यह बहुत खेद का विषय है कि बांग्लादेश की सीमाओं के भीतर एक लाख से अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली संथाली भाषा लुप्त होने के कगार पर पहुंच गई है। ऐसा लगता है, इस भाषा की उपेक्षा नीतिगत स्तर पर की गई है। गौर करने की बात है, इस भाषा की कोई पाठ्य-पुस्तक उपलब्ध नहीं है। यह कहना अब बहुत कठिन हो गया है कि क्या यह भाषा बांग्लादेश में अगली पीढ़ी तक सफलतापूर्वक पहुंच पाएगी? अपने ही देश में हजारों बच्चों को उनकी मातृभाषा में उचित शिक्षा से वंचित किया जा रहा है। इस भाषा के शिक्षण के लिए न तो शिक्षक हैं और न पाठ्य-पुस्तकें। बेशक, चौतरफा उपेक्षा के कारण ही इस भाषा का लोप हो जाएगा और यह एक दिल तोड़ देने वाली बात होगी। ऐसा इसलिए भी हो रहा है, क्योंकि मातृभाषा बांग्ला से जुड़ा हमारा गौरवशाली इतिहास रहा है। मातृभाषा से अत्यधिक लगाव के कारण भी दूसरी भाषाओं की उपेक्षा की गई है।
फरवरी का महीना बांग्ला को हमारी मातृभाषा बनाए रखने के लिए किए गए बलिदान को याद करने का समय है, इसके साथ ही दूसरी भाषाओं की चिंता करना भी हमारा कर्तव्य है। संथाली की लुप्तप्रायः स्थिति के साथ-साथ अन्य स्वदेशी भाषाओं के साथ जो हुआ है, उसे देखते हुए यह स्पष्ट है कि 1952 में हमने जो प्रतिज्ञा की थी, उस पर हम पूरी तरह खरे नहीं उतरे हैं। आखिरकार, एकता की भावना किसी एक भाषा की सर्वाेच्चता में निहित नहीं है। एकता की भावना के लिए जरूरी है कि हम उत्पीड़न या अत्याचार से मुक्त ऐसा समाज बनाएं, जहां हर नागरिक को अपनी भाषा में बोलने, पढ़ने और सीखने का अधिकार हासिल हो। आखिरकार सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ये भाषाएं सरकारी कागज पर ही नहीं, बल्कि वास्तव में कक्षाओं और पाठ्य-पुस्तकों में भी विकसित हों। संथाली को बचाने का मतलब बांग्लादेश के भीतर संस्कृतियों की समृद्धि को संरक्षित करने के साथ ही विविधता की रक्षा करना भी है। बांग्लादेश की भाषायी विविधता हमारी महान शक्तियों में से एक है और इसे ऐसे ही माना जाना चाहिए। (द ढाका ट्रिब्यून, बांग्लादेश से साभार)
(साई फीचर्स)

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