जानिए दीपावली की शुरुआत कब से हुई और क्या है इसका इतिहास, मान्यताएं?

जानिए दीपावली का प्राचीन नाम एवं पौराणिक तथ्यों के बारे में विस्तार से . . .
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दीवाली, दिवाली या दीपावली का त्योहार सनातन धर्म में अति प्राचीन काल से ही अस्तित्व में रहा है और यह धूमधाम से मनाया जाता रहा है। समय के साथ इस त्यौहार को मनाने के तरीके भी बदले हैं। हिन्दू कलैंडर के अनुसार दीपावली का पर्व हर वर्ष कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है। दीपावली को प्राचीन काल में क्या कहा जाता था और कब से हुई थी इसकी शुरुआत, क्या है इसका इतिहास, आईए यह बात जानते हैं,
सबसे पहले जानते हैं कि दीपावली का प्राचीन नाम क्या है?
जानकार विद्वानों के अनुसार दीपावली शब्द दीप (दीपक) और आवली (पंक्ति) से मिलकर बना है। जिसका अर्थ है दीपों की पंक्ति, दीपा की मालाओं वाला पर्व है। वैदिक प्रार्थना है, तमसो मा ज्योतिर्गमयः अर्थात अंधकार से प्रकाश में ले जाने वाला पर्व है दीपावली। प्राचीन काल में इसे दीपोत्सव अर्थात दीपों का उत्सव कहा जाता था। कहते हैं कि कार्तिक अमावस्या की रात साल भर में पड़ने वाली अन्य अमावस्या की रातों से सबसे घनी, गहरी और काली होती है, इसीलिए इस दिन दीपक जलाकर अंधकार को दूर करने की परंपरा चली आ रही है।
इसी तरह कहा जाता है कि प्रारंभ में दीवाली के पर्व यक्ष और गंधर्व जाति का उत्सव था। मान्यता है कि दीपावली की रात्रि को यक्ष अपने राजा कुबेर के साथ हास विलास में बिताते व अपनी यक्षिणियों के साथ आमोद प्रमोद करते थे। बाद में यह त्योहार सभी जातियों का प्रमुख त्योहार बन गया।
वहीं, सभ्याता के विकास क्रम के चलते बाद में धन के देवता कुबेर की बजाय धन की देवी लक्ष्मी की इस अवसर पर पूजा होने लगी, क्योंकि कुबेर जी की मान्यता सिर्फ यक्ष जातियों में थी पर लक्ष्मीजी की देव तथा मानव जातियों में मान्यता थी। दीपावली के साथ लक्ष्मी पूजन के जुड़ने का कारण लक्ष्मी और विष्णुजी का इसी दिन विवाह सम्पन्न होना भी माना गया है।
कहते हैं कि लक्ष्मी, कुबेर के साथ बाद में गणेशजी की पूजा का प्रचलन भौव सम्प्रदाय के लोगों ने किया। ऋद्धि सिद्धि के दाता के रूप में उन्होंने गणेशजी को प्रतिष्ठित किया।
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यह भी कहा जाता है कि इस दिन एक ओर जहां समुद्र मंथन के पश्चात माता लक्ष्मी जी व महर्षि धन्वंतरि महाराज प्रकट हुए थे, वहीं इसी दिन माता काली जी भी प्रकट हुई थी इसलिए इस दिन काली जी और लक्ष्मी जी दोनों की ही पूजा होती है और इसी कारण दीपोत्सव मनाया जाता है।
यह मान्यता भी है कि दीपावली का पर्व सबसे पहले राजा महाबली के काल से प्रारंभ हुआ था। भगवान विष्णु ने तीन पग में तीनों लोकों को नाप लिया। राजा बली की दानशीलता से प्रभावित होकर भगवान विष्णु ने उन्हें पाताल लोक का राज्य दे दिया, साथ ही यह भी आश्वासन दिया कि उनकी याद में भू लोकवासी प्रत्येक वर्ष दीपावली मनाएंगे। तभी से दीपोत्सव का पर्व प्रारंभ हुआ।
एक मान्यता के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इस दिन भगवान विष्णु ने राजा बली को पाताल लोक का स्वामी बनाया था और इन्द्र ने स्वर्ग को सुरक्षित जानकर प्रसन्नतापूर्वक दीपावली मनाई थी।
वहीं यह मान्यता भी प्रचलन में है कि भगवान श्रीराम अपना 14वर्ष का वनवास पूरा करने के बाद पुनः लौट आए थे। कहते हैं कि वे सीधे अयोध्या न जाते हुए पहले नंदीग्राम गए थे और वहां कुछ दिन रुकने के बाद दीपावली के दिन उन्होंने अयोध्या में प्रवेश किया था। इस दौरान उनके लिए खासतौर पर नगर को दीपों से सजाया गया था। तभी से दिवाली के दिन दीपोत्सव मनाने का प्रचलन हुआ।
ऐसा कहा जाता है कि दीपावली के एक दिन पहले श्रीकृष्ण ने अत्याचारी नरकासुर का वध किया था जिसे नरक चतुर्दशी कहा जाता है। इसी खुशी में अगले दिन अमावस्या को गोकुलवासियों ने दीप जलाकर खुशियां मनाई थीं। दूसरी घटना श्रीकृष्ण द्वारा सत्यभामा के लिए पारिजात वृक्ष लाने से जुड़ी है। श्री कृष्ण ने इंद्र पूजा का विरोध करके गोवर्धन पूजा के रूप में अन्नकूट की परंपरा प्रारंभ की थी।
यह मान्यता भी है कि राक्षसों का वध करने के लिए मां देवी ने महाकाली का रूप धारण किया। राक्षसों का वध करने के बाद भी जब महाकाली का क्रोध कम नहीं हुआ तब भगवान शिव स्वयं उनके चरणों में लेट गए। भगवान शिव के शरीर स्पर्श मात्र से ही देवी महाकाली का क्रोध समाप्त हो गया। इसी की याद में उनके शांत रूप लक्ष्मी की पूजा की शुरुआत हुई। इसी रात इनके रौद्ररूप काली की पूजा का भी विधान है।
जानकार विद्वानों के अनुसार एक शोध के अनुसार सिंधु घाटी की सभ्यता लगभग आठ हजार वर्ष पुरानी है। अर्थात ईसा से 6 हजार वर्ष पूर्व सिंधु घाटी के लोग रहते थे। इसका मतलब हुआ कि यह सभ्यता रामायण काल के भी पूर्व अस्तित्व में थी। सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में पकी हुई मिट्टी के दीपक प्राप्त हुए हैं और 3500 ईसा वर्ष पूर्व की मोहन जोदड़ो सभ्यता की खुदाई में प्राप्त भवनों में दीपकों को रखने हेतु ताख बनाए गए थे। मुख्य द्वार को प्रकाशित करने हेतु आलों की श्रृंखला थी, मोहन जोदड़ो सभ्यता के प्राप्त अवशेषों में मिट्टी की एक मूर्ति के अनुसार उस समय भी दीपावली मनाई जाती थी। उस मूर्ति में मातृ देवी के दोनों ओर दीप जलते दिखाई देते हैं। इससे यह सिद्ध स्वतः ही हो जाता है कि यह सभ्यता हिन्दू सभ्यता थी जो दीपावली का पर्व मनाती थी।
जानिए हिंदू धर्म में क्यों मनाया जाता है दिवाली का पर्व,
हिंदू धर्म से दीपावलीके पर्व को मनाए जाने के पीछे कई प्रकार की कथा और मान्यताएं जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे ज्यादा प्रचलित मान्यता है कि कार्तिक मास की अमावस्या के दिन ही भगवान राम लंका विजय करने के बाद अयोध्या नगरी लौटे थे। जिनके आगमन पर अयोध्यावासियों ने घी के दीये जलाकर उनका स्वागत किया था। मान्यता यह भी है कि इसी दिन समुद्र मंथन के बाद धन की देवी मां लक्ष्मी का प्राकट्य हुआ था। दिवाली को लेकर कुछ लोगों की मान्यता है कि इसी दिन पांडव 12 वर्ष का वनवास काटकर वापस लौटे थे, जबकि कुछ लोग इसे राजा विक्रमादित्य के राजतिलक का दिन मानते हैं।
अब जानिए बौद्ध धर्मावलंबी क्यों मनाते हैं दीपावली,
दीपावली को लेकर बौद्ध धर्म से जुड़ी मान्यता है कि इसी दिन उनके आराध्य भगवान गौतम बुद्ध 18 साल बाद अपनी जन्मभूमि कपिल वस्तु वापस लौटे थे। मान्यता है कि उनके अनुयायियों ने उस दिन उनका दीये जलाकर स्वागत किया था। तभी से इस धर्म से जुड़े लोग इस दिन अपने घर में दीये जलाकर इस पावन पर्व को मनाते हैं।
दीपावली को लेकर जैन धर्म से जुड़ी मान्यता जानिए,
जैन धर्म से जुड़े लोगों का मानना है कि उनके 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर दीपावली के दिन ही बिहार के पावापुरी में निर्वाण की प्राप्ति हुई थी। इसी खुशी में इस धर्म से जुड़े लोग भगवान महावीर की पूजा दीया जलाकर करते हैं। हालांकि उनके साथ लोग भगवान गणेश, लक्ष्मी और मां सरस्वती की पूजा भी करते हैं।
जानिए दीपावली को क्यों कहा जाता है पंचमहापर्व,
जिस दीपावली का इंतजार लोगों को पूरे साल बना रहता है, वो एक नहीं बल्कि 5 पर्वों से जुड़ा त्योहार है। जिसमें पहला धनतेरस पड़ता है, जिसमें भगवान धन्वतरि की पूजा का विधान है तो वहीं चतुर्दशी तिथि पर छोटी दीपावली मनाई जाती है। मान्यता है कि इसी दिन भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर राक्षस का वध किया था। इसी प्रकार दीपावली के दिन भगवान श्री गणेश, माता लक्ष्मी, कुबेर देवता, माता काली और मां सरस्वती की पूजा का विधान है। चौथे दिन गोवर्धन पूजा और पांचवें दिन भाई दूज मनाया जाता है। हरि ओम,
अगर आप भगवान विष्णु जी एवं माता लक्ष्मी जी की अराधना करते हैं और अगर आप विष्णु जी के भक्त हैं तो कमेंट बाक्स में जय विष्णु देवा, जय माता लक्ष्मी एवं हरिओम तत सत लिखना न भूलिए।
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(साई फीचर्स)