एआई से बड़ा खतरा सियासत के लिए शायद ही कोई दूसरा हो वर्तमान समय में . . .

लिमटी की लालटेन 644

राजनीति की बुनियाद नैतिकता ही रही है, पर आज के समय में सड़ांध मारते गंदे नाले में तब्दील हो चुकी है सियासत

(लिमटी खरे)

देखा जाए तो सियासत की बुनियाद नैतिकता ही रही है। आदि अनादिकाल के जितने भी दृष्टांत मिलते हैं, पौराणिक कथाएं मिलती हैं, उनमें नैतिकता ही सबसे महत्वपूर्ण हुआ करती थी। प्राचीन काल में युद्ध के दौरान सूर्यास्त के बाद युद्ध विराम हो जाता था और पक्ष विपक्ष के लोग एक दूसरे के घायलों की तामीरदारी में जुट जाया करते थे। सत्तर के दशक तक देश में डकैतों का बोलबाला था, पर डकैतों में भी नैतिकता हुआ करती थी। वे महिलाओं की इज्जत किया करते थे। कालांतर में यह सब गायब हो गया। आज के समय में नैतिकता किस चिड़िया का नाम है यह बात युवा पीढ़ी का न तो बताई जा रही है न ही उन्हें दिए जाने वाले संस्कारों में इसे शामिल किया गया है।

लगभग एक दशक से आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस जिसे हिन्दी में कृत्रिम बुद्धिमत्ता अर्थात एआई ने अपनी आमद दी है। एआई को लेकर लोग जमकर दीवाने हो रहे थे, क्योंकि इसके जरिए वे अपनी कल्पनाओं को साकार होते देख पा रहे थे। कहा जाता है कि किसी भी नई चीज या अविष्कार के सकारात्मक और नाकरात्मक दोनों ही पहलू हुआ करते हैं। वर्तमान समय में एआई के गलत प्रयोग को लेकर वैश्विक मंच पर लोगों की पेशानी पर चिंता की लकीरें दिखाई दे रही हैं। एआई से सबसे ज्यादा प्रभावित सियासी हल्के के लोग हैं।

कुछ दिन ही बीते हैं जब देश के गृहमंत्री अमित शाह का एक वीडियो जमकर वायरल हुआ। इस वीडियो को कथित तौर पर सोशल मीडिया में शेयर करने को लेकर अनेक लोगों पर शक की सुई गई और अनेक लोगों के खिलाफ मामला पंजीबद्ध भी हुआ। जानकारों का मानना है कि दरअसल, ‘डीपफेकप्रौद्योगिकी ही है जिससे यह सब तैयार हो रहा है। डीपफेक तकनीक में डीप लर्निंग और फेक अर्थात झूठ के मिश्रण का समावेश होता है। इसमें आडियो विज्युअल सामग्री तैयार करने अथवा हेरफेर करने के लिए एआई और मशनी लर्निंग का प्रयोग किया जाता है। इन दोनों को मिलाकर एक ठोस किन्तु फेब्रिकेटेड मीडिया का निर्माण करता है।

इस तकनीक के जरिए किसी भी वीडियो में छेड़छाड़ कर किसी अन्य व्यक्ति के चेहरे को इसमें फिट किया जाता है, जबकि जिस व्यक्ति का चेहरा इसमें शामिल किया जाता है वह उस मूल वीडियो का अंग ही नहीं होता है। यह काम एआई की मदद से इतनी सफाई से किया जाता है कि असली और नकली वीडियो में अंतर बताना बहुत ही मुश्किल प्रतीत होता है। शुरूआती दौर में मनोरंजन के लिए इसका उपयोग किया जाता था, पर अब इसके राजनैतिक उपयोग से सियासी बियावान में इसे लेकर चिंता की लकीरें साफ तौर पर दिखाई देने लगी हैं।

राजनीति के बारे में अनेक दार्शनिकों ने अपने अपने विचार व्यक्त किए हैं। सियासत को साफ सुथरा होने की हिमायत भी सदियों से होती आई है, किन्तु इक्कीसवीं सदी में जिस तरह की सियासत चल रही है वह वाकई में शोध का विषय ही मानी जा सकती है। आचार्य विनोबा भावे ने कहा था कि चारों तरफ सुरखा ही सुराख नजर आते हैं। आज राजनीति के लिए जनसेवा के बजाए सत्ता ही प्रमुख और सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य माना जा सकता है। आज सत्ता हासिल करने के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद की सियासत से भी ज्यादा गिरकर काम होता नजर आ रहा है।

14 मार्च 1879 को जन्मे वैज्ञानिक अल्बर्ट आईंस्टीन के सापेक्षता का सिद्धांत का जिकर यहां मौजू लग रहा है। 1945 के अक्टूबर में द्वितीय विश्वयुद्ध के अंतिम समय में दुनिया के चौधरी अमेरिका के द्वारा जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर एटामिक बम अर्थात अणु बम गिराने के बाद उपजी तबाही देखकर अल्बर्ट आईंसस्टीन ने कहा था कि अगर वे जानते कि उनकी खोज से इस तरह का नरसंहार हो सकता है तो वे अपनी इस खोज को ही दुनिया से छिपाकर रखते। कहने का तातपर्य महज इतना सा ही है कि हर जगह नैतिकता ही सियासत का आधार रही है। मान लिया कि राजनीति दांव पेंच का खेल है पर लोकतंत्र की बुनियाद की पहली शर्त ही नैतिकता है। वैसे कहा जाता है कि राजनीति की एक लाईन की परिभाषा है कि जिस नीति से राज हासिल हो वही राजनीति है। इसके बाद भी नैतिकता या यूं कहा जाए कि कम से कम थोड़ी सी नैतिकता को इसमें होना ही चाहिए।

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आजादी के पहले और आजाद भारत में नैतिकता किस कदर हावी थी यह आज उमर दराज हो रही पीढ़ी बेहतर जानती होगी। अस्सी के दशक तक कमोबेश हर घर में गांधी, नेहरू, पटेल, सुभाष चंद्र बोस आदि के फोटो लगे रहते थे, आज उनका स्थान फिल्मी सितारों की अर्धनग्न अश्लीलता फैलाती फोटोज ने ले लिया है। यह कहा जाए कि भारतीय राजनैतिक ककहरा का मूल स्वाधीनता आंदोलन ही रहा है। इसे दुर्भाग्य से कम क्या कहा जाएगा कि आज की सियासत करने वाली पीढ़ी के सामने शुचिता, पेशेवर ईमानदारी, पवित्रता, नैतिकता आदि का कोई मोल नहीं रह गया है।

सोशल मीडिया के इस दौर में सूचना क्रांति का छोंका लगने से अब हालात बद से बदतर होते ही दिख रहे हैं। सोशल मीडिया पर अनेक अश्लील वीडियोज भी एआई के जरिए बनाए जाकर परोसे जा रहे हैं, जिससे अनिभिज्ञ युवतियों को बदनाम भी किया जा रहा है। जैसे जैसे सूचना क्रांति और सोशल मीडिया का आपस में सामंजस्य गहराता जा रहा है वैसे वैसे फेक नैरेटिव, फेक न्यूज, झूठे बयान, फेक वीडियोज भी सोशल मीडिया में जमकर तैरते नजर आ रहे हैं। इनमें अधिकतर मामलों में जरायमपेशा लोग या शरारती तत्वों के द्वारा एआई के गलत प्रयोग से सियासी बियावान को दुर्गंध और सड़ांध मारते कीचड़ से सराबोर करने का कुत्सित प्रयास किया जा रहा है, यह वर्तमान में शैशव काल में ही माना जा सकता है और इसे रोकने के लिए भारत सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय को जल्द ही कठोर कदम उठाने होंगे, क्योंकि इसमें असली और नकली में अंतर कर पाना बहुत ही कठिन कार्य प्रतीत होता है।

याद पड़ता है कि जब संचार क्रांति और सोशल मीडिया का दौर नहीं था, उस काल में चुनावों के दौरान एक चर्चा आम रहती थी कि स्थानीय मुद्राणालयों अर्थात प्रिंटिंग प्रेस में किसी के खिलाफ बोगस बातों से युक्त पर्चे छपवाकर उसमें प्रकाशक के स्थान पर जागरूक मतदाता संघ और मुद्रणालय में किसी भी मुद्रणालय का नाम लिखकर दरियागंज, नई दिल्ली छपवाकर बटवा दिया जाता था। चूंकि दिल्ली के दरियागंज क्षेत्र में प्रिंटिंग प्रेस बहुतायत में हुआ करते थे इसलिए जब तक इसकी शिकायत की तफ्तीश हो पाती तब तक तो चुनाव के परिणाम भी आ जाते और पर्चा बोगस ही पाया जाता था। आज के समय में हो कमोबेश ऐसा ही रहा है बस इसका स्वरूप बदला नजर आता है।

आज एआई और चैट जीपीटी का जमाना है। अगर अमित शाह के फेक वीडियो की ही बात की जाए तो जहां जहां भी इस वीडियो को देखा गया होगा वहां वहां लोगों के मानस पटल पर यह नकारात्मकता के बीज तो बो ही चुका होगा। जब तक अमित शाह हरकत में आएंगे और कार्यवाही होगी तब तक तो बहुत विलंब हो चुका होगा। इसके बाद आप लाख सफाई देते रहें, पर आपकी सफाई को कितने लोग सुनेंगे और कितनों पर इसका प्रभाव पड़ेगा! इसलिए समय रहते ही अगर एआई को दायरे में नहीं बांधा गया तो आने वाले समय में इसका दुष्प्रभाव या नकारात्मक पहलू लोगों का जीना भी मुहाल कर सकता है . . .

(लेखक समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के संपादक हैं.)

(साई फीचर्स)