ये सोचकर अजीब लग रहा है कि अब जब भोपाल जाऊंगा तो आनंद नहीं मिलेगा। न भोपाल से उसका फोन आएगा और न मैं उसे फोन लगा सकूंगा। पिछले 40 सालों से दिन रात का साथ रहा है। आनंद का जबलपुर आना और मेरा भोपाल जाना बहुत ही सामान्य बात रही है। हबीबगंज स्टेशन से बाहर आनंद अपनी स्कूटर और बाद में कार से लेने आ जाता था। हम लोग सीधे काम पर निकल जाते थे। बरसों तक टिन शेड वाले घर में ही रूकना होता था। आनंद के पास एक एश कलर की पुरानी स्कूटर थी। बिना ताले की, वो मेरे सुपुर्द रहती थी। उसी से दौड़ दौड़कर कर काम निपटाते थे। दोपहर का खाना आनंद अपने टिफिन में ले आते थे।
हर काम में एक दूसरे की सलाह रहती थी। असहमतियां भी होती थीं। मुलाकात न भी हो तो घंटों फोन पर बात हो जाती थी। आनंद वो दोस्त था जो हमेशा अपने दोस्तों की तरक्की और बेहतरी के लिए सोचा करता था। उसके बचपन के सारे दोस्त आज भी बचे हुए हैं और उसके साथ खड़े रहते हैं। मेरे जीवन की बहुत सी उपलब्धियों के पीछे आनंद का साथ या मदद रही है। उसका प्रोत्साहन रहा है या उसकी सूचना रही है। विवेचना का राष्ट्रीय नाट्य समारोह उसी की देन है।
न जाने कितने बड़े लोगों से उसने मुझे मिलवाया जो आज भी मेरे दोस्त हैं। आनंद में एक जुनून था कला के लिए। किसी भी शहर में जाकर वहां के लोगों से मिलना जुलना उसकी हॉबी थी। वो हर शहर में काम करने वालों को ढूंढ ढूंढ कर मदद करता था। इसीलिए हर कोई उसे जानता था।
आनंद के साथ अनगिनत यात्राएं की हैं। दिल्ली की खास तौर पर। कई कई दिनों तक गोमती हॉस्टल और यहां वहां रूकते रहे। उत्सवों में नाटक देखते रहे। नए नए दोस्त बनाए। भोपाल में कोई महत्वपूर्ण आयोजन हो, कोई नाटक हो तुरंत मुझे खबर करते थे। उस दिन आ जाओ। फलां कार्यक्रम है। सबसे मुलाकात हो जाएगी। आनंद के कारण पूरा संस्कृति विभाग ही हम सबका मित्र था। धीरे धीरे सारे लोग रिटायर हो गए। वो समय नहीं रहा मगर अभी भी जो भी मिलता है बहुत मुहब्बत से मिलता है।
आनंद का गृहनगर होशंगाबाद है। वहां की जैसे उसे हर चीज से प्यार है। वहां एक पुराना घर है। आनंद को होशंगाबाद से ऐसा लगाव है कि चाहे जब वो भोपाल से होशंगाबाद आ जाता है। मैं 2001 से 2004 तक होशंगाबाद रहा हूं। होशंगाबाद की हर गली चौराहे में उसके दोस्त बिखरे हुए हैं।
अपने सरकारी कामों में बहुत निष्णात था। मैं जानता हूं कि मानसिंह तोमर विश्वविद्यालय और मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय की योजना बनाने में उसका कितना बडा योगदान रहा है। कला परिषद की न जाने कितनी योजनाओं को उसने मूर्त रूप दिया अपने समय में। उससे खासतौर पर नाटक वालों को बहुत लाभ हुआ। हर साल मध्यप्रदेश नाट्य समारोह होते थे। विभिन्न शहरों में बहु कला उत्सव होते थे। हर जगह आनंद की उपस्थिति रहती थी।
आनंद बहुत घरेलू आदमी था। घर में बड़े भाई थे जो बहुत बड़े थे। पितृवत। चार बहनें थीं/हैं। उनके परिवार थे। आनंद हर घर में जाते थे। हर शहर में रिश्तेदारी निभाते थे। मामा, मौसा, चाचा ताउ, साली सास भांजा, भांजी हर जगह आनंद दौड़ते थे। हरएक की खुशी और गम में दौड़ते थे। मां के प्रति समर्पण का तो मैं गवाह हूं। हम दोनों एम पी हाउस दिल्ली में रूके थे। अचानक फोन आया कि मां की तबियत खराब हो गई है। आनंद चिंता में पागल सा हो गया। सुबह चार बजे बिना रिजर्वेशन के शताब्दी में बैठकर रवाना हो गया। टी टी को बोला मेरी मां की तबियत खराब है। मैं तो जाऊंगा।
काफी सालों से उसे घुटनों की तकलीफ थी। तरह तरह के एलोपैथिक, आयुर्वेदिक इलाज चलते रहते थे। कमर में भी तकलीफ थी। इसके बावजूद लंगड़ाते लंगड़ाते पूरे देश की यात्रा करते रहे। उसकी बड़ी इच्छा थी कि लिटिल बैले ट्रूप के इतिहास और उपलब्धियों पर काम करूं। बहुत दिनों के प्रयास के बाद रिटायरमेंट के बाद उसे सीनियर फैलोशिप मिली। बहुत मेहनत से उसकी तीन रिपोर्ट जमा हो गईं थीं। तीसरी तो फरवरी मार्च में बीमारी से निपटते में जमा की। मगर उसका ये प्रोजेक्ट पूरा न हो पायेगा।
संस्कृति विभाग में पेंशन नहीं है। आनंद को रिटायरमेंट पर रिटायरमेंट का पैसा नहीं मिला। संस्कृति विभाग में बहुत से खुराफात चलते हैं। मैंने बार बार चेताया था कि रिटायर होने के पहले सब केस निपटा लेना। बिना किसी मामले के पैसा रोक लिया गया। फिर हाईकोर्ट में तारीख पर तारीख चलती रही। इसे सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य कि निधन के कुछ दिन पहले वो केस जीत गए। मगर पैसा लेने के लिए अब नहीं हैं।
बाल बच्चों की अच्छी पढ़ाई और नौकरियों के लिए खूब जूझे। लड़के लड़की की शादियां संपन्न करवाई। अपने हिस्से के सारे काम करते जा रहे थे। जिंदगी भर सरकारी क्वार्टर में रहे थे। अभी पिछले साल कोलार रोड पर बहुत अच्छा घर बनवाया। नई कार भी ली। मगर उसका सुख न भोग सके यह दुख है।
23 मई की सुबह आनंद नहीं रहा। दो दिन पहले ही खबर आ गई थी कि स्थिति काबू में नहीं है। जल्दी जल्दी तीन बार अस्पताल आना जाना हुआ। बाद में उल्टियां रूक ही नहीं रहीं थीं। सीटी स्कॅन में पता चला कि पेन्क्रियाज बहुत अधिक संक्रमित है और संक्रमण चारों ओर फैल गया है। किडनी पर भी असर हो गया है। अंततः बी पी नियंत्रण में ही नहीं आ रहा था। और वो नहीं ही आया। सारे उपचार के बावजूद बीमारी जीत गई और आनंद हार गया। इलाज में कोई कमी नहीं थी। सबकुछ किया जा रहा था।
ये कहानी दरअसल दिसंबर 2024 में शुरू हुई थी जब बिटिया शुभी की शादी थी। उस शादी में हालांकि सब ठीक चल रहा था मगर मुझे बार बार लग रहा था कि आनंद कुछ अनमनस्क सा है। थका हुआ भी है। शादी के बाद भागलपुर गये बिटिया की ससुराल वहां आयोजित रिसेप्शन अटेंड करने। लौट के आए तो तबियत ऐसी बिगड़ी कि आनन फानन में अस्पताल में भरती करना पड़ा। कई दिन अस्पताल में रहने के बाद बहुत कमजोर होकर घर लौटे। तबियत सुधर रही थी। फोन पर बातचीत करने लगे थे। मगर एक समस्या परेशान कर रही थी। कमर में दर्द की। उसके लिए फिर भरती किया। उसके बाद जो अस्पताल दवाओं का चक्र चालू हुआ 23 मई को ही खत्म हुआ।
आनंद के बेटे राम इंजीनियर हैं। उसकी शादी जबलपुर में 2023 में हुई। बेटी शुभी आर्कीटेक्ट है उसकी शादी अभी 3 दिसंबर 2024 को हुई है। छोटे बेटे रमण ने एम बी ए किया है जो टूरिज्म की विशेषज्ञता के साथ है। वो बैंकाक में नौकरी कर रहा है। वो बेहतरीन खिलाड़ी भी रहा है।
आनंद की धर्मपत्नी रश्मि भाभी हैं। जो घर और बाहर दोनों मोर्चों को बहुत शांति से निभाती हें। वे स्वास्थ्य विभाग में हैं। पूरे कुटुंब को साथ लेकर चलने वाली। आनंद के हर कदम में साथ। मुझ जैसे अनेक दोस्तों का हमेशा मुस्कुराते हुए स्वागत करते हुए। आनंद के सभी अतिरेकों को सहन करते हुए।
इन सबको छोड़ कर आनंद चला गया। पूरे देश में जिसे जब पता चला, अवाक रह गया। ऐसा कैसे हुआ ? बहुत छोटी से बीमारी से शुरू हुई समस्या जानलेवा बन गई और आनंद जैसा हीरा दोस्त बहुत से अधूरे काम और बहुत से अधूरे संबंध छोड़कर चला गया। सन् 1957 की चार नवंबर को जन्मे आनंद की उम्र अभी 67 साल ही थी। अभी बहुत कुछ करना था। हम सब उसके दोस्त साठ सत्तर पार कर चुके हैं। लगता रहता है कि अपना समय भी काफी कट चुका है। ऐसे में हम सब जिस ट्रेन में बैठे हैं उसमें से अचानक एक दोस्त एक स्टेशन पर उतर गया है। ट्रेन आगे बढ़ गयी है अगले स्टेशन के लिए। अगले यात्री को उतारने के लिए।
अलविदा आनंद, अलविदा
हिमांशु राय
29 05 2025

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