है। कभी झाबुआ कांग्रेस का अभेद किला रहा है। साल 2003 के बाद से इस सीट पर हुए चार विधानसभा चुनावों में से तीन बार भाजपा जीत चुकी है। इसलिए आश्चर्य इस बात पर है कि कांतिलाल भूरिया की इस उपचुनाव में हुई जीत झाबुआ में अब तक हुए चुनावों में सबसे बड़े अंतर की है। 2003 के पहले ऐसा हुआ होता तो आश्चर्य नहीं था। भाजपा ने जब न केवल इस गढ़ को भेद दिया बल्कि अपने पांव भी मजबूती से जमा लिए, तब कांतिलाल भूरिया को मिली जीत इतने भारी अंतर की कैसे हो गई? जैसा कैलाश विजयवर्गीय कह रहे हैं कि दिग्विजय सिंह का भावनात्मक दावं चल गया या फिर भाजपा ने इस उपचुनाव को एक तरह से सरेंडर करके ही लड़ा था। दिग्विजय सिंह ने कांतिलाल भूरिया के लिए भावुक अपील की थी कि यह उनका अब आखिरी चुनाव है, इसलिए कांतिलाल को जीताया जाना चाहिए। अब झाबुआ में दिग्विजय सिंह की इतनी जबरदस्त अपील है तो कायदे से मध्यप्रदेश में कांग्रेस को अगर मजबूत होना है तो उनके ही हवाले कर दिया जाना चाहिए। मुझे लगता है कि दिग्विजय सिंह की अपील से ज्यादा बड़ा कारण शायद भाजपा का सरेन्डर रहा। कांग्रेस के लिए तो यह चुनाव जीतना जीने मरने का सवाल था। इसलिए अगर उसने साम,दाम,दंड, भेद सबका इस्तेमाल किया तो कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन क्या कोई इस बात पर यकीन करेगा कि अगर शिवराज सिंह चौहान वहां तीन चार दिन के लिए प्रचार करने नहीं गए होते तो शायद भाजपा को इतने वोट भी नहीं मिलते

भाजपा का स्थानीय स्तर का कार्यकर्ता सिरे से गायब रहा। मतदान वाले दिन भाजपा मैदान से गायब सी थी, बावजूद इसके अगर उसका वोट शेयर बड़ा है तो मानना चाहिए कि शिवराज की अपील अभी भी असर कर रही है। बाकी जिनके हाथ में नेतृत्व है वे इस समय क्या कर रहे हैं, पता नहीं। वे जो कर रहे हैं, उस पर भाजपा के तीन बड़े लोगों की प्रतिक्रियाएं गौर करने लायक है। एक वरिष्ठ विधायक कैदार शुक्ला को तो आनन-फानन कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया गया है। दूसरे, दो पूर्व राज्यसभा सदस्य मेघराज जैन और रघुनंदन शर्मा भी सवाल उठा रहे हैं। रघुनंदन शर्मा पार्टी में संवादहीनता को देख रहे हैं तो मेघराज जैन ने संगठन चुनाव में उम्र के तय मापदंड़ों पर सार्वजनिक तौर पर सवाल खड़े किए हैं। अब इन तीनों में से किसी की भी पार्टी निष्ठा पर कोई सवाल नहीं उठा सकता है। लगता है इस बड़ी पराजय की बुनियाद खुद कमल वालों ने रखी? क्या इसका सूत्रपात उसी दिन हो गया था, जब इस सीट से गए विधानसभा चुनाव जीतने वाले गुमान सिंह डामोर को विशुद्ध बेतुके कारणों से रतलाम सीट से लोकसभा चुनाव लड़वा दिया गया? आम चुनाव के समय तक पल-पल यह धारणा बलवती होती जा रही थी कि कमजोर बहुमत वाली कांग्रेस की सरकार को कभी भी अल्पमत का सामना करना पड़ सकता है। तब आखिर ऐसी क्या वजह थी कि डामोर के रूप में एक विधायक को कम कर दिया गया? वह भी ऐसे इलाके में जो कांग्रेस का परम्परागत गढ़ माना जाता है।

आम चुनाव के समय मोदी लहर का असर शायद स्पष्ट नहीं रहा हो लेकिन नतीजे के बाद तो साफ था कि मध्यप्रदेश में एक सांसद से ज्यादा कीमती एक विधायक है। यदि डामोर लोकसभा छोड़ते तो भी रतलाम में उपचुनाव हुआ ही होता। तब कांग्रेस की जीत से मोदी सरकार को फर्क नहीं पड़ता। मध्यप्रदेश में जहां कांग्रेस की सरकार तलवार की नोक जैसे बहुमत पर टिकी है, वहां भाजपा के लिए एक विधायक की मौजूदगी ज्यादा जरूरी थी। अब यह सब जानबूझकर किया गया या नहीं, यह सोचना थोड़ा मुश्किल है। इस निहायती मूर्खतापूर्ण कदम का असर यह हुआ कि कमलनाथ सरकार की मजबूती में थोड़ा इजाफा हो गया। बैठे-ठाले सरकार गिर जाने का सपना देख रहे भाजपाइयों के मंसूबों पर पानी फिर गया। कुछ नेताओं को छोड़ दें तो न मौजूदा भाजपा विधायक और ना ही कांग्रेस के किसी विधायक की इच्छा जल्दी फिर एक चुनाव में जाने की है। इसलिए अभी कमलनाथ सरकार पर संकट नजर नहीं आता। नतीजे बता रहे हैं कि भाजपा ने इस सीट पर कांग्रेस को वॉकओवर दिया। इसकी एक मिसाल प्रत्याशी चयन से भी मिलती है। कांतिलाल भूरिया जैसे दिग्गज आदिवासी चेहरे के सामने भानु भूरिया का सियासी कद बहुत कम है। बाकी नामों को ताक पर रखकर उन्हें ही टिकट दिया गया। यह उस समय हुआ, जब कमलनाथ तथा शिवराज सिंह चौहान की मौजूदा राजनीतिक कैमिस्ट्री दिग्विजय सिंह-विक्रम वर्मा वाले दौर की याद दिला रही है। भाजपा की चुनावी रणनीति में नीति का नितांत अभाव शुरू से ही दिखा।

नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव का झाबुआ जाकर किसी भी समय प्रदेश की सरकार गिरने का बयान समयानुकूल नहीं था।बीते दस महीने से इस तरह की लगातार गीदड़भभकी के बाद कोई भी इस बात को अब गंभीरता से नहीं ले रहा है। प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह ने वही किया, जो उनसे अपेक्षित था। पूरी तरह फिसड्डी साबित हुए। हैरत यह है कि सियासी रणनीति में नरेंद्र मोदी तथा अमित शाह के साथ लम्बे समय से संगत कर रहे कैलाश विजयवर्गीय की कोशिशें भी झाबुआ में असफल रहीं। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है? जो शख्स हरियाणा में भाजपा की सरकार बनवा दे, पश्चिम बंगाल में पार्टी का जनाधार मरुस्थल में जलधारा जैसे अजूबे की तरह पैदा कर दे, उत्तराखंड की राजनीति में उथल-पुथल मचा दे, वही शख्स अपने गृह राज्य की एक अदना सी विधानसभा सीट पर नाकाम हो जाए। वैसे ऐसी कोई जिम्मेदारी कैलाश विजयवर्गीय को सौंपी भी नहीं गई थी। लेकिन मामला इंदौर संभाग का है और विजयवर्गीय ने झाबुआ में टाइम दिया भी था। हार के बाद शिवराज किसी बुलावे पर दिल्ली निकल लिये। भार्गव खामोश हैं। विजयवर्गीय कह रहे हैं कि कांग्रेस अपनी परम्परागत सीट पर जीती है। राकेश सिंह सत्तारूढ़ दल पर सरकारी मशीनरी के दुरूपयोग वाले आरोप की परम्परा निभा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर रहे हैं। इस सबसे परे विधायक केदारशुक्ला ने इस पराजय के लिए सीधे-सीधे राकेश सिंह पर हल्ला बोल दिया है। प्रदेशाध्यक्ष को ही पराजय का मुख्य दोषी बता दिया है।

जांघ उघाड़कर दिखाना पहले मूर्खता था और अब भाजपाई शब्दकोष में इसका अर्थ अनुशासनहीनता लिख दिया गया है। इसलिए दन्न से शुक्ला को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया गया है। जबकि कारण तो राकेश सिंह सहित राज्य इकाई के तमाम दिग्गजों से पूछा जाना चाहिए था कि आखिर प्रतिष्ठा की इस लड़ाई में वे हारे क्यों? ऐसा नहीं किया गया क्योंकि पराजय की वजह तो सबको पता है ही। झाबुआ की जीत के बाद कांग्रेस आत्मविश्वास के लिहाज से मजबूत हुई है। कमलनाथ सीटों की संख्या तथा दिग्विजय सिंह रणनीतिक सफलता के दृष्टिकोण से ताकतवर हुए हैं। लेकिन ऐसा कुछ नहीं है कि इस एक जीत से कमलनाथ बहुत मजबूत हो गए हों। दबाव की राजनीति तो चुनाव परिणाम आने के पहले लक्ष्मण सिंह ने शुरू कर ही दी है। यह काम ज्योतिरादित्य सिंधिया भी बिना रूके कर रहे हैं। कांतिलाल के जीतने से मंत्रिमंडल विस्तार की खबरों पर खुद कमलनाथ ने ही विराम लगा दिया है। यहीं उनके लिए ठीक है। उनके मंत्रियों के सबके अपने माई-बाप हैं, इसलिए कमजोर कोई नहीं है। हां, भूरिया के मुख्यधारा में लौटने का असर प्रदेश कांग्रेसाध्यक्ष को लेकर चल रही रस्साकशी को और बढ़ा सकता है। वैसे बड़ी बात नहीं कि कमलनाथ दोनों ही पदों पर लंबा समय बीता दें। कांग्रेस में कुछ भी संभव है। इस समय तो और ज्यादा जब पार्टी आला नेतृत्व ही कमजोर हो चुका है। हां, कमलनाथ अब कम से कम अल्पमत सरकार के मुख्यमंत्री नहीं है। उन्हें जरूरी बहुमत 116 तो अब हासिल है ही। पर वे यह हमेशा याद रखेंगे कि विपक्ष की संख्या भी 108 है। बाकी समर्थन कर रहे विधायकों को भी साधते रहने की मशक्कत उन्हें स्थायी तौर पर करना ही पड़ेगी। इसलिए झाबुआ की इस जीत से कमलनाथ और कांग्रेस के लिए बहुत ज्यादा कुछ नहीं बदला है।

(साई फीचर्स)

SAMACHAR AGENCY OF INDIA समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया

समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया देश की पहली डिजीटल न्यूज एजेंसी है. इसका शुभारंभ 18 दिसंबर 2008 को किया गया था. समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया में देश विदेश, स्थानीय, व्यापार, स्वास्थ्य आदि की खबरों के साथ ही साथ धार्मिक, राशिफल, मौसम के अपडेट, पंचाग आदि का प्रसारण प्राथमिकता के आधार पर किया जाता है. इसके वीडियो सेक्शन में भी खबरों का प्रसारण किया जाता है. यह पहली ऐसी डिजीटल न्यूज एजेंसी है, जिसका सर्वाधिकार असुरक्षित है, अर्थात आप इसमें प्रसारित सामग्री का उपयोग कर सकते हैं. अगर आप समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया को खबरें भेजना चाहते हैं तो व्हाट्सएप नंबर 9425011234 या ईमेल samacharagency@gmail.com पर खबरें भेज सकते हैं. खबरें अगर प्रसारण योग्य होंगी तो उन्हें स्थान अवश्य दिया जाएगा.