कारगिल युद्ध के आज मायने

 

 

(बलबीर पुंज)

कारगिल युद्ध विजय की 20वीं वर्षगांठ मनाई गई। यह भी संयोग ही है कि जब हम सभी इस गौरवपूर्ण क्षण का स्मरण कर, युद्ध में अपने प्राणों की आहुति देने वाले वीर सपूतों को नमन कर रहे है, तब पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने स्वयं अपने देश की उस काली सच्चाई को सार्वजनिक किया है, जिसका खुलासा भारत बीते कई वर्षों से साक्ष्यों के साथ बार-बार शेष विश्व के समक्ष कर रहा है।

हाल ही में इमरान खान अमेरिका दौरे पर रहे, जहां उन्होंने एक कार्यक्रम में स्वीकार करते हुए कहा, पाकिस्तान के भीतर आज भी 30-40 हजार आतंकी मौजूद हैं। इनमें से कुछ प्रशिक्षित आतंकी कश्मीर और अफगान में लड़ रहे हैं। एक वक्त देश में 40 आतंकी संगठन सक्रिय थे, लेकिन पिछले 15 वर्षों में पाकिस्तानी सरकारों ने यह बात अमेरिका से छिपाई। अब इस अभिस्वीकृति से स्पष्ट है कि पाकिस्तान के वैचारिक और राजनीतिक अधिष्ठान की वास्तविक नीयत क्या है और क्यों किसी भी परिस्थिति में इस कपटी देश पर विश्वास करना, हिमालयी भूल करने के सामान है।

यूं तो दोनों ही देश परमाणु संपन्न है, किंतु सतह पर भारत की आर्थिक, सामरिक और कूटनीतिक ताकत के समक्ष पाकिस्तान बौना ही नजर आता है। ऐसे में कारगिल विजय की 20वीं वर्षगांठ के अवसर पर, इस बात का आकलन करना भी स्वाभाविक है कि क्या दूसरा कारगिल संभव है? इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए हमें कारगिल युद्ध के इतिहास को खंगालना होगा।

वर्ष 1997 में जब नवाज शरीफ पुनः पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने, तब वह अपने चिरपरिचित नीति के अंतर्गत, सरकार और पाकिस्तानी सेना के बीच समन्वय को और मजबूत करना चाहते थे। इस कड़ी में उन्होंने पहले वर्ष 1998 में तत्कालीन सेनाध्यक्ष जहांगीर करामात को इस्तीफे के लिए विवश किया और इस नीयत के साथ अपने निकटवर्ती परवेज मुशर्रफ (मुहाजिर) को सैन्य कमान सौंप दी कि जब वह भारत के साथ संबंध सुधारने का प्रयास करेंगे, तब सेना पर उनका और उनकी सरकार का नियंत्रण रहेगा। क्या ऐसा हुआ?

यह अकाट्य सत्य है कि भारत रत्न और पूर्व प्रधानमंत्री दिवंगत अटल बिहारी वाजपेयीजी ने अपने कार्यकाल में पाकिस्तान से मित्रता बढ़ाने के सच्चे प्रयास किए थे, जिसमें उनका फरवरी 1999 को बस द्वारा पंजाब के अमृतसर से लाहौर जाना ऐतिहासिक है। किंतु उसी कालखंड में पाकिस्तानी सेना ने खराब मौसम का लाभ उठाकर नियंत्रण रेखा पार करके खाली पड़ी भारतीय चौकियों पर कब्ज़ा कर लिया। उसी वर्ष 3 मई को एक चरवाहे ने भारतीय सेना को कारगिल में पाकिस्तान सैनिकों के घुसपैठ कर कब्जा जमा लेने की सूचना दी थी। जब भारतीय सेना की एक छोटी टुकड़ी जानकारी लेने कारगिल पहुंची, तो शत्रु देश की सेना ने उन्हें पकड़ लिया और पांच की निर्मम हत्या कर दी। उस समय कारगिल की 18 हजार फीट की ऊंचाई में पांच हजार पाकिस्तानी सैनिकों ने घुसपैठ करके भारतीय चौकियों पर कब्जा जमा लिया था और वहां स्थित भारतीय सेना के गोला बारूद भंडारण को नष्ट कर दिया था।

इस पूरे घटनाक्रम से देश की राजनीति में उबाल आ गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयीजी से विपक्षी दलों ने संसद में पूछ लिया- आप तो दोस्ती का हाथ बढ़ाने गए थे, मगर क्या हुआ? आपके मित्र ने तो पीठ में छुरा घोंप दिया। इसपर अटलजी ने चेतावनी भरे लहजे में कहा- कोई ये न समझे कि मैं हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाऊंगा। मित्रता मेरे देश की संस्कृति है, इसलिए प्रयास किए थे, किंतु मेरी संस्कृति साम, दाम के साथ दंड और भेद भी सिखाती है। अटलजी के इस वक्तव्य के बाद कारगिल में जो कुछ हुआ, उससे इस्लामाबाद, रावलपिंडी आदि ही नहीं, बीजिंग और वाशिंगटन तक में हड़कंप मच गया।

तत्कालीन राजग सरकार द्वारा के निर्देश पर भारतीय थलसेना के बाद वायुसेना ने भी अपनी कार्यवाही प्रारंभ कर दी। मिराज, मिग-27 और मिग-29 लड़ाकू जहाजों ने पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा कब्जाए क्षेत्र पर जमकर बमबारी की और आर-77 मिसाइलों से हमला किया। युद्ध में बड़ी संख्या में रॉकेट और बम का उपयोग किया गया था। एक आंकड़े के अनुसार, कारगिल युद्ध में करीब दो लाख पचास हजार गोले दागे गए, पांच हजार बम दागने के लिए 300 से अधिक मोर्टार, तोपों और रॉकेट का इस्तेमाल किया गया था। बताया जाता है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद यही एक ऐसा युद्ध था, जिसमें दुश्मन देश की सेना पर इतनी बड़ी संख्या में बमबारी की गई थी।

पाकिस्तान, घुसपैठ में मुजाहिद्दीन होने का दावा कर शेष विश्व की आंखों में धूल झोंकने का प्रयास कर रहा था। किंतु भारतीय खुफिया अधिकारियों के सराहनीय कार्य के कारण बीजिंग में बैठे तत्कालीन पाकिस्तानी सैन्य प्रमुख परवेज मुशर्रफ और उच्च-अधिकारी अजीज खान के बीच, जिस प्रकार का रिकॉडेड दूरभाषीय संवाद सामने आया, उसने स्पष्ट कर दिया कि घुसपैठ करने वाले कोई आतंकवादी नहीं, अपितु उसके अपने सैनिक थे, जिन्हे शीर्ष सैन्य नेतृत्व से आदेश मिल रहे थे।

पाकिस्तान चाहता था कि उस समय अमेरिका जैसी बड़ी शक्तियां इस युद्ध को रोकने के लिए भारत पर संघर्षविराम करने का दवाब बनाएं, ताकि कब्जाए क्षेत्रों पर उसकी सेना का नियंत्रण बरकरार रह सके। किंतु तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति और भारतीय नेतृत्व की कूटनीति के समक्ष सब धाराशाही हो गया। सबसे पहले मदद मांगने हेतु पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ बीजिंग पहुंचे, किंतु वहां उन्हें कोई सहारा नहीं मिला। अंततः उन्होंने अमेरिका की ओर से रुख किया और 4 जुलाई 1999 को वाशिंगटन में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन से मिले और वह शांतिदूत बनने को राजी हो गए। क्लिंटन युद्ध खत्म कराने का श्रेय बटोरना चाहते थे, इसलिए उन्होंने वाजपेयीजी को समाधान निकालने के लिए वाशिंगटन बुलाया, किंतु अटलजी ने न्यौता ठुकरा दिया। अमेरिका ने दबाव के सारे उपाय अपना लिए, किंतु अटलजी अपने नाम के अनुरूप अटल रहे और अंततः क्लिंटन को नवाज को पीछे हटने के लिए दो टूक कहना पड़ा।

जहां एक ओर भारतीय कूटनीति, ऑडियो टेप और अन्य साक्ष्यों के साथ पाकिस्तान का असली चेहरा शेष विश्व के समक्ष सामने ला रही थी, वही भारतीय सेना की मुंहतोड़ जवाबी कार्रवाई से घबराए पाकिस्तानी सैनिक के पास कब्जाए क्षेत्रों से भागने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं बचा था। भारतीय सपूतों के शौर्य, साहस और बलिदान से 14 जुलाई 1999 तक द्रास, टाइगर हिल, बालटिक, तोलोलिंग आदि क्षेत्र पुनः भारत के नियंत्रण में आ गए। तत्कालीन भारतीय नेतृत्व के कड़े रुख के कारण पाकिस्तान को किसी भी अंतरराष्ट्रीय मंच से भी कोई सहायता नहीं मिली। अंत्तोगत्वा, पाकिस्तान को ढाई माह चले युद्ध के बाद पीछे हटना पड़ा।

पाकिस्तान की यह हरकत नई नहीं थी। भारत के रक्तरंजित विभाजन के दो महीने बाद अक्टूबर 1947 और 1965 में भी वह भारत और हिंदुओं के प्रति अपनी वैचारिक घृणा और अपनी जिहादी मानसिकता के अनुरूप कश्मीर पर हमला कर चुका था, जिसमें भी उसे मुंह की ही खानी पड़ी थी। यदि 1947 में तत्कालीन भारतीय नेतृत्व, कारगिल घटनाक्रम की भांति दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाते और दूरदर्शी नीति अपनाते हुए कश्मीर से कबाइलियों के भेष में घुसे पाकिस्तानी सैनिकों को चुन-चुनकर सीमा से पूरी तरह बाहर निकाल देती, तो न ही कोई गुलाम कश्मीर (पी.ओ.के.) होता और न ही कश्मीर से संबंधित कोई समस्या होती। क्या सत्य नहीं कि 1947-48 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं.नेहरू ने अपने घोर सांप्रदायिक मित्र शेख अब्दुल्ला के सुझाव पर बढ़ती हुई विजयी सेना को रोककर संघर्ष विराम की घोषणा कर दी थी?

अब इस कॉलम के मूल प्रश्न की ओर लौटते है- क्या वर्तमान समय में कारगिल जैसा घटनाक्रम संभव है? यह सत्य है कि 1999 में तत्कालीन राजग-1 सरकार ने अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के कारण और प्रोटोकॉल के भंवर में फंसकर भारतीय जवानों और उनकी भावना को बांधकर रखा था और कारगिल युद्ध से सबक लेते हुए पाकिस्तान ने युद्ध लड़ने की नई अवधारणा (एन.सी.डब्ल्यू.एफ.) सिद्धांत को अंगीकार किया है। किंतु एक अकाट्य सत्य तो यह भी है कि वर्तमान समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत वाली भाजपा नीत राजग सरकार ने राष्ट्रहित, राष्ट्रीय सुरक्षा और संप्रभुता को लेकर वह अमिट लकीरें खींच दी है, जिसके उल्लंघन पर न केवल उचित जवाब दिया जाएगा, साथ ही आवश्यकता पड़ने पर दुश्मन की मांद पर घुसकर उसे वांछित उत्तर देने से भी गुरेज नहीं किया जाएगा। पिछले पांच वर्षों के भीतर, कश्मीर में आतंकियों के खिलाफ ऑपरेशन ऑलआउट के साथ बालाकोट में एयरस्ट्राइक और गुलाम कश्मीर में सर्जिकल स्ट्राइक- इसका मूर्त रूप है।

स्वाभाविक रूप से पूरी दुनिया के साथ-साथ पाकिस्तान और उसके अधिष्ठान को भी नए भारत का ज्ञात हो गया है कि यदि दूसरे कारगिल का दुस्साहस हुआ, तो आर्थिक तंगी से बदहाल पाकिस्तान के लिए एक सीमित युद्ध का परिणाम भी 1947, 1965, 1971 और 1999 से कहीं अधिक घातक और भयावह होगा।

(साई फीचर्स)