सरी सक्ती अपने वक्त के आला दर्जे के सूफी संत थे। उनकी सादगी बड़ी मशहूर थी। वह जल्दी किसी से कुछ लिया नहीं करते थे। यह बड़ा आम था कि जिसका नजराना सरी सक्ती ने कुबूल कर लिया, वह खुद को धनी समझता था। सरी सक्ती का भांजा था जुनैद। एक रोज जुनैद पढ़कर घर लौट रहा था कि रास्ते में उसे अपने पिता रोते मिल गए।
पिता को रोता देख जुनैद ने पूछा, क्यों रो रहे हैं? किसी ने चोट पहुंचाई या तकलीफ दी? पिता बोले, यह दीनार हमने मेहनत से कमाए थे और सोचा था कि सरी सक्ती को नजर करेंगे। मगर उन्होंने न केवल ये लेने से मना कर दिया बल्कि इनकी ओर निगाह उठाकर भी नहीं देखा। बताओ, हमारी मेहनत और ईमानदारी की कमाई भी सरी सक्ती ने स्वीकार नहीं की।
यह बात जुनैद को बड़ी नागवार गुजरी। उन्होंने पिता से वह दीनार लिया और सरी सक्ती के घर चल दिए। दरवाजे पर पहुंचकर आहट दी। उधर से सवाल आया, कौन है? यह बोले- जुनैद। क्या करने आए हो? अपने पिता का नजराना लाया हूं, आप देख लीजिए। मगर सरी सक्ती ने दरवाजा ही नहीं खोला और नजराना वापस ले जाने को कहा। बंद दरवाजे के बाहर खड़े जुनैद बगदादी ने जवाब दिया, यह नजराना मैं उस खुदा के नाम पर देने आया हूं, जिसने आप पर तमाम मेहरबानी की और आपको दरवेश बनाया। उसी खुदा ने मेरे पिता के साथ भी इंसाफ किया और उन्हें दुनियादार बनाया। मेरे पिता ने अपना कर्तव्य पूरा किया। अब आपका जो कर्तव्य बनता है वह कीजिए।
मासूम बच्चे का यह जवाब सुनकर सरी सक्ती ने दरवाजे खोल दिए और नजराना ही नहीं कबूला बल्कि जुनैद को भी गले से लगा लिया। कहा, मुझे मेरा शागिर्द मिल गया। यही जुनैद आगे चलकर मशहूर सूफी संत जुनैद बगदादी के नाम से मशहूर हुए।
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