आर्थिक मंदी से पूरी तरह बेखबर दिख रहे हुक्मरान!

 

 

(लिमटी खरे)

देश इस समय आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहा है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। विपक्ष के द्वारा बोथरी तलवारों से किए जा रहे प्रहारों का हुक्मरानों पर कोई अंतर नहीं पड़ रहा है। सरकारों के द्वारा आर्थिक मंदी को सिरे से नकारते हुए अपने अपने हिसाब से माकूल लगने वाली व्याख्याओं से लोगों को संतुष्ट करने का असफल प्रयास किया जा रहा है, जबकि जमीनी हकीकत कुछ और बयां कर रही है। देश में जीडीपी की बढ़ौत्तरी दर में जिस तरह से कमी दर्ज की जा रही है वह चिंता का विषय माना जा सकता है। चूंकि भारत में उत्पादों का बड़ा बाजार देश में ही मौजूद है इसलिए द्रव राशि अर्थात लिक्विड मनी बाजार में दिखाई तो पड़ रही है पर यह पहले की तुलना में काफी कम ही प्रतीत हो रही है।

यह सच है कि परिस्थितियां कभी भी एक सी नहीं रहती हैं। परिस्थितियां लगातार ही बदलती रहती हैं। देश के वर्तमान हालातों पर केंद्र सरकार की वित्त मंत्री सहित अन्य प्रबंधक इस बात पर जोर देते नजर आ रहे हैं कि वर्तमान हालात बहुत ज्यादा देर तक चलने वाले नहीं हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण इस बात को कहती नजर आ रहीं हैं कि देश में अर्थ व्यवस्था का ढांचा पूरी तरह पटरी पर है इस विषय में चिंता करने की जरूरत नहीं है।

हो सकता है सरकार के प्रबंधकों के द्वारा अंबानी अड़ानी जैसे बड़े निवेशकों के द्वारा किए जा रहे निवेशों को आधार बनाकर देश की अर्थव्यवथा को चाक चौबंद होने की बात कही जा रही हो। अंबानी समूह देश में दस लाख करोड़ की बाजार में लगी पूंजी के आधार पर सबसे बड़ी कंपनी बन चुकी हो पर सरकार को यह विचार करना होगा कि आखिर क्या वजह है कि उसे केंद्र के स्वामित्व वाली नवरत्न कंपनियों को बेचने पर मजबूर होना पड़ रहा है, जाहिर है सब कुछ ठीक ठाक तो कतई नहीं है।

देश की विकास की गति में मंदी वास्तव में चिंता का विषय मानी जा सकती है। हाल ही में जारी आंकड़ों पर अगर गौर फरमाया जाए तो जुलाई से सितंबर की तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद अर्थात जीडीपी की बढ़ोत्तरी दर महज 4.5 फीसदी ही दर्ज की गई है। देश में उद्योग, खेती किसानी और सेवाओं को मूल घटक मानकर इनके उत्पादन बढ़ने या घटने के आधार पर जीडीपी की दर तय होती है।

देश के आर्थिक हालातों पर अगर नजर डाली जाए तो देश में वस्तुओं के निर्माण वाले उद्योग की हालत बहुत ही पतली नजर आ रही है। इसके अलावा कृषि क्षेत्र में वृद्धि दर 4.9 से नीचे उतरकर 2.1 एवं सेवाओं की दर 7.3 से घटकर 6.8 पर आकर टिक गई है। इस तरह वृद्धि दर का घटना वास्तव में चिंता का कारण माना जा सकता है।

देश के हालात बहुत ही मुश्किल हैं। बाजार बहुत ही सुस्त नजर आ रहा है। लोग रोजमर्रा की जरूरतों का सामान तो खरीद रहे हैं, पर इसमें भी बहुत ज्यादा कटौति करते हुए दिख रहे हैं। आम उपभोक्ता पैसा बचाने की जुगत में दिख रहा है। यही वजह है कि मांग कम होने से कंपनियों के उत्पादन पर भी इसका प्रभाव पड़ता दिख रहा है। अनेक कंपनियों में कास्ट कटिंग जैसे वित्तीय अनुशासन लागू हो चुके हैं।

केंद्र में भाजपा नीत सरकारों के प्रबंधक इस बात से अनजान ही दिख रहे हैं कि देश में आर्थिक मंदी और रोजगार के साधनों के अभाव का एक बड़ा कारक सियासी बियावान में चल रही अनिश्चितता भी है। देश के सियासी दलों के नीति निर्धारक भी शायद इस बात से अनजान ही दिख रहे हैं कि विकास दर कम होने, निर्यात ठण्डा होने और रोजगार के साधनों के कम होने का सियासी नुकसान क्या हो रहा है!

सियासी पण्डितों के अनुसार देश का अर्थिक संकट अब सियासी परेशानी में तब्दील होता भी दिख रहा है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, हरियाणा आदि में चुनावों के नतीजे इस संकट से प्रभावित माने जा सकते हैं। वर्तमान में टमाटर का लाल होना और प्याज का खून के आंसू रूलाना भी इसी का एक हिस्सा माना जा सकता है।

बताते हैं कि पिछले दिनों रोजमर्रा की चीजों की खरीद फरोख्त का एक आंकड़ा सरकार के सामने रखा गया था। यह आंकड़ा बहुत ही निराशाजनक था। सरकार के द्वारा इसे दबा दिया गया। इस आंकड़े में कहा गया था कि आजाद भारत में साढ़े चार दशकों में पहली बार उपभोक्ता खर्च में गिरावट दर्ज की गई थी। इसके पहले प्रति व्यक्ति औसत खर्च को 1501 रूपए माना जाता था, जो मंहगाई के बढ़ने के बाद घटकर 1446 रूपए पर जा पहुंचा था।

यह सही है कि देश में सरकारों के बनने और गिरने का असर दलाल स्ट्रीट पर महसूस किया जाता रहा है। इसके बाद भी सरकार के वित्तीय प्रबंधकों के द्वारा दलाल स्ट्रीट के मिजाज पर नजर नहीं रखना अपने आप में दुर्भाग्य से कम नहीं माना जा सकता है। देश की आर्थिक राजधानी मुंबई से हर माह मिलने वाले राजस्व में भी कमी दर्ज होती दिख रही है। ये सारी बातें इसी ओर इशारा करती दिख रही हैं कि देश में आर्थिक संकट गहरा चुका है।

देश हित में लिए एक नोटबंदी और जीएसटी जैसे फैसलों को लागू करने के बाद इनके नफे नुकसान पर न तो विचार किया गया और न ही सत्ताधारियों के द्वारा इसके लाभ और विपक्ष के द्वारा इससे होने वाली हानी को आंकड़ों के साथ जनता के सामने रखा गया। निश्चित तौर पर अगर इस तरह की कवायद सियासी दलों के द्वारा की गई होती तो आज हुक्मरानों को आर्थिक मंदी आने के पहले ही इसके उपाय करने पर मजबूर होना पड़ता।

बैंकिग सेक्टर को ही अगर देखा जाए तो इस समय बैंकिंग सेक्टर की सांसें फूलती दिख रही हैं। देश की जनता करों के बोझ से दबी है इसके बाद भी देश की सरकार की आर्थिक स्थिति का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि सरकार को भारतीय रिजर्व बैंक के आरक्षित कोष से एक लाख 76 हजार करोड़ लेने पर मजबूर होना पड़ा। इसके बाद भी देश की वित्त मंत्री अगर हालात सामान्य बता रहीं हैं तो इस तरह की स्थिति को क्या माना जाए! (लेखक समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के संपादक हैं.)

(साई फीचर्स)