भारत में बदलाव

 

असम में विवादास्पद नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (एनआरसी) नीति के चलते माहौल पहले से ही तनावपूर्ण था और अब नागरिकता संशोधन विधेयक (अब कानून) तो एक चमत्कार, एक बहुलतावादी और धर्मनिरपेक्ष भारत का अंत है। यह उस आरएसएस के सपने को ही पूरा करता है, जिसके संस्थापकों में सावरकर जैसे नेता रहे। इतना तो स्पष्ट है कि यह एक बहुलतावादी और धर्मनिरपेक्ष राज्य का अंत होगा। एक बार विधायी प्रक्रिया पूरी होने के बाद यह उन मौलिक सिद्धांतों और लोकाचारों पर हमला करेगा, जिनके आधार पर इसकी स्थापना इसके संस्थापक पिता ने की थी। यह भारत में सांप्रदायिक राजनीति को मंजूरी देगा।

हां, सही है कि चुने हुए नेताओं के पास उन नीतियों को लागू करने का हक होता है, जिन्हें वे अपने ज्ञान के अनुरूप देश और उसके लोगों के लिए फायदेमंद मानते हैं। लेकिन लोकप्रिय जनादेश उस तरह की राजनीति की अनुमति नहीं देता है, जहां बहुमत का शोषण किया जाता हो, जहां किसी राष्ट्र के मूल लोकाचार पर हमला किया जाता हो। एनआरसी को देखकर हम यह कहने के लिए विवश हो जाते हैं कि यह मुसलमानों के प्रति भेदभावपूर्ण है। भारत के नए नागरिकता कानून को हम ज्यादा चिंताजनक इसलिए भी मानते हैं, क्योंकि यह बांग्लादेश से हिंदुओं के पलायन को प्रोत्साहित करता है। भारत की आत्मा बीमार हो रही है। यह अफसोस की बात है। हम इसे अपने अनुभव से कह रहे हैं, क्योंकि बांग्लादेश अपने एक मूल सिद्धांत- धर्मनिरपेक्षता को अपने संविधान हटा चुका है।

हम कहते हैं कि इसमें आशंकाओं के साथ-साथ निराशा की भावना भी शामिल है। भारत न केवल बांग्लादेश, बल्कि दुनिया की नजरों में बहुलतावादी संस्कृति, समावेशी राष्ट्र और उदार समाज के रूप में एक मिसाल रहा है। अब वह राष्ट्र बदल रहा है। जो देश विविधता में एकता की मिसाल रहा है, वहां अब केवल एक धर्म प्रबल हो जाएगा। हम अफसोस के साथ कहते हैं कि यह भारत की आत्मा पर करारा प्रहार होगा। और इस नीति का असर निश्चित रूप से पड़ोसी देशों तक पहुंचेगा, जिससे स्वयं भारत भी अभेद्य नहीं रह पाएगा। (द डेली स्टार, बांग्लादेश से साभार)

(साई फीचर्स)

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