महाराष्ट्र का महानाटक

 

 

 

 

(प्रकाश भटनागर)

महाराष्ट्र में जो कुछ भी हो रहा है, उसके लिए सत्ता पिपासा कहना भी इन घटनाक्रम की सटीक इबारत नहीं कहा जा सकता। एक सप्ताह से अधिक हो गया, जब इस राज्य में लोकतंत्र को घड़ी के पेंडलुम और जनमत को महाभारत के शिखंडी में तब्दील करके रख दिया गया है। शिवसेना फिफ्टी-फिफ्टी वाले उस तथाकथित वादे की बात कर रही है, जो भाजपा के मुताबिक कभी किया ही नहीं गया था। उधेड़बुन से भरे माहौल का एक गौरतलब पक्ष कि उद्धव ठाकरे उस संयम से बहुत दूर हो गये हैं, जिसका परिचय वे इससे पहले कई मौकों पर देते चले आये हैं। गनीमत है कि राज ठाकरे की पार्टी को मतदाता ने किसी भी लायक नहीं समझा

वरना तो अब तक कई आॅटो और खोमचे वाले भाजपाई होने की तोहमत के नाम पर वहां की सड़कों पर पीट डाले गये होते। उद्धव पुत्र मोह में व्याकुल हैं। वह यह गलती कर रहे हैं। आदित्य ठाकरे के सियासी जनाधार की उनके पिता को निर्मम एवं पूर्णत: तटस्थ समीक्षा करना चाहिए। पिता को साफ पता चल जाएगा कि शिवसेना को मिली जिन सीटों के चलते आदित्य को मुख्यमंत्री बनाने की मांग की जा रही है, उनके पीछे मातोश्री के इस आगामी वारिस का बहुत न्यून योगदान है। आदित्य और राहुल गांधी के सियासी अभ्युदय में कई समानताएं हैं। दोनों ही परिवार विशेष के चलते अपने-अपने दलों में पैराशूट से उतरकर आगे तक चले गये। दोनों के ही भीतर संगठनात्मक क्षमता का अभाव है।

क्योंकि उन्हें जमीनी स्तर के काम तथा संघर्ष का कोई अनुभव नहीं है। ऐसे में उद्धव को कहीं न कहीं यह सोचना होगा कि जो गलती कांग्रेस ने राहुल के महज गांधी होने के आत्मविश्वास में कर दी, वही गलती कहीं शिवसेना आदित्य के ठाकरे होने की की वजह मात्र से न कर गुजरे। शरद पवार की दूरंदेशी जगजाहिर है। इसलिए यह पहले से ही स्पष्ट था कि वह शिवसेना के साथ हाथ मिलाना शायद ही पसंद करें। हालांकि कहा जा रहा है कि राज्य के कई कांग्रेसी विधायक सेना से मिलकर सरकार बनाने के लिए उतावले हुए जा रहे हैं। भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस शायद ऐसा कर भी देती, किंतु राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की नाराजगी मोल लेने का खतरा वह भी नहीं उठाना चाहेगी।

क्योंकि इस समय बनने-बिगड़ने वाला एक-एक समीकरण सन 2024 के विपक्ष के उस बहुत बड़े मिशन को प्रभावित करेगा, जिसके तहत मोदी सरकार की हैट्रिक को रोकने का हरसंभव जतन अभी से शुरू कर दिया गया है। भाजपा की अकुलाहट स्वाभाविक है। उसे सामने रखी थाली छिनने का खतरा दिख रहा है। यदि पार्टी की प्रदेश इकाई का कोई वरिष्ठ नेता वहां राष्ट्रपति शासन लगने की संभावना जताता है तो हालिया संदर्भ में इसे धमकी की उपमा बेहिचक दी जा सकती है। तो फिर भाजपा को क्या करना चाहिए। इसके कयास का अपना-अपना स्तर है। मसलन, भाजपा के विरोधी इस दल के झुकने की संभावना को बसंती के नाचने से जोड़ रहे हैं।

इस दल के समर्थक भविष्य की कल्पना को बसंती! इन के आगे मत नाचनाके तौर पर रेखांकित कर रहे हैं। लेकिन जिस भाजपा के चाल-चरित्र को सालों-साल से देखा है, उस भाजपा की जानिब से यही सलाह उचित होगी कि भाजपा किसी भी सूरत में शिवसेना के सामने न झुके। हरेक राजनीतिक दल को यह समझना होगा कि महाराष्ट्र में सत्ता के लिए होने वाला संभावित कोई भी गठबंधन अंतत: उस महागठबंधन जैसे हश्र का शिकार होगा, जो बिहार के बीते विधानसभा तथा लोकसभा चुनाव में हुआ था। अब बसंती नाचे या गाये, यह उसकी मर्जी। हां, उसे यह तय करना होगा कि लोकतंत्र के मर्सिया पर वह किस तरह कदमों से ताल दे सकेगी और क्या करके इस शोक गीत को खिलखिलाहट के साथ गा सकेगी। और क्या शिवसेना भी केन्द्र सरकार और मुंबई महानगर पालिका से बाहर होने के लिए मानसिक रूप से तैयार है? अभी महाराष्ट्र नाटक के कई दृश्य बाकी हैं।

(साई फीचर्स)

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