दिल्ली को मिले उसका सही नाम

 

 

(विजय गोयल)

लोग कहते हैं कि नाम में क्या रखा है! जी नहीं, नाम से भी बहुत कुछ फर्क पड़ता है। यह व्यक्ति या शहर का इतिहास बताता है। भारत में शहरों के नाम को ठीक से बदले जाने का काम 1947 के बाद से आरंभ हुआ, जब ब्रिटिश राज खत्म हुआ। ये सभी बदलाव केंद्र सरकार करती है। संसद के मॉनसून सत्र में मैंने दिल्ली के नाम का मुद्दा उठाया था कि दिल्ली को हिंदी में दिल्ली कहते हैं तो अंग्रेजी में डेल्ही क्यों कहते और लिखते हैं? इस पर जबर्दस्त बहस छिड़ गई। जो लोग अपने खुद के नाम को गलत लिखा हुआ या गलत तरीके से बोला हुआ सहन नहीं कर सकते, वे शहर के नाम को ठीक करने पर खर्च की दुहाई देने लगे।

दिल्ली का नाम दिल्ली कैसे पड़ा, इसके बारे में अलग-अलग मान्यताएं और किंवदंतियां प्रचलित हैं। इन्हें जानने के लिए हमें कई सदियों का इतिहास जानना होगा। जैसे कहा जाता है कि ईसा पूर्व 50 में दिल्ली पर एक राजा धिल्लु राज करते थे, जिन्हें दिलु भी कहा जाता था। उनके नाम का अपभ्रंश दिल्ली हुआ और उनके नाम पर शहर का नाम पड़ गया। एक अन्य राय है कि तोमर वंश के राज में जो सिक्के प्रचलित थे, उन्हें देहलीवाल कहा करते थे, इसी से दिल्ली का नाम पड़ा, वहीं कुछ लोगों का मानना है कि इस शहर को हिंदुस्तान की दहलीज माना जाता था, क्योंकि गंगा की शुरुआत यहां से होती है। दहलीज से दिल्ली हो गया।

वैसे इस बारे में सबसे प्रसिद्ध कहानी यह है कि राजा दिलु के सिंहासन के आगे एक कील ठोंकी गई और ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की कि जब तक यह कील है, तब तक राज्य में खुशहाली रहेगी और साम्राज्य कायम रहेगा। कील छोटी थी, इसलिए राजा दिलु ने कील उखड़वा दी। दोबारा यह कील गाड़ी गई, पर मजबूती से नहीं धंसी और ढीली रह गई। तब से कहावत बनी कि किल्ली तो ढिल्ली रह गई और किल्ली, ढिल्ली, दिलु मिलाकर दिल्ली बन गया। महाराज पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि चंदरबरदाई की रचना पृथ्वीराज रासो में तोमर राज अनंगपाल को दिल्ली का संस्थापक बताया गया है। दिल्ली या दिल्लिका शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम उदयपुर में प्राप्त शिलालेखों पर पाया गया।

सच बात तो यह है कि भारत की राजधानी जिस दिल्ली को आप और हम जानते हैं, उसका इतिहास इतना पुराना है कि उसका नाम किस कारण से पड़ा, कोई नहीं जानता। कहीं न कहीं इसकी असली कहानी गुम हो गई है। कुछ भी कहिए दिल्ली आज दिल वालों की दिल्ली कही जाती है, कम से कम इसका नाम तो सही तरीके से लिया जाना चाहिए। हिंदी में दिल्ली तो अंग्रेजी में डेल्ही क्यों? पर ब्रिटिश इसको ऐसे ही लिखते और बोलते रहे हैं। गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिंग ने यह माना था कि दिल्ली को गलत लिखा जा रहा है और गलत ही बोला जा रहा है। आज 2019 में भी हम, ब्रिटिश राज में जो बोला जाता था, उसी के साथ अपने आपको जोड़े बैठे हैं।

संसद में जब मैंने यह मुद्दा उठाया तो सोशल मीडिया पर इसे लेकर बाढ़ आ गई। ज्यादातर लोगों ने इसका स्वागत किया, पर कई लोग इसके पक्ष में नहीं हैं, जैसे इतिहासकार इरफान हबीब या स्वप्ना लिडल या सोहेल हाशमी। उन सबका सिर्फ एक यही तर्क है कि नाम से क्या फर्क पड़ता है। नाम में क्या रखा है। नाम की बात उनको तब तो समझ आती है, जब उनके अपने नाम को गलत लिखा और बोला जाता है। व्यक्ति का नाम जब गलत तरीके से या तोड़-मरोड़ कर लिया जाता है तो तपाक से हर व्यक्ति उसे ठीक करने के लिए कहता है, मगर यह शहर जो खुद कुछ बोल नहीं सकता, उसके लिए हम बड़ी आसानी से यह तर्क देते हैं कि जैसा चल रहा है, वैसा चलने दो।

ऐसा नहीं है कि पहली बार हम शहरों के नाम को बदल रहे हों या ठीक कर रहे हों या उनकी स्पेलिंग दुरुस्त कर रहे हों। दिल्ली बिल्कुल वैसे ही गलत बोला जाता है, जैसे कानपुर, बेंगलुरू, कोलकाता, कानुपर और जालंधर बोले जाते थे। दरअसल जिसे आज आप-हम और दुनिया न्यू डेल्ही के नाम से जानती है, उसकी नींव तब पड़ी जब ब्रिटिश साम्राज्य ने भारत में अपनी राजधानी के लिए दिल्ली को चुना। उस समय दिल्ली के लिए कई नामों पर विचार किया गया। वे नाम थे इंपीरियल डेल्ही, रायसीना और डेल्ही साऊथ।

इतिहासकार स्वप्ना लिडल ने भी अपनी किताब कनॉट प्लेस एंड मेकिंग ऑफ न्यू दिल्ली में लिखा है कि 1913 में लॉर्ड हार्डिंग के पास कई पत्र आए, जिनमें दिल्ली के नामों को लेकर कई सुझाव थे। उनमें एक अंग्रेज जिसने कई वर्ष भारत में काम किया था कहा कि ब्रिटिश ज्यादातर डेल्ही बोला करते हैं जो गलत है। असली नाम दिल्ली या देहली है। जो भी फाइनल नाम हो, पर शहर को एक नाम से ही बुलाया जाना चाहिए। फिर लॉर्ड हार्डिंग ने कहा कि चूंकि ब्रिटिश इसे काफी समय से बोल रहे हैं, इसलिए दोनों नाम चलने दो। बहरहाल अब कम से कम अंग्रेजों के दिए गलत नामों से तो मुक्ति मिलनी चाहिए और दिल्ली को एक ही तरह से लिखा जाना चाहिए। बॉम्बे का मुंबई हो गया, मद्रास का चेन्नै हो गया। तब भी क्या खर्च की बात उठी थी? दिक्कत यह है कि कई भारतीय उनके इतिहास से भी जुड़े रहना चाहते हैं और उनके चिह्नों को भी धारण करना चाहते हैं, जिन्होंने हमारे देश पर आक्रमण किया या हमें गुलाम बनाया। यह वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है। अगर साम्राज्यवाद की स्मृति से पूर्णतः मुक्त होना है तो दिल्ली के नाम पर पुनर्विचार करना चाहिए। (लेखक राज्यसभा सांसद हैं.)

(साई फीचर्स)