जानिए भगवान गणेश का पूजन सर्वप्रथम किस देश के, किस प्रदेश के, किस शहर में हुआ था!

बुद्धि विनायक भगवान गणेश का सबसे पहले पूजन किस स्थान पर और कब हुआ था!
आज हम आपको एक ऐसी बात बताने जा रहे हैं, जिसके बारे में आपने शायद ही कभी सुना हो। वैसे तो प्रथम पूज्य भगवान श्री गणेश के पूजन का विधान हर शुभ कार्य में सबसे पहले है, पर आप शायद यह नहीं जानते होंगे कि प्रथम पूज्य भगवान श्री गणेश का पहली बार पूजन किस देश के किस प्रदेश के किस शहर में हुआ। आज हम आपको बताने जा रहे हैं कि देवाधिदेव महादेव भगवान शिव और माता पार्वती के पुत्र भगवान श्री गणेश का प्रथम बार पूजन कहां हुआ था।
सनातन धर्म की मान्यतानुसार किसी भी कार्य के आरम्भ में सबसे पहले गणेश जी की पूजा की जाती है। हिंदू धर्म में भगवान श्री गणेश जी को विघ्न-विनाशक और सभी सुखों को प्रदान करने वाला देवता माना गया है। मान्यता है कि कि गणपति की साधना करने पर साधक को सुख-समृद्धि और सौभाग्य की प्राप्ति होती है। गणपति की कृपा से साधक के सभी दुख दूर होते हैं और उसे बल, बुद्धि और विद्या का आशीर्वाद प्राप्त होता है। मान्यता है कि किसी भी कार्य से पहले सर्वशक्तिमान भगवान श्री गणेश जी की पूजा करने पर उस कार्य में कोई बाधा नहीं आती है और गणपति की कृपा से वह कार्य समय पर संपूर्ण होता है।
हम सब गणेश पूजन करते है लेकिन बहुत काम लोगों को पता होगा कि सबसे पहले गणपति पूजन कब और कहाँ हुआ होगा।
जानकार विद्वानों के अनुसार पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, प्रयागराज में सृष्टिकर्ता भगवान ब्रम्हा जी ने सृष्टि की रचना का कार्य आरंभ करने से पहले प्रथम बार गणपति पूजन किया। सृष्टि का कार्य पूर्ण होने के बाद प्रथम यज्ञ किया था। इसी प्रथम यज्ञ के प्र और याग अर्थात यज्ञ से मिलकर प्रयाग शब्द का निर्माण हुआ। इस तरह उस स्थान का नाम प्रयाग पड़ा जहां भगवान श्री ब्रम्हा जी ने सृष्टि का सबसे पहला यज्ञ सम्पन्न किया था।
अगर आप बुद्धि के दाता भगवान गणेश की अराधना करते हैं और अगर आप एकदंत भगवान गणेश के भक्त हैं तो कमेंट बाक्स में जय गणेश देवा लिखना न भूलिए।
शास्त्रों के मुताबिक जब प्रजापति ब्रम्हा ने सृष्टि की रचना की तो त्रिदेव ब्रम्हा, विष्णु व महेश ने साथ मिलकर प्रयाग यानी आज के प्रयागराज में गंगा तट पर पर स्थित दशाश्वमेघ घाट पर आदि गणेश के मंदिर की स्थापना की थी। भगवान श्री गणेश का यह देवालय आज भी अपने आदि रूप में प्रयागराज के दशाश्व मेघ घाट पर विद्यमान है। सनातन धर्म की मान्यतानुसार किसी भी कार्य के आरम्भ में सबसे पहले गणेश जी की पूजा की जाती है। विघ्न विनाशक गणपति की आराधना का प्रथम केंद्र होने के चलते इस मंदिर का विशेष महत्व है और यहां साल भर भक्तों का तांता लगा रहता है। प्रयाग में रहने वाले लोग अपने दिन की शुरूआत आदि गणेश के दर्शन से करते हैं। यहां सुबह-शाम गणेश जी का श्रृंगार सोने-चांदी के आभूषण से होता है।
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गणेश जी का मूलस्वरूप ओम माना जाता है। इस रूप में उनकी प्रार्थना और पूजा अनादिकाल से चली आ रही है। किसी भी देवता का उपासक हो, फिर भी वह प्रथम गणेश पूजा के बाद ही अपने उपास्य देव को पूजा करता हैं। सभी धार्मिक कर्मकाण्ड प्रथम गणेश पूजन से ही आरम्भ होते हैं। यहां तक कि चाहे कोई मन्त्र हो-आदि में ओम ओम अवश्य लगा रहता है और अन्त में भी ओम लगा दिया जाता है तो उसकी शक्ति और बढ़ जाती है।
केवल भारत में ही नहीं, ब्रम्हदेश, हिंद चीन, तिब्बत, चीन, मैक्सिको, अफगानिस्तान, रूस, हिंदेशिया आदि देशों में ऐसे प्रमाण आज भी उपलब्ध हैं, जिनसे यह प्रकट होता है कि वहीं भी श्रीगणेश उपासक का प्रभाव था। उन देशों से प्राप्त मूर्तियों के कई चित्र मूर्तिविज्ञान-विषयक ग्रन्थों में मिलते हैं।
आईए अब जानते हैं गणेश उत्सव का इतिहास के बारे में . . .
महाराष्ट्र प्रांत के वर्तमान पुणे शहर में श्रीमन्त सवाई माधवराव के शासनकाल में यह उत्सव पुणे के शनिवार वाडा के गणेश महल में विशाल रूप से होता था। उस समय यह उत्सव छः दिनों तक चलता था। गणेश विसर्जन की शोभायात्रा सरकारी तामझाम, लाव-लश्कर के साथ निकलकर ओंकारेश्वर घाट पहुँचती थी, जहाँ नदी में विग्रह का विसर्जन होता था। इसी तरह पटवर्धन, दीक्षित, मजुमदार आदि सरदारों के यहाँ भी उत्सव होता था। उत्सव में कीर्तन, प्रवचन, रात्रि जागरण और गायन आदि भी होते थे।
जानकारों के अनुसार पुणे में निजी रूप से इस चालू उत्सव को सरदार कृष्णा जी काशीनाथ उर्फ नाना साहेब खाजगी वाले ने सर्वप्रथम सार्वजनिक रूप दिया। सन 1892 में वे मध्य प्रदेश की ग्वालियर रिसासत गए थे, जहां उन्होंने राजकीय ठाट-बाट का सार्वजनिक गणेश उत्सव देखा था, जिससे प्रभावित होकर पूना में भी उन्होंने इसे 1893 में आरम्भ किया। पहले वर्ष खाजगीवाले, घोटवडेकर और भाऊ रंगारी ने अपने यहां सार्वजनिक रूप से गणेश-उत्सव आरम्भ किया। विसर्जन के लिए शोभायात्रा भी निकली। कहा जाता है कि खाजगी वाले के गणेश जी को शोभायात्रा में पहला स्थान मिला।
अगले वर्ष 1894 में इनकी संख्या बहुत बढ़ गई। भगवान गणेश की बिदाई के दौरान कौन से गणेश सबसे पहली कतार में रहेंगे, यह प्रश्न उठा। इसके लिए ब्रम्हचारी बोवाने लोकमान्य और अण्णा साहेब पटवर्धन को निर्णायक बनाया। इन दोनों ने पुणे के ग्रामदेवता श्री कसबा गणपति और जोगेश्वरी के गणपति को क्रमशः पहला, दूसरा और तीसरा स्थान खाजगीवाले को दिया। यह क्रम आज भी चालू है। राष्ट्रीय चेतना के लिए लोकमान्य ने महाराजा शिवाजी की स्मृति में शिवाजी-जयंती का महाराष्ट्र में प्रचलन किया।
जानकारों की मानें तो यह पहला अवसर था जब पहली बार मराठा नरेशों ने भी इसमें भाग लिया था। इससे ब्रिटिश सरकार की भकुटियां तन गईं, क्योंकि इससे लोगों में राष्ट्रीयता का संचार होने लगा था तथा उसमें सरकार को विद्रोह के बीज प्रस्फुटित होते दिखाई दे रहे थे, जिसे वह अंकुरित होने देना नहीं चाहती थी। अतः बाद में सरकारी कोपरो बचने के लिए मराठा नरेश उससे उदासीन हो गए। लोकमान्य को गणेश उत्सव के रूप में स्वर्ण अवसर हाथ लगा। उन्होंने इसे राष्ट्रीय उत्सव के रूप में परिवर्तित कर दिया और ज्ञानसत्र का रूप दे दिया।
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(साई फीचर्स)