आर्टिकल 15 ही नायक है जहां

 

 

(सुधा अरोड़ा)

बड़े-बड़े लोगन के महला-दोमहला,

और भइया झूमर अलग से!

हमरे गरीबन के झुग्गी-झोपड़िया,

आंधी आए गिर जाए धक से!!

बड़े-बड़े लोगन के हलवा-परांठा,

और मिनरल वॉटर अलग से!!!

हमरे गरीबन के चटनी औ रोटी,

पानी पिएं बालू वाला धक से. . .!!!!

इस बहुचर्चित गीत से आर्टिकल 15 फिल्म की शुरुआत होती है, जिसे कुछ अधबनी दाढ़ियों और झुर्रियों वाले बूढों और युवाओं का समूह रात के अंधेरे में, किसी शोकगीत की तरह नहीं, बल्कि अपनी नियति पर स्वीकारोक्ति की मुहर लगाने के अंदाज में गा-बजा रहा है। तंज अंधेरे को चीर कर बोलता है। अगले दृश्य में बॉब डाइलान का अंग्रेजी गीत इसी आशय को वैश्विक स्तर पर ले जाता है दृ कितने रास्ते तय करे आदमी कि तुम उसे इंसान कह सको. . . कितनी बार अपना सिर घुमाए आदमी यह जताने के लिए कि उसने कुछ देखा ही नहीं. . . इन सबका जवाब हवाओं में बह रहा है मेरे दोस्त. . .। आर्टिकल 15 उस जवाब को पकड़ने की एक ईमानदार कोशिश है।

वे और हम वाले मुल्क के बाद ये, इनका, इन्हें, ये लोग जैसे सर्वनाम बन गए और हाशिए पर डाल दिए गए वाशिंदों की कहानी है दृ अनुभव सिन्हा की फिल्म आर्टिकल 15, जिसने एक बड़े दर्शक वर्ग का ध्यान खींचा है। इसमें वह आम जन भी है, जो सार्थक या मानीखेज संदेश पाने के लिए नहीं, शुद्ध मनोरंजन के लिए फिल्म देखता है। ऐसे बॉलीवुड में, जहां फिल्मों के नाम रखने में न्यूमरॉलॉजी के हिसाब से नामकरण का अंकगणित बिठाया जाता हो, वहां एक फिल्म का अनाकर्षक टाइटल फिल्म के निर्माता-निर्देशक के आत्मविश्वास की बानगी दे जाता है। इस फिल्म का नायक न ब्राह्मण पुलिस अधिकारी अयान रंजन है, न दलित चेतना से लैस निषाद और गौरा। फिल्म का नायक है दृ आर्टिकल 15 और खलनायक भारत की जड़ों में पैठा जाति दंश दृ जो आज के समय में भी गर्व से सीना ताने खड़ा है। आम जनता को संविधान की धारा 15 से बखूबी परिचय करवाने में फिल्म का बड़ा योगदान है। मध्यांतर के पहले जब आर्टिकल 15 का छपा हुआ पन्ना पूरे स्क्रीन पर आता है और पृष्ठभूमि में एक गीत के साथ वंदेमातरम् साउंड ट्रैक पर गूंजता है, तो दर्शक सकते में आ जाता है।

फिल्म के अंधेरे विषय के अनुरूप पूरी फिल्म शाम के झुटपुटे और रात के अंधेरे में शूट हुई है। फिल्म का फॉर्मेट क्राइम थ्रिलर का है, जबकि पूरी फिल्म से सस्पेंस अनुपस्थित है। फिल्म की शुरुआत बदायूं कांड के उस वीभत्स दृश्य से होती है, जिसने पूरे देश को हिला दिया था, जहां बलात्कारी हत्यारों ने अपनी नृशंसता और निडरता का सबूत देते हुए दो दलित लड़कियों की मृत देह को पेड़ से लटका दिया है। फिल्म के कथानक में कथा सूत्र को आगे बढ़ाने के लिए दो नहीं, तीन लड़कियां हैं। तीसरी लड़की के इर्द-गिर्द कथानक बेहद बारीकी से बुना गया है। फिल्म में तीखे और तुर्श संवादों को दृश्यों में करीने से पिरो देना और न्यूनतम संवादों के जरिए दर्शक को आखिरी दृश्य तक कुर्सी के सिरे से बांधे रखना, अद्भुत छायांकन, कसी हुई पटकथा और सधे हुए निर्देशन के जरिए ही संभव हो पाया है।

आर्टिकल 15 दलित उत्पीड़न की कई घटनाओं का एक कोलाज है, पर वह इतने सलीके से बुना गया है कि फिल्म कहीं कोई ढीला सिरा नहीं छोड़ती। रोहित वेमुला के आखिरी पत्र की पंक्तियां, चंद्रशेखर और उना कांड पहचान में आते हैं। गौरा और निषाद का एक भावनात्मक दृश्य अद्भुत कलात्मकता लिए हुए है। हालांकि इन दोनों अहम चरित्रों को कुछ और स्पेस दिया जा सकता था! दिलचस्प है कि फिल्म को दोनों ओर से विरोध का सामना करना पड़ा। ब्राह्मणों को लगा कि उन्हें कटघरे में खड़ा किया गया है। पटना में फिल्म दूसरे दिन हटा दी गई। दूसरी ओर दलित चिंतकों ने दलित उद्धारक के रूप में ब्राह्मण नायक को महिमामंडित करने का विरोध किया। दिक्कत यह है कि सामाजिक कार्यकर्त्ता गंभीर मुद्दे पर बनी फीचर फिल्म को मणि कौल की आर्ट फिल्म या आनंद पटवर्धन के वृत्त चित्र की तरह ही देखना चाहते हैं। बेशक उसका हश्र शूद्र या फ्रैंड्री जैसा हो और एक सप्ताह में ही फिल्म की सिनेमा हॉल से विदाई हो जाए!

मान लें कि इसमें नायक पुलिस अधिकारी दलित वर्ग से होता, तो उसके लिए यह असंभव है कि वह जाति व्यवस्था और दलित प्रताड़ना से अनजान हो। प्रभुत्वशाली वर्ग का भारतीय युवा अगर ब्राह्मण है, तो वह बहुत सारी चीजों से अनजान हो सकता है, इसलिए फिल्म का सबसे मजबूत दृश्य मायने रखता है, जहां वह सबकी जाति पूछता है और जाति दंश की बातें सुनने के बाद उसके मुंह से धाराप्रवाह अंग्रेजी में गालियां निकलती हैं। अफसर दलित होता तो, ऊंचे ओहदे पर आते ही सबसे पहले उसे अपने से नीचे काम करने वाले कर्मचारियों का विरोध, अवज्ञा और अवमानना झेलनी पड़ती। फिल्म का पूरा कथानक ही तब दूसरा मोड़ ले लेता और फिल्म आर्टिकल प्रधान नहीं, नायक प्रधान फिल्म हो जाती। आज जैसा असंवेदनशील समय चल रहा है, उसमें इतना भी कह पाना हौसले और जिगरे का काम है, जितना यह फिल्म मनोरंजन और सस्पेंस की ओट में कह जाती है। जिस देश में गांधी, फुले, आंबेडकर जैसे महापुरुषों और समाज सुधारकों के बावजूद दलित प्रताड़ना जारी है, वहां एक फिल्म से आंदोलन की अपेक्षा करना ज्यादती है!

यह फिल्म बहुत कुछ कहने से बचती भी है, ताकि बहुत कुछ अनकहा समझ लिया जाए। फिल्म का आक्रामक होना सेंसर में अटक जाने का कारण बन सकता था। निर्देशक नागराज मंजुले से जब पूछा गया कि उन्होंने फैंड्री जैसी असरदार फिल्म बनाने के बाद सैराट जैसी कमर्शियल फिल्म क्यों बनाई, तो उन्होंने कहा दृ फैंड्री चाहे जितने पुरस्कार जीत ले, सराहना पा ले, पर अगर वह सिर्फ एलीट क्लास तक पहुंचती है, तो उसके क्या मायने हैं। फिल्म का पहला मकसद जनता तक पहुंचना है। दरअसल भारत में जाति प्रथा अपने घिनौने रूप में आज तक चली आ रही है। इस पर अछूत कन्या, सुजाता, दीक्षा, घटश्राद्ध, चक्र, पार, अंकुर, मसान, शूद्र आदि जितनी भी फिल्में बनीं, उन्होंने फिल्म फेस्टिवल्स में कई पुरस्कार जीते। लेकिन आर्टिकल 15 उनसे इस मायने में अलग है कि यह बड़े सलीके से इस उपेक्षित वर्ग को उसके हक से परिचित करवाती है और उस किताब की बात करती है, जिसे संविधान कहा गया है, परंतु जिसकी बार-बार अवमानना की जाती रही है।

सदियों से हम दलित जाति के उत्पीड़न से बार-बार रूबरू होते हैं और अब हमें इसकी आदत पड़ चुकी है। दलित बच्चा मंदिर में झूलता गुब्बारा छू दे या दलित नौजवान शादी के लिए घोड़ी पर चढ़कर अपनी बारात निकाले या अच्छी नौकरी पा ले, तो उसे पीट-पीट कर मार डालने में किसी को शर्मिंदगी महसूस नहीं होती। ये घटनाएं एक रुटीन का हिस्सा न बन जाए, इसलिए आर्टिकल 15 जैसी फिल्मों को बार-बार दोहराए जाने की जरूरत है। आज भी जिस समाज में जाति के नाम पर हर रोज ऑनर किलिंग होती हों, जहां गाड़ियों के पीछे ब्राह्मण, गुर्जर, राजपूत की नेम प्लेट लगाकर देश को शर्मनाक तरीके से सदियों पीछे धकेला जा रहा हो, वहां आर्टिकल 15 जैसी फिल्म को एक प्रस्तावना की तरह ही देखा जाना चाहिए, जिस पर अभी पूरी किताब आना बाकी है।

(साई फीचर्स)

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