महाभारत काल में भी श्राद्ध का मिलता है वर्णन . . .

जानिए सबसे पहले किसने और कब किया था श्राृद्धकर्म!
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पितरों को याद करना, उनका आव्हान करना, उनको तृप्त करना यही मूल उद्देश्य रहा होगा पितृ पक्ष का। हमें पितृ पक्ष में पितरों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना चाहिए। वैसे वेदों के पितृयज्ञ को ही पुराणों में विस्तार मिला और उसे श्राद्ध कहा जाने लगा। पितृपक्ष तो आदिकाल से ही रहता आया है, लेकिन जब से इस पक्ष में पितरों के लिए श्राद्ध करने की परंपरा का प्रारंभ हुआ तब से अब तक इस परंपरा में कोई खास बदलाव नहीं हुआ। यह परंपरा भी आदिकाल अनादिकाल से ही चली आ रही है।
पितृ पक्ष में अगर आप भगवान विष्णु जी की अराधना करते हैं और अगर आप विष्णु जी के भक्त हैं तो कमेंट बाक्स में जय विष्णु देवा लिखना न भूलिए।
हिंदू धर्म में पितृपक्ष यानी श्राद्धपक्ष को काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। मान्यता है कि इस दौरान अगर कोई व्यक्ति सच्चे मन और श्रद्धा के साथ अपने पितरों का श्राद्धकर्म करता है तो उसे पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है। पितरों के प्रसन्न होने पर व्यक्ति का जीवन सुखमय हो जाता है और उसे हर काम में सफलता मिलती है। यही वजह है कि हर साल भाद्रपद मास की पूर्णिमा से लेकर अश्विन मास की अमावस्या तक लोग अपने पूर्वजों को याद करते है, उन्हें प्रसन्न करने के लिए पिंडदान और तर्पण जैसे श्राद्धकर्म करते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि दुनिया में सबसे पहले श्राद्ध किसने किया था और इस परंपरा की शुरुआत कैसे हुई थी।
श्राद्ध की परंपरा आखिर किसने और कब शुरू की इस संबंध में विद्वानों में मतभेद हैं, लेकिन महाभारत के अनुशासन पर्व में एक कथा आती है जिससे श्राद्ध करने की परंपरा का उल्लेख मिलता है। इस पर्व में भीष्म पितामह युधिष्ठिर को श्राद्ध पर्व के बारे में बताते हैं। महाभारत के अनुसार सबसे पहले श्राद्ध का उपदेश महर्षि निमि ने अत्रि मुनि को दिया था। महर्षि निमि संभवतः जैन धर्म के 22वें तीर्थंकर थे। इस प्रकार पहले निमि ने श्राद्ध का आरंभ किया, उसके बाद अन्य महर्षि भी श्राद्ध करने लगे।
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धीरे धीरे चारों वर्णों के लोग श्राद्ध में पितरों को अन्न देने लगे। लगातार श्राद्ध का भोजन करते करते देवता और पितर पूर्ण तृप्त हो गए। श्राद्ध का भोजन लगातार करने से पितरों को अजीर्ण (भोजन न पचना) रोग हो गया और इससे उन्हें कष्ट होने लगा। तब वे ब्रम्हाजी के पास गए और उनसे कहा कि श्राद्ध का अन्न खाते खाते हमें अजीर्ण रोग हो गया है, इससे हमें कष्ट हो रहा है, आप हमारा कल्याण कीजिए। पितरों की बात सुनकर ब्रम्हाजी बोले मेरे निकट ये अग्निदेव बैठे हैं, ये ही आपका कल्याण करेंगे। अग्निदेव बोले पितरों, अब से श्राद्ध में हम लोग साथ ही भोजन किया करेंगे। मेरे साथ रहने से आप लोगों का अजीर्ण रोग दूर हो जाएगा। यह सुनकर देवता व पितर प्रसन्न हुए। इसलिए श्राद्ध में सबसे पहले अग्नि का भाग दिया जाता है।
जानकार विद्वानों के अनुसार महाकाव्य महाभारत में भी श्राद्ध कर्म का उल्लेख मिलता है। महाकाव्य महाभारत के अनुसार, सबसे पहले महातप्सवी अत्रि ने महर्षि निमि को श्राद्ध के बारे में उपदेश दिया था। इसके बाद महर्षि निमि ने श्राद्ध करना शुरू कर दिया। महर्षि निमि को ऐसा करते देखकर अन्य श्रृषि मुनियों ने पितरों को अन्न देने लगे। लगातार श्राद्ध का भोजन करते करते देवता और पितर पूर्ण तृप्त हो गए। पुराणों में भी पितृपक्ष को बहुत अधिक महत्व दिया गया है। कई सारी पौराणिक और लोक कथाओं में भी इसका वर्णन है, लेकिन बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि महाभारत में श्राद्ध क्यों किया गया था। जानकार विद्वानों का मानना है कि पितृ पक्ष में श्राद्ध की शुरुआत महाभारत काल से चली आ रही है। वहीं एक प्रसंग यह भी मिलता है जिसमें श्राद्ध कर्म की जानकारी भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को दी थी।
पितृपक्ष में पितरों के किए जाने वाले श्राद्ध के बारे मान्यता है कि इसकी शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। मान्यता है कि जब मृत्यु के बाद सूर्यपुत्र कर्ण की आत्मा स्वर्ग पहुंची तो उन्हें वहां पर खाने के लिए भोजन की बजाय ढेर सारा स्वर्ण दिया गया, तब उन्होंने इंद्र देवता से इसका कारण पूछा तो उन्होंने कर्ण को बताया कि पृथ्वी पर रहते हुए उन्होंने कभी भी अपने पितरों के निमित्त कभी भी भोजन दान, तर्पण आदि नहीं किया। तब कर्ण ने जवाब दिया कि उन्हें अपने पूवजों के बारे में कुछ भी ज्ञात न था, इसलिए अनजाने में उनसे यह भूल हुई। तब उन्हें अपनी भूल को सुधारने के लिए पृथ्वी पर 16 दिन के लिए भेजा गया। जिसके बाद उन्होंने अपने पितरों के मोक्ष के लिए विधि विधान से श्राद्ध किया। मान्यता है कि तभी से पितृपक्ष के 16 दिनों में श्राद्ध करने की परंपरा चली आ रही है।
वहीं अनेक मान्यताओं के अनुसार, महाभारत काल में श्राद्ध के बारे में पता चला था, जिसमें भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को श्राद्ध से जुड़ी कई बातें बताई थीं। साथ ही यह भी बताया था कि श्राद्ध की परंपरा कैसे शुरू हुई थी और यह जनमानस तक कैसे पहुंची?
जानकार विद्वानों ने बताया कि महाभारत के अनुशासन पर्व के अनुसार, भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को बताया था कि सबसे पहले अत्रि मुनि ने महर्षि निमि को श्राद्ध करने संबंधी उपदेश दिया था। इस उपदेश को सुनने के बाद महर्षि निमि ने श्राद्ध करना प्रारंभ किया, जिसके बाद उन्हें देवता और पितर ऋण से मुक्ति मिल गई। इसके बाद महर्षि निमि ने बाकी ऋषियों को भी श्राद्ध के बारे में बताया और अन्य ऋषि भी पितृ ऋण से मुक्त होने के लिए श्राद्ध करने लगे।
श्राद्ध का उनके द्वारा उपदेश देने के बाद श्राद्ध कर्म का प्रचलन प्रारंभ हुआ और धीरे धीरे यह समाज के हर वर्ण में प्रचलित हो गया। महाभारत के युद्ध के बाद युधिष्ठिर ने कौरव और पांडव पक्ष की ओर से अधिकांश योद्धा मारे गए थे, सभी वीरों का केवल अंतिम संस्कार किया था। जब भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा कहा कि उन्हें कर्ण का भी श्राद्ध करना चाहिए तब युधिष्ठिर ने कहा कि वह तो उनके कुल का नहीं है तो वे भला उसका श्राद्ध कैसे कर सकते थे, उसका श्राद्ध तो उसके कुल के लोगों को ही करना चाहिए। इस उत्तर के बाद पहली बार भगवान श्रीकृष्ण ने यह राज खोला था कि कर्ण पाण्डवों का बड़ा भाई था, यह बात सुनकर पाण्डव मानो जड़वत हो गए थे।
इस तरह से श्राद्ध की ये परंपरा आगे बढ़ती चली गई और पितरों का श्राद्ध करके ब्राम्हणों को भोजन करवाया जाने लगा। शास्त्रों में इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि हवन में जो पितरों के निमित्त पिंडदान किया जाता है, उसे ब्रम्हराक्षस भी दूषित नहीं कर पाते हैं। श्राद्ध में अग्निदेव को देखकर राक्षस भी वहां से चले जाते हैं, क्योंकि अग्नि हर वस्तु को पवित्र कर देती है और पवित्र भोजन और भाव मिलने से देवता और पितर भी प्रसन्न होते हैं।
आईए अब जानते हैं कि आखिर कौन कौन होते हैं पितर,
जानकार विद्वानों के अनुसार हिंदू धर्म में पितर को 84 लाख योनियों में से एक माना गया है। मान्यता है कि अलग अलग लोकों में रहने वाले ये दिव्य आत्माएं संतुष्ट होने पर व्यक्ति पर अपना आशीर्वाद और कृपा बरसाती हैं, जिससे मनुष्य को धन, यश, कीर्ति आदि की प्राप्ति होती है और कुल की वृद्धि होती है। इस तरह से देखें तो पितृपक्ष के दौरान किया जाने वाला श्राद्ध पूर्वजों के प्रति अपनी श्रद्धा और कृतज्ञता को व्यक्त करने का माध्यम है, जिससे प्रसन्न होकर पितर सुख समृद्धि प्रदान करते हैं।
जानकार विद्वान यह भी बताते हैं कि रामायण काल में मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम ने अपने पिता दशरथ का श्राद्ध किया था, जिसका उल्लेख रामायण में मिलता है। इन सारे वृतांतों से यही साबित होता है कि महाभारत काल के पूर्व से ही श्राद्ध करने की परंपरा का प्रचलन रहा है। हालांकि श्राद्ध की परंपरा वैदिक काल से ही जारी है। वेदों में देवों के साथ ही पितरों की स्तुति का उल्लेख भी मिलता है।
पितृ पक्ष में अगर आप भगवान विष्णु जी की अराधना करते हैं और अगर आप विष्णु जी के भक्त हैं तो कमेंट बाक्स में जय विष्णु देवा लिखना न भूलिए।
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(साई फीचर्स)