खुश रहने और खुशी बांटने की पढ़ाई

 

 

(विनोद कुमार यादव)

दिल्ली सरकार के स्कूलों में हैपिनेस करिकुलम (खुशी का पाठ्यक्रम) लागू किए जाने के सकारात्मक नतीजे सामने आए हैं। एक साल का अनुभव बता रहा है कि यह पाठ्यक्रम विद्यार्थियों के व्यक्तित्व में असाधारण बदलाव ला सकता है। उन्हें तनाव और अवसाद से मुक्त कर एक जिंदादिल इंसान बना सकता है। पिछले साल 2 जुलाई को दिल्ली सरकार ने अपने सभी राजकीय विद्यालयों में 10 वर्षीय प्रॉजेक्ट के तौर पर हैपिनेस करिकुलम लागू किया। उसका एक साल पूरा होने के मौके पर इन दिनों दिल्ली के सरकारी स्कूलों में हैपिनेस उत्सव मनाया जा रहा है। यह एक ऐसा प्रयोग है, जिसने पूरे देश को शिक्षा व्यवस्था में बुनियादी बदलाव की प्रेरणा दी है।

पिछले कई वर्षों से अनेक शिक्षाशास्त्री, मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्री दोहरा रहे हैं कि हमारी शिक्षा-परीक्षा प्रणाली बहुत मशीनी होती जा रही है। अंक केंद्रित मूल्यांकन पद्धति ने बच्चों को गहरे दबाव में डाल दिया है, जिससे उनकी सहजता नष्ट हो रही है। वे बेहद चिड़चिड़े और अवसादग्रस्त होते जा रहे हैं। इस बात की तस्दीक कई शोधों और अध्ययनों के जरिए हुई है। बेंगलुरु के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेज ने कुछ समय पहले देश के 12 प्रांतों के 10 से 17 साल आयुवर्ग के 1191 बच्चों व किशोरों पर मेंटल हेल्थ से संबंधित सर्वे में निष्कर्ष निकाला कि 13 से 17 की उम्र वाले लगभग 8 प्रतिशत किशोरों में सायक्याट्रिक प्रॉब्लम व डिप्रेशन के लक्षण हैं। पिछले दिनों एचआरडी मिनिस्ट्री ने संसद में पेश एक रिपोर्ट में कहा कि वर्तमान एजुकेशन सिस्टम की वजह से 11 से 17 वर्ष के आयु-वर्ग के किशोर हाइपर-एक्टिविटी, हताशा और उच्च मानसिक तनाव से ग्रस्त हैं।

इन समस्याओं से मुक्ति के लिए ही दिल्ली सरकार ने खुशी का पाठ्यक्रम लागू किया। इसके पीछे मूल अवधारणा यह है कि खुशी एक आंतरिक भावनात्मक अवस्था है, जिसका स्रोत हर व्यक्ति के भीतर मौजूद है। इसका संबंध इससे नहीं है कि हमारे पास कितनी धन-संपदा है। धन-दौलत, शानो-शौकत का तामझाम न होने के बावजूद यदि व्यक्ति के दिल में शांति है, अपनी दिनचर्या के प्रति उमंग और उत्साह है, पॉजिटिव सोच है तो उसकी लाइफ हैपिनेस से परिपूर्ण है।

खुशी के पाठ्यक्रम में माइंडफुलनेस, स्टोरी, एक्टिविटी और प्रजेंटेशन इत्यादि को शामिल किया गया है। दिल्ली के क्लास-टीचर्स बता रहे हैं कि यह करिकुलम आने के बाद कुछ बच्चों में जबर्दस्त बदलाव आया है। जो बच्चे पहले गुमसुम रहते थे, दूसरे बच्चों के साथ मिक्स-अप नहीं होते थे, वे दूसरों से अपनी बात शेयर करते हैं। उनके पैरंट्स स्कूल आकर टीचर्स को बता रहे हैं कि उन बच्चों में पॉजिटिव चेंज आया है। बच्चे भी टीचर्स को बता रहे हैं कि उन्हें बुजर्गों को रोड क्रॉस कराने, पक्षियों को दाना डालने और पेड़-पौधों को पानी देकर खुशी महसूस होती है।

इसका प्रभाव उन बच्चों पर भी दिखाई दे रहा है जो अति चंचल स्वभाव के हैं और हर पीरियड के बाद कक्षा से बाहर भागने की फिराक में रहते हैं। नर्सरी से आठवीं तक के बच्चों को हैपिनेस पीरियड के अंतर्गत उनकी आयु और कक्षा के मुताबिक हैपिनेस एक्टिविटीज कराई जाती हैं। इनमें माइंडफुलनेस सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसका संबंध किसी भी धर्म, संप्रदाय, जाति या वर्ग से नहीं है। यह मन-मस्तिष्क को बेचौन करने वाले असंख्य विचारों को शांत करने की प्रैक्टिस है।

अपनी क्लास में माइंडफुलनेस का सेशन लेने वाले टीचर्स की राय है कि एक महीने के अभ्यास से बच्चों के स्वभाव में कई बदलाव दिखाई दे रहे हैं। उनमें एकाग्रता विकसित हो रही है, जिसकी वजह से उनकी एकेडमिक परफॉर्मेंस पहले से बेहतर हो रही है। उनमें हाइपर-एक्टिविटी कम होने के अलावा दूसरों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने की आदत भी विकसित हो रही है। असल में माइंडफुलनेस कंप्लीट मेडिटेशन तो नहीं किंतु ध्यान के करीब की एक सहज प्रक्रिया है। स्टूडेंट्स को चार तरह की माइंडफुलनेस एक्टिविटी कराई जाती है। इसका समयांतराल और अभ्यास बच्चों के आयुवर्ग के अनुसार निर्धारित किया गया है।

प्रारंभिक स्तर पर सामूहिक रूप से माइंडफुलनेस ब्रीदिंग का अभ्यास कराया जाता है। इसके तहत टीचर के निर्देशानुसार विद्यार्थी अपना ध्यान नाक के अग्रभाग पर केंद्रित करते हुए आती-जाती सांसों की सिहरन को, उनके उतार-चढ़ाव को सहज भाव से महसूस करते हैं। इससे उनका मन स्थिर होता है और भावनात्मक दृढ़ता आने लगती है। दूसरे चरण में सजगतापूर्वक सुनने की प्रैक्टिस कराई जाती है। इसमें बच्चे आंख बंद करके आसपास की आवाजों पर ध्यान लगाते हैं। ध्यान भटकने पर बार-बार अपने इर्द-गिर्द की आवाजों पर कॉन्सन्ट्रेट करते हैं। इससे वर्तमान परिस्थिति के प्रति स्वीकार्यता की भावना विकसित होती है। तीसरे चरण में ध्यानपूर्वक देखने का अभ्यास कराया जाता है। बच्चों में जब अपने परिवेश के इर्द-गिर्द के घटनाक्रम और वस्तुस्थिति को बिना किसी पूर्वधारणा के यथावत देखने का अभ्यास दृढ़ हो जाता है, तो उनमें अपने माहौल से समन्वय स्थापित करने की भावना जागती है।

अंतिम चरण में छठी से आठवीं के विद्यार्थियों को उनके मानसिक पटल पर क्षण-प्रतिक्षण उभरने वाले असंख्य विचारों और इनसे शरीर में उत्पन्न होने वाली उत्तेजना और आवेश को सहज होकर देखने का प्रशिक्षण दिया जाता है।

स्टोरी एक्टिविटीज के दौरान भी बच्चे बढ़-चढ़कर पार्टिसिपेट करते हैं। कोई कहानी सुनने के बाद वे आपसी चर्चा में जाते हैं और टीचर द्वारा पूछे गए प्रश्नों का अपने ढंग से उत्तर देते हैं। सप्ताह के अंत में केवल शनिवार के दिन अभिव्यक्ति आधारित गतिविधि कराई जाती है। इस एक्टिविटी के दौरान सप्ताह भर में कराई गई एक्टिविटीज पर बच्चे अपने विचार व्यक्त करते हैं। जो बच्चे झिझकते हैं, वे भी टीचर द्वारा प्रोत्साहित करने पर अपने विचार व्यक्त करने लगते हैं। उम्मीद करें कि बच्चों की खुशी से जुड़े ऐसे शैक्षिक प्रयोग अन्य राज्यों में भी किए जाएंगे।

(साई फीचर्स)