मंहगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर हैं तलवारें बोथरी, पर एक दूसरे पर अमर्यादित लांछनों पर है पूरा जोर . . .

लिमटी की लालटेन 646

जनता से जुड़े मुद्दे हुए गौड़, राहुल – मोदी के बीच ही सिमटकर रह गई है इस बार के आम चुनावों की धुरी!

(लिमटी खरे)

देश में सियासत अपने स्तर से बहुत नीचे जा चुकी है। राजनीति में मर्यादाओं की लक्ष्मण रेखाएं कभी की लांघी जा चुकी हैं। वर्जनाएं तार तार हो चुकी हैं। राजनीति में यह गिरावट बीसवीं सदी में नब्बे के दशक से ही महसूस की जाने लगी थी। इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में सियासी माहौल में बहुत ज्यादा गंदगी घुल चुकी है। आज सबके लिए जनहित के बजाए स्वहित ही सर्वोपरि दिख रहा है। अधिकारी हों या चुने हुए नुमाईंदे, कहने को सभी जनता के सेवक कहलाते हैं, पर जनता की परवाह किसे रह गई है।

वर्तमान समय में देश में आम चुनाव जारी हैं। इन चुनावों में सत्ताधारी दल के नेता हों या विपक्ष के नेता, सभी ने अपने अपने भाषणों में स्तर को बहुत पीछे छोड़ रखा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों या विपक्ष के राहुल गांधी सभी न केवल गरिमाहीन ओर अमर्यादित व तथ्यहीन भाषण दे रहें हैं वरन आरोप भी गरिमा के अनुसार नहीं लगाते दिख रहे हैं। अंग्रेजी की एक कहावत है – ए मेन नोज बाय द कंपनी ही कीप्सअर्थात एक व्यक्ति अपनी संगत से ही पहचाना जाता है। आप अपने इर्द गिर्द जिस तरह के लोग रखेंगे आपकी मानसिकता वैसी ही होने की संभावनाएं बहुत अधिक हो जाती हैं। आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि इनके लिए जिन भी महानुभावों के द्वारा भाषण लिखा जाता है उसके बाद क्या ये उन लिखे भाषणों को एक बार भी नहीं पढ़ते! या फिर मन से ही इस तरह की अमर्यादित और गरिमाहीन बातें कहते हैं!

बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगर की जाए तो उनके द्वारा दस साल के शासनकाल में जो भी किया है उसका बखान किया जा रहा है। इन दस सालों में देश में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, उद्योग धंधे, लोगों की क्रय शक्ति आदि पर अगर बात की जाए तो प्रधानमंत्री के दावे हवा हवाई ही नजर आते हैं। सरकार के द्वारा क्या किया गया है! क्या रेलवे जिसे यात्रियों की सुविधा के लिए बनाया गया था, वह मुनाफा कमाने का साधन थी! आज सवारी रेलगाड़ियां लगातार ही विलंब से चल रही हैं। शिक्षा की अगर बात करें तो शिक्षा माफिया पूरी तरह हावी है। स्वास्थ्य के मामले में अगर आप देखें तो स्वास्थ्य सुविधाएं खुद ही वेंटीलेटर पर नजर आती हैं। आयुष्मान कार्ड धारकों को निजि अस्पतालों में किस तरह लूटा जा रहा है, यह बात किसी से छिपी नहीं है।

इसके साथ ही सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था पूरी तरह चरमरा चुकी है। भ्रष्टाचार का चारों तरफ बोलबाला है। रोजगार के साधनों का अभाव साफ परिलक्षित हो रहा है। महंगाई अपने शीर्ष पर ही चल रही है। देश का युवा नशे की गिरफ्त में जकड़ा हुआ है। अपराध की अंधी सुरंग में युवा फिसलन भरे रास्ते पर फिसलते जा रहे हैं। इस सबके बाद भी भाजपा के नेता विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कांग्रेस पर हमलावर दिखते हैं। उनका पूरा का पूरा फोकस राहुल गांधी पर ही दिख रहा है। भाजपा के दूसरे नेताओं का कद नरेंद्र मोदी के सामने बहुत ही कम नजर आता है। दूसरे दलों विशेषकर कांग्रेस के नेता आपरेशन लोटसजिस तरह और जिस तादाद में अपनी पार्टी छोड़कर भाजपा की ओर रूख करते हैं, उसका संदेश बहुत अच्छा तो कतई जाता नहीं दिख रहा है।

वहीं, दूसरी ओर विपक्ष विशेषकर कांग्रेस की ओर अगर आप नजर डालते हैं तो कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के होने के बाद भी राहुल गांधी का कद मल्लिकार्जुन खड़गे से कहीं बड़ा ही प्रतीत होता है, जो अपने आप में एक बड़े आश्चर्य से कम नहीं माना जा सकता है। देश पर आधी शताब्दी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस आज महज तीन चार राज्यों में सिमटकर क्यों रह गई है, इस बारे में चिंतन, मनन करने की फुर्सत न तो राहुल गांधी को नजर आ रही है और न ही कांग्रेस के आला नेताओं को। राहुल गांधी के द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर ही आरोप लगाए जा रहे हैं। देश की जनता यह भी पूछती नजर आती है कि जिन बातों, जिन आरोपों को राहुल गांधी के द्वारा जनता के समक्ष रखा जा रहा है उन बातों पर राहुल गांधी सहित कांग्रेस के संसद सदस्य लोकसभा या राज्य सभा में चर्चा करने, अपनी बात वजनदार तरीके से रखने के बजाए बर्हिगमनका आसान रास्ता क्यों अपनाते नजर आते हैं।

राहुल गांधी को इस बारे में विचार जरूर करना चाहिए था कि आखिर वे क्या वजहें रहीं जिनके चलते एक के बाद एक सैकड़ों की तादाद में कांग्रेस के स्थापित स्तंभ माने जाने वाले नेताओं ने कांग्रेस को अलविदा कह दिया। कहीं कुछ न कुछ गलतियां तो रही ही होंगी। वैसे कांग्रेस के अंदरखाने में चल रही चर्चाओं के अनुसार कार्यकर्ता अपना परिवार कैसे पालें, आजीविकोपार्जन के लिए उनके पास साधन क्या है! जब सरकार ही नहीं रहेगी तो कार्यकर्ताओं को प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर मिलने वाले छोटे बड़े काम कौन दिलवाएगा। किसी भी राजनैतिक दल के शीर्ष नेता को यह नहीं भूलना चाहिए कि पार्टी का अस्तित्व नेताओं से नहीं कार्यकर्ताओं से होता है।

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बहरहाल, अड़ानी, अंबानी का नाम लेकर राहुल गांधी के द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लगातार ही घेरा जाता रहा है। अब नरेंद्र मोदी ने अड़ानी अंबानी के नाम पर ही राहुल गांधी और कांग्रेस पर पलटवार करना आरंभ कर दिया है। प्रधानमंत्री ने कहा कि  पहले तो कांग्रेस के शहजादे जिसका आशय संभवतः राहुल गांधी से था, दिन में कई बार अदानी-अंबानी का नाम जपते थे। इस चुनाव प्रचार में उन्होंने इन उद्योगपतियों के नाम लेने क्यों बन्द कर दिया? क्या रातों-रात कोई डील हो गई या उन तक बोरों में नोट पहुंच चुके हैं?’

याद पड़ता है लगभग एक डेढ़ दशक पहले एक विवाह समारोह में अंतर्राज्यीय जांच चौकी पर तैनात एक पुलिस निरीक्षक (चूंकि पुलिस निरीक्षक प्रतिनियुक्ति पर परिवहन विभाग में जाया करते हैं) के द्वारा हास परिहास में अपने साथियों से कहा कि यार अब बोर हो गए, अब परिवहन विभाग से वापस लौटने का मन है। इस पर उनके ही एक साथी ने चुटकी लेते हुए कहा कि बोर हो गए, या बोरों से हो गए। बोरों से कहने का तातपर्य संभवतः अनेक बोरे भरकर नोट से ही रहा होगा। फिर क्या था समूचे माहौल में ठहाके गूंजते नजर आए।

बहरहाल अब प्रधानमंत्री के बोरों से वाले इस बयान से क्या समझा जाए! क्या प्रधानमंत्री जैसे जिम्मेदार पद पर काबिज नरेंद्र मोदी यह इशारा करना चाह रहे हैं कि बोरों से नोट पहुंचने के बाद भ्रष्टाचार को शिष्टाचार में तब्दील कर दिया जाता है! अगर ऐसा है तो यह देश के लोकतंत्र के लिए बहुत ही निराशाजनक माना जा सकता है। इस बार चुनावों में बाकी सारे मामले गौड़ ही नजर आ रहे हैं, चुनाव में मोदी वर्सेस राहुल ही प्रमुख तौर पर हावी दिखाई दे रहा है। जनता से जुड़े मुद्दे गायब हैं, यह भी स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए घातक ही माना जा सकता है . . .

(लेखक समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के संपादक हैं.)

(साई फीचर्स)