नजीर पेश करता ट्यूनीशिया

 

अरब दुनिया में एक ही शख्स लंबी अवधि तक शासन करता रहा है, ऐसे में चुनाव के पश्चात सत्ता के शांतिपूर्ण हस्तांतरण को नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए। बीते गुरुवार को ट्यूनीशिया के पहले निर्वाचित राष्ट्रपति बजी सी एसेब्सी की मौत हो गई। ठीक उसी दिन एक लोकतांत्रिक संविधान के मुताबिक विधायिका के प्रमुख ने कार्यकारी सदर के तौर पर कार्यभार संभाल लिया। नए सदर के इंतिखाब की प्रक्रिया पहले ही शुरू हो चुकी है। कहीं कोई प्रदर्शन नहीं, कोई गोलीबारी नहीं और न ही कोई फौजी तख्तापलट। ट्यूनीशिया ने अन्य अरब देशों के सामने एक और नजीर पेश की है कि कैसे व्यक्ति आधारित शासन या फौजी हुकूमत से बचा जाता है। साल 2011 की अरब क्रांति के बाद यह अकेला मध्य-पूर्वी देश है, जिसने एक तानाशाह को सत्ता से बेदखल कर निष्पक्ष चुनाव और वास्तविक आजादी की राह पकड़ी।

हालांकि किसी भी लोकतंत्र के लिए आठ साल एक छोटी अवधि ही है, मगर ट्यूनीशिया ने शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरित करके एक बड़ी परीक्षा में कामयाबी हासिल की है। इसके मुकाबले जरा सीरिया, लीबिया और यमन पर नजर डाल देखिए। ये गृह युद्ध में फंसे हुए हैं, जबकि मिस्र फौजी शासन की ओर लौट गया है। अनेक देशों में अब भी राजशाही कायम है, तो अल्जीरिया और सूडान तानाशाही सत्ता के दबाव में है। हां, ईरान के मजबूत प्रभाव के बावजूद इराक भी शांतिपूर्ण सत्ता परिवर्तन का दावा कर सकता है।

साल 2014 में नए संविधान के लागू होने के बाद ट्यूनीशिया में एक के बाद दूसरे प्रधानमंत्री हुए, हालांकि राष्ट्रपति एसेब्सी एक केंद्रीय शख्सियत बने रहे। बहरहाल, अरब क्रांति का उद्गम स्थल रहे इस देश को आने वाले वर्षों में कुछ और परीक्षाएं देनी पड़ सकती हैं। आने वाला राष्ट्रपति चुनाव वह कैसे कराता है, इस पर सबकी निगाह होगी। इस्लामी कट्टरपंथी लड़ाके अब भी हिंसा की धमकियां दे रहे हैं। यही नहीं, मुल्क की माली हालत भी 2011 के बाद बेहतर नहीं हुई है, जिससे लोकतंत्र की लोकप्रियता कम हो रही है। फिर भी, इसने निर्वाचित सरकार को कायम रखने की कई आधारशिलाएं रखी हैं। (द क्रिश्चियन साइंस मॉनिटर, अमेरिका से साभार)

(साई फीचर्स)