बंजारों को गले लगाएं और सीखें वॉटर मैनेजमेंट

 

 

(अश्वनी शर्मा)

हाल ही राजस्थान के नागौर जिला स्थित ताऊसर गांव में बंजारा समाज की बस्ती को ढहा दिया गया। यह बस्ती गोचर भूमि पर बनी हुई थी। बड़े स्तर पर हिंसा हुई जिसमें दो लोग मारे गए। मुद्दे को बढ़ते देख मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बंजारों के पुनर्वास की घोषणा कर दी और कहा कि ये अवैध कब्जे हाईकोर्ट के आदेश से हटाए गए हैं। न तो राजस्थान में यह इस तरह की कोई पहली घटना है न ही अन्य राज्य बंजारा समुदायों पर होने वाली ऐसी ज्यादतियों से अपरिचित हैं। मगर फिलहाल नागौर की घटना की ही बात करें तो यह पूछा जाना चाहिए कि जिस गोचर भूमि को लेकर उच्च न्यायपालिका ने आदेश जारी किया उससे इन समाजों का क्या संबंध है? आखिर क्यों ये उसी भूमि पर जाकर बसे नजर आते हैं? दरअसल, इन समाजों के लिए यह जमीन का एक टुकड़ा भर नहीं है। यह इनके जीवन का आधार रहा है। यहीं पर घूमंतू समाजों के डेरे पड़ते, यहीं इनके मवेशी- भेड़, बकरी, ऊंट और गाय-बैल चरा करते। इसी भूमि पर इनके खेल-तमाशे होते। यही भूमि इन समुदायों के साथ मुख्य समाज की जुगलबंदी का आधार हुआ करती थी।

साल भर घूमते रहने वाले ये समाज कृषि और व्यापारिक गतिविधियों से लेकर मौखिक इतिहास की परंपराओं और कला-संस्कृति के विभिन्न पक्षों तक को व्यापकता प्रदान करते रहे हैं। इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाना इन्हीं का काम रहा है। ये बंजारे ही हैं जिन्होंने हिंदुस्तान भर में बावड़ियां, तालाब, जोहड़ बनाए। उनकी महिलाओं ने हमें गोदना (टैटू) करना और कशीदा करना सिखाया। कालबेलिया समाज ने विभिन्न बीमारियों के इलाज की औषधियां, सांप के जहर के लिए जड़ी-बूटी बनाईं। गांवों में आटा पीसने की पत्थर की घट्टी पहुंचाई। कुचबंदा ने अपने हाथों से और बागरी ने अपने रेवड़ (बकरी, भेड़) से मिट्टी का प्रबंधन किया। नट और भोपा ने कला, मनोरंजन के साथ समाज सुधार का जिम्मा उठाया तो गवारीन ने ग्रामीण समाज की महिलाओं की जरूरतों को पूरा किया। जागा ने पीढ़ियों का रिकॉर्ड रखा तो कठपुतली भाट ने अपने खेल के जरिये इतिहास का वर्णन किया। ओढ़ समाज मिट्टी को समतल करता तो बावरिया फसलों की रखवाली करता। गाड़िया लुहार ने कृषि के औजार बनाए तो सिंगीवाल जंगल से जड़ी बूटी लेकर आया।

लेकिन जैसे-जैसे हमारा सामाजिक आर्थिक ढांचा बदला और मशीनीकरण का दौर शुरू हुआ वह जुगलबंदी टूटती गई। मनोरंजन के नए साधन आ गए। अब हमारी जरूरतें अन्य माध्यमों से पूरी होने लगी। इनके पारंपरिक रोजगार निरर्थक होते गए और इन समाजों का जीवन ठहर गया। आज ये समाज मुफलिसी का जीवन जी रहे हैं। किसी राज्य में इनको ओबीसी तो कहीं एससी वर्ग में रखा जाता है। न जमीन का पट्टा इनके नाम है, न ही इन्हें किसी स्कीम का फायदा मिलता है। सरकारें आयोग, बोर्ड वगैरह बनाती हैं। उनमें ऐसे सदस्य नियुक्त करती हैं जिनका घुमंतू समाज से कोई वास्ता नहीं। आजादी के इतने वर्ष बीतने के बाद हमें यह तक नहीं पता कि इन समाजों की जनसंख्या कितनी है।

यह स्थिति तब है जब इन घुमंतू समाजों के पास प्रतिभा का भंडार है। नट बच्चे बचपन से ही रस्सी पर चलने लग जाते हैं, भोपा बच्चे गजब के कलाकार होते हैं। बिंजारी से बेहतर गोदना और काशीदाकारी कोई नहीं कर सकता। बंजारे के पानी प्रबंधन के ज्ञान का उपयोग किया जा सकता है। कालबेलिया को एंटी वेनॉम बनाने वाली ड्रग फार्मा कंपनी में लगा सकते हैं। सिंगीवाल से जड़ी बूटी के ज्ञान को सीखा जा सकता है। बागरी और कुचबंदा से मिट्टी के प्रबंधन का काम लिया जा सकता है। बहरूपिया और कठपुतली भाट को सामाजिक सद्भािव बढ़ाने तथा सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों को अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाने के काम में लगाया जा सकता है। यदि हम उनसे संबंधित काम के जरिए ही उन्हें रोजगार दे पाए तो उनकी समस्या का तो समाधान होगा ही वे ज्ञान परंपराएं भी बचेंगी जिनकी कीमत हम सिर्फ इसलिए नहीं आंक पा रहे क्योंकि उनसे पूरी तरह अनजान हैं।

(साई फीचर्स)

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