आल्हा, ऊदल आज भी सुबह सबसे पहले आते हैं मैहर की शारदा भवानी की पूजा के लिए . . .

जानिए मैहर की शारदा भवानी माता के चमत्कार, कथा, उत्पत्ति आदि के बारे में . . .
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मध्य प्रदेश में मैहर की शारदा भवानी माता के दर्शन को हर कोई लालायित रहता है। सौम्य रूप वाली माता शारदा पहाड़ी पर विराजी हुईं हैं। मैहर को जिला बना दिया गया है। अब मैहर जिले में माता विराजी हैं। माता शारदा मैहर के त्रिकुट पर्वत पर विराजी हैं। माता का मंदिर अपने आप में अद्वितीय माना जा सकता है।
अगर आप जगत जननी माता दुर्गा की अराधना करते हैं और अगर आप माता दुर्गा जी के भक्त हैं तो कमेंट बाक्स में जय भवानी, जय दुर्गा अथवा जय काली माता लिखना न भूलिए।
मान्यता है कि सबसे पहले आल्हा ऊदल करते हैं माई की पूजा,
जानकार विद्वान बताते हैं कि मैहर मंदिर को लेकर कई लोककथाएं प्रचलित हैं। इसमें एक है मां शारदा के अनन्य भक्त वीर योद्धा आल्हा और ऊदल की। कहा जाता है कि आल्हा ऊदल को मां ने अमरत्व का वरदान दिया था। मैहर मंदिर में हर रात को आल्हा और ऊदल नाम के दो चिरंजीवी दर्शन करने आते हैं अर्थात माई की सबसे पहले पूजा आल्हा और ऊदल ही करते हैं। अभी भी मां का पहला श्रृंगार आल्हा ही करता हैं और जब ब्रम्ह मुहूर्त में शारदा मंदिर के पट खोले जाते हैं तो पूजा की हुई मिलती है। मंदिर के पुजारी बताते हैं, महोबा निवासी दो वीर योद्धा भाई आल्हा और ऊदल 800 वर्ष पूर्व हुआ करते थे। उन्होंने पृथ्वीराज चौहान के साथ युद्ध किया था और मोहम्मद गौरी को भी चुनौती दी थी।
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दक्षराज और देवल देवी के बड़े पुत्र आल्हा को पौराणिक परंपराओं में युधिष्ठिर का अवतार माना गया है, जिनका जन्म सामंती काल में हुआ था। सबसे पहले जंगलों के बीच मां शारदा देवी के मंदिर की खोज आल्हा ने की थी। आल्हा ने इस मंदिर में 12 वर्षों तक तपस्या कर देवी को प्रसन्न किया था।
गाय चराने वाले ग्वाले को सबसे पहले दिखीं थीं माता शारदा,
वहीं, एक अन्य कथा के अनुसार लगभग 200 वर्ष पहले मैहर में महाराज दुर्जन सिंह जूदेव राज्य करते थे। उन्हीं के राज्य का एक ग्वाला गाय चराने के लिए जंगल में आया करता था। इस घनघोर भयावह जंगल में दिन में भी रात जैसा अंधेरा छाया रहता था। एक दिन उसने देखा कि उन्हीं गायों के साथ एक सुनहरी गाय चल रही है। शाम होते ही वह अचानक लुप्त हो गई। दूसरे दिन जब वह इस पहाड़ी पर गायें लेकर आया तो फिर वही गाय इन गायों के साथ मिलकर घास चर रही थी। तब उसने निश्चय किया कि शाम को जब यह गाय वापस जाएगी, उसके पीछे पीछे जाऊंगा। गाय का पीछा कर रहे ग्वाले ने देखा कि वह ऊपर पहाड़ी की चोटी में स्थित एक गुफा में चली गई और उसके अंदर जाते ही गुफा का द्वार बंद हो गया। ग्वाला बेचारा गाय के इंतजार में गुफा के द्वार पर बैठ गया। उसे पता नहीं कि कितनी देर के बाद गुफा का द्वार खुला और एक बूढ़ी मां के दर्शन हुए। तब ग्वाले ने उस बूढ़ी माता से कहा कि माई मैं आपकी गाय को चराता हूं, इसलिए मुझे पेट के वास्ते कुछ मिल जाए। बूढ़ी माता अंदर गई और लकड़ी के सूप में जौ के दाने उस ग्वाले को दिए ग्वाले ने घर में जब उस जौ के दाने वाली गठरी खोली तो हीरे मोती चमक रहे थे। इसके बाद ग्वाले ने आपबीती महाराजा को सुनाई। राजा ने दूसरे दिन वहां जाने का ऐलान किया। रात में राजा को स्वप्न में ग्वाले द्वारा बताई बूढ़ी माता के दर्शन हुए और आभास हुआ कि आदि शक्ति मां शारदा है।
मैहर में गिरा था सती माता का हार, इसीलिए नाम पड़ा मैहर,
जानकार विद्वान मैहर को लेकर एक और कथा बताते हैं, मैहर की एक कहानी और है। माना जाता है कि दक्ष प्रजापति की पुत्री सती शिव से विवाह करना चाहती थीं। उनकी यह इच्छा राजा दक्ष को मंजूर नहीं थी। फिर भी सती ने अपनी जिद पर भगवान शिव से विवाह कर लिया। एक बार राजा दक्ष ने यज्ञ करवाया। उस यज्ञ में बम्हा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी देवताओं को आमंत्रित किया, लेकिन जमाता भगवान शंकर को नहीं बुलाया। यज्ञ स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकरजी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा। इस पर दक्ष प्रजापति ने भगवान शंकर को अपशब्द कहे। अपमान से दुखी होकर सती ने यज्ञ अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी। भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला, तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। ब्रम्हांड की भलाई के लिए भगवान विष्णु ने सती के शरीर को 52 भागों में विभाजित कर दिया। जहां भी सती के अंग गिरे, वहां शक्तिपीठों का निर्माण हुआ। अगले जन्म में सती ने हिमवान राजा के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया और घोर तपस्या कर शिवजी को फिर से पति रूप में प्राप्त किया। माना जाता है कि यहां मां का हार गिरा था। इसलिए भक्तों की आस्था दिन प्रतिदिन मजबूती ही हो रही है।
देश के हृदय प्रदेश, मध्य प्रदेश के कटनी जिले में मैहर की माता शारदा का प्रसिद्ध मंदिर है। मान्यता है कि शाम की आरती होने के बाद जब मंदिर के कपाट बंद करके सभी पुजारी नीचे चले जाते हैं तब यहां मंदिर के अंदर से घंटी और पूजा करने की आवाज आती है। कहा जाता है कि मां के भक्त आल्हा अभी भी पूजा करने आते हैं। अक्सर सुबह की आरती वे ही करते हैं।
आज भी आल्हा करते हैं सबसे पहले श्रृंगार,
जानकार विद्वानों की मानें तो इस मंदिर की पवित्रता का अंदाजा महज इस बात से लगाया जा सकता है कि अभी भी आल्हा मां शारदा की पूजा करने सुबह पहुंचते हैं। मैहर मंदिर के जानकारों के अनुसार कि अभी भी मां का पहला श्रृंगार आल्हा एवं ऊदल ही करते हैं और जब ब्रम्ह मुहूर्त में शारदा मंदिर के पट खोले जाते हैं तो पूजा की हुई मिलती है। इस रहस्य को सुलझाने हेतु वैज्ञानिकों की टीम भी डेरा जमा चुकी है लेकिन रहस्य अभी भी बरकरार है।
आईए अब जानते हैं कि आखिर कौन थे आल्हा?
इतिहास में यह बात दर्ज है कि आल्हा और ऊदल दो भाई थे। ये बुन्देलखण्ड के महोबा के वीर योद्धा और परमार के सामंत थे। कालिंजर के राजा परमार के दरबार में जगनिक नाम के एक कवि ने आल्हा खण्ड नामक एक काव्य रचा था उसमें इन वीरों की गाथा वर्णित है। इस ग्रंथ में दों वीरों की 52 लड़ाइयों का रोमांचकारी वर्णन है। आखरी लड़ाई उन्होंने राजा पृथ्वीराज चौहान के साथ लड़ी थी।
आल्हाखण्ड ग्रंथ के बारे में जानते हैं कि, आल्हाखण्ड में गाया जाता है कि इन दोनों भाइयों का युद्ध दिल्ली के तत्कालीन शासक पृथ्वीराज चौहान से हुआ था। पृथ्घ्वीराज चौहान को युद्ध में हारना पड़ा था लेकिन इसके पश्चात आल्हा के मन में वैराग्य आ गया और उन्होंने संन्यास ले लिया था। कहते हैं कि इस युद्ध में उनका भाई वीरगति को प्राप्त हो गया था। गुरु गोरखनाथ के आदेश से आल्हा ने पृथ्वीराज को जीवनदान दे दिया था। पृथ्वीराज चौहान के साथ उनकी यह आखरी लड़ाई थी।
मान्यता है कि मां के परम भक्त आल्हा को मां शारदा का आशीर्वाद प्राप्त था, लिहाजा पृथ्वीराज चौहान की सेना को पीछे हटना पड़ा था। मां के आदेशानुसार आल्हा ने अपनी साग (हथियार) शारदा मंदिर पर चढ़ाकर नोक टेढ़ी कर दी थी जिसे आज तक कोई सीधा नहीं कर पाया है। मंदिर परिसर में ही तमाम ऐतिहासिक महत्व के अवशेष अभी भी आल्हा व पृथ्वीराज चौहान की जंग की गवाही देते हैं।
शारदा शक्तिपीठ का परिचय जानिए,
मध्यप्रदेश के मैहर जिले में त्रिकूट पर्वत पर स्थित माता के इस मंदिर को मैहर देवी का शक्तिपीठ कहा जाता है। मैहर का मतलब है मां का हार। माना जाता है कि यहां मां सती का हार गिरा था इसीलिए इसकी गणना शक्तिपीठों में की जाती है। करीब 1,063 सीढ़ियां चढ़ने के बाद माता के दर्शन होते हैं। पूरे भारत में मैहर जिले का मंदिर माता शारदा का अकेला मंदिर है।
कहते हैं कि दोनों भाइयों ने ही सबसे पहले जंगलों के बीच शारदादेवी के इस मंदिर की खोज की थी। आल्हा ने यहां 12 वर्षों तक माता की तपस्या की थी। आल्हा माता को शारदा माई कहकर पुकारा करते थे इसीलिए प्रचलन में उनका नाम शारदा माई हो गया। इसके अलावा, ये भी मान्यता है कि यहां पर सर्वप्रथम आदिगुरु शंकराचार्य ने 9वीं 10वीं शताब्दी में पूजा अर्चना की थी। माता शारदा की मूर्ति की स्थापना विक्रम संवत 559 में की गई थी।
मैहर का नाम कैसे मैहर पड़ा?
जानकार विद्वानों के अनुसार लोक कथाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मैहर नगर का नाम मां शारदा मंदिर के कारण ही अस्तित्व में आया। हिन्दू श्रद्धालुजन देवी को मां अथवा माई के रूप में परंपरा से संबोधित करते चले आ रहे हैं। माई का घर होने के कारण पहले माई घर तथा इसके उपरांत इस नगर को मैहर के नाम से संबोधित किया जाने लगा। सन 1922 में जैन दर्शनार्थियों की प्रेरणा से तत्कालीन महाराजा ब्रजनाथ सिंह जूदेव ने शारदा मंदिर परिसर में जीव बलि को प्रतिबंधित कर दिया था।
एक अन्य मान्यता के अनुसार भगवान शंकर के तांडव नृत्य के दौरान उनके कंधे पर रखे माता सती के शव से गले का हार त्रिकूट पर्वत के शिखर पर आ गिरा। इसी वजह से यह स्थान शक्तिपीठ तथा नाम माई का हार के आधार पर मैहर के रूप में विकसित हुआ।
अब जानिए मंदिर का इतिहास,
विन्ध्य पर्वत श्रेणियों के मध्य त्रिकूट पर्वत पर स्थित इस मंदिर के बारे मान्यता है कि मां शारदा की प्रथम पूजा आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा की गई थी। मैहर पर्वत का नाम प्राचीन धर्मग्रंथ श्महेन्द्रश् में मिलता है। इसका उल्लेख भारत के अन्य पर्वतों के साथ पुराणों में भी आया है। मां शारदा की प्रतिमा के ठीक नीचे के न पढ़े जा सके शिलालेख भी कई पहेलियों को समेटे हुए हैं।
पिरामिडाकार त्रिकूट पर्वत में विराजीं मां शारदा का यह मंदिर 522 ईसा पूर्व का है। कहते हैं कि 522 ईसा पूर्व चतुर्दशी के दिन नृपल देव ने यहां सामवेदी की स्थापना की थी, तभी से त्रिकूट पर्वत में पूजा अर्चना का दौर शुरू हुआ। ऐतिहासिक दस्तावेजों में इस तथ्य का प्रमाण प्राप्त होता है कि सन 539 (522 ईसा पूर्व) चैत्र कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नृपलदेव ने सामवेदी देवी की स्थापना की थी।
चौतरफा हैं प्राचीन धरोहरें,
मैहर केवल शारदा मंदिर के लिए ही प्रसिद्ध नहीं है बल्कि इसके चारों ओर प्राचीन धरोहरें बिखरी पड़ी हैं। मंदिर के ठीक पीछे इतिहास के दो प्रसिद्ध योद्धाओं व देवी भक्त आल्हा ऊदल के अखाड़े हैं तथा यहीं एक तालाब और भव्य मंदिर है जिसमें अमरत्व का वरदान प्राप्त आल्हा की तलवार उसी की विशाल प्रतिमा के हाथ में थमाई गई है।
इसके अलावा 950 ईसा पूर्व चंदेल राजपूत वंश द्वारा बनाया गया गोलामठ मंदिर, 108 शिवलिंगों का रामेश्वरम मंदिर, भदनपुर में राजा अमान द्वारा स्थापित किया गया हनुमान मंदिर अन्य धार्मिक केंद्र हैं। इसके अतिरिक्त मैहर क्षेत्र के ग्राम मड़ई, मनौरा, तिदुंहटा व बदेरा में सदियों पुराने भवन व शिलालेख हैं, जो भारतीय इतिहास को एक नए आलोक में झांकने का अवसर प्रदान करते हैं। शिव पुराण के मुताबिक बदेरा में ही शिवभक्त बाणासुर की राजधानी थी जिसकी पुष्टि बदेरा के जंगल में जगह जगह मिल रहे शिव मंदिरों के भग्नावशेष व शिवलिंग करते हैं।
अगर आप जगत जननी माता दुर्गा की अराधना करते हैं और अगर आप माता दुर्गा जी के भक्त हैं तो कमेंट बाक्स में जय भवानी, जय दुर्गा अथवा जय काली माता लिखना न भूलिए।
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