(श्रुति व्यास)
हवा में ठंडक-सी होने लगी है। दिन छोटे हो रहे हैं। दोपहर भी बर्दाश्त हो जाती है और हवा में त्योहार, उत्सव का माहौल बनने लगा है। बावजूद लग रहा है कुछ तो ठीक नहीं! कुछ अच्छा नहीं लगने का एहसास लगभग वैसा ही है जैसा मुझे विदेश रहते हुए हुआ था। वहा दीवाली रोजमर्रा के कामकाजी दिन की तरह आती-जाती थी। वहां (स्कॉटलैंड) सर्दियों के छोटे, बेजान दिनों से उदास और निराश बनाने वाले माहौल में अक्टूबर-नवंबर के महीने में दीपावली का वक्त आता था तो मन ही मन कुछ अच्छा नहीं लगने वाला परिदृश्य बनता था। तब याद आती थी स्वदेश में त्योहार से महीने पहले वाली यादें। दिमाग में घूमा करती थी यादें। मतलब दिवाली का कौतुक और उसकी तैयारियां, घर की साफ-सफाई और कपड़े, सजावट आदि की छोटी-बड़ी चीजों की खरीददारी। कार्ड-मिठाई बनाना और बनवाना और फिर पटाखें! तब दिमाग में पुरानी यादें उमड़तीं हैं तो लगता था अपने परिवेश, अपने घर, अपने अंदाज में त्योहार का मजा ही कुछ और है, उसकी खुशी ही कुछ और है!
दीपावली हमारे लिए ठीक वैसा ही त्योहार है जैसा पश्चिम के लिए क्रिसमस होता है। यह साल का ऐसा समय होता है जब हम खरीद पर अच्छा-खासा खर्च करते हैं। यह पर्व साल की एक ऐसी रस्म-सी बन गई जब साल की सारी बचत अच्छे काम और खरीद पर खर्च होती है। अमीर से लेकर गरीब, मध्यमवर्ग तक के लोग, बच्चों-नौजवानों से लेकर बड़े-बूढ़े तक सब दीपावली की खरीद में लग जाते हैं और दिल खोल कर खर्च करते हैं। नवरात्रों से लेकर दीपावली तक लोगों में वह गजब का उत्साह बना रहता जिससे खुशी, संतोष झलकता है तो बाजार में जोश भी देखते ही बनता है। कुल मिलाकर हमारे लिए यह त्योहार एक आनंद देने वाला, फूलझडियों से खुशी झलकाने वाला मौका बनता था।
लेकिन जैसे-जैसे साल गुजर रहे हैं, इस आनंद से लेकर हर चीज में यानी दीवाली मनाने के मूड में भी बदलाव आता जा रहा है। त्योहार मनाने के परंपरागत तरीकों पर तकनीक हावी हो चुकी है। एक तरह से त्योहार तकनीक की जकड़ में आ चुके हैं। मिल जुल कर घर की साफ-सफाई करने का मजा तो खत्म ही हो गया है, अब तो इसकी जगह सफाई का काम कराने वाली अरबन क्लैप जैसी एजेंसियों ने ले ली है। अमेजन और फ्लिपकार्ट जैसी ऑनलाइन कंपनियां ने बाहर निकल कर मोलभाव करके खरीद करने का मजा चौपट कर डाला है। इलैक्ट्रॉनिक सामान से लेकर फर्नीचर तक इन ऑनलाइन कंपनियों की मेगा सेल पर भारी छूट के साथ मिल जाते है।
भला तब ऐसे में बाजार घूमते हुए खरीदारी का मजा कैसे मिलेगा? और जब बात पटाखे फोड़ने की आती है तो इसका मजा तो अब रहा ही नहीं। पर्यावरणविदों ने अपने पाखंड से यह कूट-कूट कर दिमाग में भर डाला है कि इस एक दिन पटाखे फोड़ने से जितना प्रदूषण होता है उतना साल भर में कुल मिलाकर वाहनों और कारखानों के धुएं और कचरे से नहीं होता!
ऊपर से फिर नोटबंदी! नोटबंदी ने त्योहार की खुशी को सोख करके हालात सबसे ज्यादा खराब बनाए है। पिछले तीन साल में लोगों ने खरीद तो एक तरह से बंद ही कर दी है। लोग कंजूस हो गए हैं या कड़के हो गए है और सबका जोर बचत पर ज्यादा है। बाजारों में जान नहीं रह गई है, घरों की चमक फीकी पड़ती नजर आ रही है तो देश की विकास दर का दीया भी चिंता में डाले हुए है।
हालांकि इस सबके बावजूद इस साल दीवाली अलग और बहुत खास जोश से मनानी चाहिए। कुछ भी हो देश के खाते में यह महसूस किया जा रहा है कि कश्मीर को पुरानी गलतियों से मुक्ति मिल गई है। लोगों का राम मंदिर का सपना पूरा होता लग रहा है। इसका फैसला करीब ही है तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी लोगों को गौरव के साथ इस दीपावली को वैसे मनाना चाहिए जैसे पहले कभी नहीं मनी। क्या अगली दीवाली खास, जीवंत, खुशियों से लबालब नहीं होनी चाहिए? पर ऐसा है नहीं। ऐसा होगा नहीं!
उलटा होता दिख रहा है। लोगों की खरीद शक्ति के तेजी से गिरते जाने से उपभोक्ता बाजार में एक तरह का अंधेरा-सा छाया हुआ है। कारों की बिक्री में तो इस साल तीस फीसद से ज्यादा की गिरावट आ गई है। इतनी गिरावट पिछले 19 साल में कभी नहीं देखी गई थी। कभी चकाचौंध से दिखने वाले कार शोरूम आज ग्राहकों के इंतजार में खाली पड़े हैं। पांच सौ ज्यादा डीलरों को मंदी की वजह से अपने शोरूम बंद करने को मजबूर होना पड़ा है। दिल्ली के कोटला मुबारकपुर से लेकर पॉश इलाके ग्रेटर कैलाश तक के बाजार हों, या करोल बाग से कीर्ति नगर तक के बाजार, सब जगह सन्नाटा ही पसरा हुआ है। खरीदारों की कोई भीड़ नहीं दिख रही। दुकानदार ग्राहकों के इंतजार में बैठे दिखेंगे।
ग्राहक भी आज सिर्फ वही है जिसे बहुत ही कुछ जरूरी और मजबूरी में खरीदना हो। डिफेंस कॉलोनी के एक शोरूम मालिक ने कहा- पिछले तीन साल (नोटबंदी और जीएसटी लागू होने के बाद) से बिक्री में भारी गिरावट बनी हुई है।
एक हार्डवेअर की दुकान वाले ने बताया कि नए ग्राहक तो मुश्किल से ही आ रहे हैं, और सिर्फ वही आ रहे हैं जिन्हें मजबूरी में खरीदारी करनी पड़ रही है। इसी तरह महिलाओं के कपड़ों और घरेलू सामान के लिए मशहूर शंकर मार्केट में भी आज ग्राहकों की भीड़ नहीं मिलेगी जो पहले दिखा करती थी। यहां पहले त्योहारी सीजन में पैर रखने तक की जगह नहीं होती थी। आज इस बाजार में इक्का-दुक्का महिलाएं ही दिख रही हैं और दुकानदार इस प्रतीक्षा में टकटकी लगाए बैठे हैं कि कब लक्ष्मीजी उनकी दुकान में आएं।
यहां तक कि हमारे घर के पास बिजली की दुकान वाला जिसे इस सीजन में कारोबार तेज होने की उम्मीद बनी रहती है, वह भी निराश है। हालांकि उसे उम्मीद है कि दीपावली के दो-तीन पहले लोग घरों को सजाने के लिए लाइटें खरीदने के लिए निकलेंगे जरूर। लेकिन कैसा घर? रीयल एस्टेट बाजार का तो पहले से ही भट्ठा बैठा पड़ा है। एक वक्त था जब इन दिनों नए घरों की खरीद के सौदे होते थे, गृह प्रवेश करने वालों की भीड़, घरों में हवन होते दिखते थे। लेकिन आज वही घर खरीद रहा है जिसे बहुत ही मजबूरी है।
ऐसे में दिवाली पूर्व उभरती विकासशील अर्थव्यवस्था की तस्वीर में न तो कुछ विकसित हुआ नजर आ रहा है और न कुछ उभरता दिख रहा है। हम एक ऐसे दौर में प्रवेश कर चुके हैं जिसमें हर कोई अपनी मुट्ठी खोलने से बच रहा है। कोई खर्चा नहीं करना चाह रहा। लोगों का खरीदारी का जो मूड हुआ करता था, वह अब गायब है। लोग या तो बहुत ही संभल कर खर्च कर रहे हैं, या फिर करने से बच रहे हैं। दीवाली जैसे पर्व पर भी बैंक खाते से पैसे निकालने से पहले लोग सौ बार सोच रहे हैं। लक्ष्मीजी की चंचलता खत्म हो गई है।
सोचे जाने वाली बात है कि नए भारत के लिए इन सब बातों का क्या कोई मतलब है? बहुत मतलब है और वह त्रासद है। सबसे पहली बात तो यह कि हमारी परंपराएं तेजी से बदली रही हैं। ऑनलाइन खरीद के ठिकानों जैसे अमेजन, फ्लिपकार्ट पर निर्भरता बढ़ी है। इसका असर यह हुआ कि परिवार के लोग साथ बाजार नहीं जाते और खरीद नहीं करते। इस तरह बाहर निकल कर खरीद का मजा ही खत्म हो गया है। दूसरी बात यह कि खर्च करने की क्षमता में भारी गिरावट आई है। सतर्क होकर खरीदने की प्रवृत्ति या नहीं खरीदने की प्रवृत्ति लोगों में घर कर गई है। इसने आर्थिक चक्र को नुकसान पहुंचाया है। इससे अर्थव्यवस्था की वृद्धि प्रभावित होती है और विकास पर असर पड़ता है। सरकार आपूर्ति बढ़ाने के लिए तो हाथ-पैर मारती दिख रही है, लेकिन बाजार में मांग पैदा करने के लिए कुछ नहीं किया जा रहा। यह चिंता का विषय है।
पूरा चक्र गडबडा गया है। तभी बिना मांग के आपूर्ति बढ़ाना बेकार है। मांग तब बढ़ेगी जब लोगों के पास रोजगार होगा, उन्हें अच्छा पैसा मिलेगा और उससे खरीद क्षमता बनेगी। लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था का यह चक्र गड़बड़ा गया है और इससे एक निराशाजनक माहौल बना है और वह दीपावली के त्योहारी सीजन को भी प्रभावित किए हुए है।
ऐसे में अपने से तो मैं कोई मदद कर नहीं सकती, लेकिन एक बार फिर मैं पुराने दौर में लौट जाती हूं। वह वक्त सभी के लिए यादगार है जब त्योहार रूटिन नहीं होते थे। खुशियां हुआ करती थीं, उम्मीदें हुआ करती थीं। दीपावली मन में उत्साह पैदा करता था, खुशियां लाता था। लेकिन अब सोचना पड रहा है कि दिवाली अब रोजाना जैसा एक दिन ही तो बन कर रह गया है, जिसे बस मनाना है, दिखाने की लाईटे लगानी है। उससे रोशनी तो होगी लेकिन मन का, खुशी का उजाला कहां?
(साई फीचर्स)

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