यह वायरस ‘मौत’ को मार रहा!

(हरी शंकर व्‍यास)

उफ! किसने सोचा था जब पृथ्वी गांव में बदलेगी तो इंसान को महिनों सूतक, पातक में रहना होगा।अंतरिक्ष स्टेशन के लिए उड़े रूसी अंतरिक्षयात्री ने ठिक कहा कि पृथ्वी छोड़ कर अंतऱिक्ष में रहना फिलहाल ज्यादा सुरक्षित है! पर न अंतरिक्ष में बैठा इहलोक का इंसान समझ पा रहा होगा और न पृथ्वी पर हम समझ पा रहे है कि ऐसा कैसा वायरस है जिसने पूरी पृथ्वी में सूतक का ग्रहण लगा डाला। हम लॉकडाउन में नहीं मौत के भय में जी रहे है। सभी घर में असहाय बैठे, बाहर दीवाल पर यह लिख वक्त काट रहे है-मौत इधर न आना! पतानहीं पृथ्वी पर कितने देश बचे है जिन्होने अपने घर-दरवाजे बंद नहीं किए है। पर किसी ने यदि नहीं किए हो तब भी पड़ौसियों ने तो खिड़की-दरवाजे बंद कर नाता तोड़ा हुआ होगा। ऐसा पहले कब वक्त आया जब सारी दुनिया के लोग एक साथ अपने-अपने दरवाजे बंद कर, तख्ती लगाए इस प्रार्थना के साथ है- मौत इधर न आना।

भला क्यों?मौत से क्या ड़रना!मौत तो नियति है। इंसान के आदि मानव याकि अफ्रीका की गुफा से निकले चिंपाजी मतलब होमो सैंपियस या ब्रह्यमाजी की सृष्टि के मानव का जन्म-मौत का चिरंतर सफर ही तो मानव  को अंतरिक्ष भेदने में समर्थ देवता बना गया! तब एक जानवर की छींक का वायरस भला इस देवलोक में यमराज कैसे है? मानव को, देवता को, होमो सैंपियस को वायरस के डर में क्यों यह लिख कर घर बैठना चाहिए- मौत इधर न आना!

अपना मानना है इंसान मौतसे नहीं डरता है। मानव मौतसे नहीं मरा है और मौत को हरा कर ही अंतरिक्ष  में नई पृथ्वी बसाने के मुकाम की और बढ़ रहा है। बावजूद इसके आज इहलोकवासी कोविड-19वायरस से डर कर घर बैठे है तो वजह जानवर का भेजा यह वायरस इंसान को जानवर की तरह मार रहा है!वह मौतकेइंसानी क्रिया-कर्म, व्यवहार को अपने विषाणु से खत्म कर अपनी तरह इंसान को मार दे रहा है।

हां, मानव की मौतमानव चेतना के प्रस्फुटन के साथ अनुभव का संग्रहण, उससे उपजा अर्थ है। मौत के तमाम रूपों पर आप विचारे, युदध से ले कर अकाल मृत्यु के तमाम अनुभवों में प्राण पखेरू उड़ने के सत्य के साथ आगे-पीछे का एक प्रोटोकॉल है, अनुभूति  है, व्यवस्था है, चिकित्सा है, दुर्घटना है, उम्र है, लड़ाई-संर्घष है अंत्येष्टी है, संस्कार है, क्रिया-कर्म है, सूतक है, गरूड पुराण से लेकर तमाम धर्मों के अपने-अपने पाठ है। किसी की मौत हुई तो उसे जाहिर करने के लिए, उसकी आत्मा की शांति के लिए, उस पर गम-रूदाली-याद-श्रद्वांजलि सबका एक प्रोटोकॉल है। मतलब इंसान बनाम जानवर के प्राण पखेरूओं का उड़ना भले एक ही जैविक प्रक्रिया में होता हो लेकिन इंसान का शांत होना जहा मौतके तमाम भाव, विलाप, सूतक लिए होता है तो जानवर का महज मरना होता है।

सचमुच सोचे हम इंसान प्रकृति के बाकि जीव-जंतुओं के मरने में क्या भाव लिए होते है? हमउसे मारते है या मरने देते है जैसे वह जीव, जीव नहीं है। हम उसे मारते है, मार कर उसे ऐसे खाते है जैसे वह बिना प्राण वायु की ककड़ी हो! अब मेरा इस बिंदु पर विचारना जीव रक्षा याकि वीगन, शाकाहार की तरफ बढ़ रहा है जबकि फिलहाल मूल बिंदु यह है कि इस वायरस ने इंसान को अहसास कराया है, उसने मानव को बतलाया है कि वह उसकी मौतको अपने मरने माफिक बना दे रहा है!

तभी लगेगाकोविड़-19 मानों जीवजंतुओं का इंसान से बदला है! बहुत इतराते हो, हम बतलाते है हमारे डीएनए की एक बूंद तुम लोगों को हम जैसे मारने लगेगी! कितनी गजब बात है जोवुहान के मछली बाजार की जीव-जंतु मंडी से चमगादड या उल्लू जैसे किसी जंतु ने अपने डीएनए का एक छींटा इंसान की नाक या मुंह में घुसेड़ा और पूरी पृथ्वी सूतक में है! पृथ्वी के सिरमौर देश अमेरिका, पश्चिमी सभ्यता के सिरमौर गढ़ योरोप में यह वायरस जिस तरह लोगों की जान ले रहा है और आने वाले दिनों-महिनों में गरीब देशों में जो तांडव बनाएगा उससे निश्चिंतता से यह फिर प्रमाणित है कि इंसान याकि होमो सेंपियस बनाम प्रकृति व शेष जीवों की लड़ाई वैसे ही चलती रहेगी जैसे सहस्त्राब्दियों से चली आ रही है। इंसान ने यदि पृथ्वी को गांव बनाया है तो बाकि जीवों ने भी अपनी, अपने डीएनए की उडान को सुपरसोनिक रफ्तार वाला बना डाला है! प्राणवायु की जीवात्मा का रसायन एक-दूसरे का पीछा नहीं छोड़ेगा। अंतरिक्ष में बैठा अंतरिक्षयात्री इंसान भले अपने आपकों पृथ्वी के वायरस से सुरक्षित माने लेकिन उसके साथ भी पृथ्वी के जीव-जंतुओं का रसायन पहुंचा हुआ होगा या अनिवार्यतः पहुंचने की बुनावट लिए हुए होगा। आखिर जानवर हो या इंसान इनकी रचना के बॉयोलोजी, केमेस्ट्री, फिजिक्स के सत्य एक -दूसरे से अलग हो ही नहीं सकते है।

मैं लिखता रहा हूं कि इंसान बनाम प्रकृति का मामला डाल-डाल, पांत-पांत का है और हमें इंसान के उत्तरोत्तर जीतते जाने की क्षमता पर विश्वास इसलिए रखना चाहिए क्योंकि होमो सेंपियस के बुद्धी पट सबसे पहले और  सर्वाधिक खुले हुए है। अंततः कोविड़-19 को भी इंसान के सत्यशोधन की रिसर्च निर्मित वैक्सीन हरा देगी। बावजूद इसके अभी कुछ महिने या साल-दो साल तो इंसान को सूतक में जीना होगा। कुछ साल जिन तकलीफों से पृथ्वी के मानव को वक्त गुजारना है वह इतनी बड़ी कीमत लिए हुए होगा कि बुद्धी, ज्ञान-विज्ञान को न केवल कठोर तपस्या करनी होगी बल्कि बहुत संभव है इंसान अपने जीवन व्यवहार में भावशून्य, निष्ठुर, असामाजिक, अमानवनीय बनने की तरफ बढ़े! इंसान अपने कई अर्थ खो बैठे।

हां, मैं इंसान की संवेदनाओं को, सामाजिकता को, भावनाओं याकि मानवीय मूल्यों, जन्म और मौत के विचार और उनके अर्थ को मारने वाला खतरा कोविड-19 के अनुभव में बूझता हूं। शायद जानवर का वायरस चाहता है कि इंसान भी जानवर बने। इंसान और इंसान के बीच दूरी बने। इंसान के बीच छूत-अछूत, भेदभाव वाला व्यवहार जीवन की स्वभाविकता बन जाए।  पता नहीं चीन के कथित इंसानी हु्क्मरानों ने कोविड़-19 की लाशों के साथ कैसा व्यवहार किया  लेकिन इटली, स्पेन, न्यूयार्क में शवगृह, कब्रिस्तान और अस्पतालों से झलक रहे जीवन व्यवहार पर जरा गौर करें।

और बारीकि से गौर करेगे तो लगेगा कोविड़-19 वायरस चिकित्सा की मानवीय उपलब्धि के घमंड को मार रहा है तो यह भी जतला दे रहा है देखों लोगों, तुम्हारे स्वजन, सगेजन याकि सबकुछ होते हुए भी तुम कैसे हम जीव-जंतुओं की तरह मर रहे हो। सोचे, जिस भी इंसान की श्वास नली में घुस विषाणु ने उसके फेफड़े पर परत बनाई नहीं की वह फिर अकेला अंतिम सांसे गिनने को शापित! शायद गिन भी नहीं पाता होगा। न किसी सगे का हाथ पर हाथ रख सांत्वना दे सकना और न उसका सगे को देख अलविदा कर सकना और न सगा उसका क्रियाकर्म कर पाए। मतलब मौतके अर्थ को बतलाता शौक, अंत्येष्टी व क्रियाकर्म में कुछ भी तो आज इंसान के बस में नहीं। क्योंकि बाकि सब तो, परिवार, समाज, मित्र सब तो घर के बाहर तख्ती लगाए अपनी जान की चिंता में प्रार्थना कर रहे है कि- मौत इधर न आना!

मैंने वाशिंगटन में अपने राजीव गुप्ता से फोन कर अमेरिका में हालात जाने तो वहा का जीवन अनुभव मेरे इस विचार को पुष्ट कर गया कि यदि कोविड-19 से दुनिया का जल्द मुक्त होना संभव नहीं हुआ तो एक घर मे एक परिवार भी क्या साथ-साथ रह सकेगा? अमेरिका में जो बड़ा घर लिए हुए है उनमें यदि बुढ़े माता-पिता है तो उन्हे पूरी तरह अलग-अलग कमरे में सुरक्षित रखा जा रहा है और परिवार के बाकि सदस्य अपने-अपने कमरों में। कीचन में यदि किसी एक ने खाना बनाया तो सबके कमरे के दरवाजे के बाहर प्लेट में खाना ऱख दिया जाएगा और फिर यदि जरूरी हुआ तभी बड़े हाल में पर्याप्त दूरी के साथ बैठ कर खाना खाते हुए बात करेंगे। मतलब वायरस से लड़ना है या बचना है तो सोशल दूरी ही नहीं बल्कि परिवार में भी परस्पर दूरी की हकीकत वायरस का बनवाया वक्त का तकाजा है।

तभी दुनिया के लिए कोविड़-19 को जहां तुरंत खत्म किया जाना जरूरी है तो पुनरावृति न होने देने के लिए जीवन जीने के अपने तरीको को भी बदलवाना होगा। आखिर कुछ भी हो इंसान (फिर भले उन्नत देश का हो या गरीब देश का)को मौतइंसान के तरह कीचाहिए न कि जानवर जैसी। उसे मौतसंवेदना, सामाजिकता, पारिवारिकता, धार्मिकता में, तमाम क्रिया-कर्मो वाले मानव व्यवहार वाली चाहिए। इंसान की चेतन-अवचेतन जीवात्मा कैसे वह मरनालिए हुए हो जिसमें अपनों की, स्वजनों की निगाह, भरोसा, सांत्वना, कंधे और मौत का क्रियाकर्म न हो। यह तो बहुत शर्मनाक, मानव के अब तक के विकास का प्रलय में बह जाना होगा कि इंसानी जीवात्मा वैसे ही मरने लगे जैसे वायरस पैदा करने वाला चमगादड़ मरता है!क्या नहीं?

(साई फीचर्स)

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