नागरिकता विधेयक पर ऐसी बेचैनी

 

 

 

 

 

(प्रकाश भटनागर)

बचपन में मंदसौर की शिवना नदी पर एक रोचक मंजर कई बार देखा था। मछली पकड़ने वाले कुछ लोग पानी में एक साथ दो या तीन वंशी डालकर बैठते थे। जिसमें मछली फंसी, उसी वंशी को वे तेजी से ऊपर खींच लेते। यह सुनने में जितना आसान है, करने में उतना ही कठिन होता है। एक साथ एक से अधिक वंशियों की हलचल पर लगातार नजर रखने के लिए जिस हुनर की जरूरत होती है, उसे हम आज अमित शाह में देख सकते हैं। वह मछुआरे नहीं हैं। लेकिन सियासी तालाब से एक साथ कई मछलियों को पकड़ने की क्षमता उनमें भरपूर हैं। नागरिकता संशोधन विधेयक को ही लीजिए। नरेंद्र मोदी ने ठहरे हुए पानी में कंकड़ मारकर हलचल पैदा की और गृह मंत्री अमित शाह किनारे पर बैठ गये एक से अधिक वंशी डालकर। एक झटके में हालत खराब कर दी शिवसेना की।

जो दल कल तक घुसपैठियों और अल्पसंख्यकों पर लगातार बरसता आ रहा था, इस विधेयक ने उसके लिए सांप-छछुंदर वाली हालत पैदा कर दी है। टीवी पर उद्धव ठाकरे को देखा। उनके चेहरे से दुविधा की स्थिति साफ टपक रही थी। शिवसेना ने विधेयक का समर्थन किया लेकिन उन्होंने कहा कि विधेयक का विरोध करने वालों को देशद्रोही नहीं कहा जाना चाहिए। साफ हो गया कि इस अहम मसले पर शिवसेना ने अपने आक्रामक हिंदुत्व को लात मारकर पीछे धकेलने का जतन किया है। इसका सार्वजनिक प्रकटीकरण हो गया। गठबंधन की गांठ इस दल की साख के गले में कसती चली जा रही है। अब बात करें अरविंद केजरीवाल की। दिल्ली का चुनाव नजदीक है। केजरीवाल घोषणा-दर-घोषणा कर सफलता की हैट्रिक बनाने का जतन कर रहे हैं। यही वजह रही कि अपने स्वभाव से बिल्कुल विपरीत जाकर उन्होंने तेलंगाना में रेप के आरोपियों को ढेर कर दिए जाने का खुलकर समर्थन कर दिया।

इस विधेयक के जरिये वह बुरी तरह उलझा दिये गये हैं। दिल्ली की बहुत बड़ी आबादी भाजपा के हिंदुत्व की प्रबल समर्थक दिखती है। बीते दो विधानसभा चुनाव की बात छोड़ दें तो लोकसभा के नतीजे साफ बताते हैं कि भाजपाई रीति-नीति का इस क्षेत्र में गहरा असर है। विधानसभा चुनाव के ठीक पहले यह मुद्दा यदि देश की राजधानी के गले के नीचे उतर गया तो केजरीवाल के लिए खासी परेशानी खड़ी हो सकती है। बाहरी अल्पसंख्यकों को जिन्हें नागरिकता देने के लिए यह विधेयक लाया जा रहा है, उनमें सिख प्रमुख हैं। इसलिए 1984 के सिख विरोधी दंगों के पन्ने भी पलट दिए गए हैं। इसकी आंच मध्यप्रदेश तक है। दिल्ली के चुनाव में सिख मतदाता प्रभावशाली हैं। अगला क्रम ममता बनर्जी का है। भाजपा ने अपने हिंदुत्व के दम पर इस राज्य में वामपंथियों को तीसरे और कांग्रेस को चौथे दर्जे परपहले ही धकेल दिया है।

रही बात बनर्जी वाली तृणमूल कांग्रेस की तो यह दल साफ समझ चुका है कि भगवा दल ने अपनी इसी विचारधारा की दम पर राज्य में जनमत बढ़ा लिया है। बनर्जी इस विधेयक का खुलकर विरोध तो कर रही हैं, लेकिन वह यह भी जानती हैं कि इसके चलते वह पहले ही अल्पसंख्यक घुसपैठियों से परेशान राज्य की जनता का यकीन खो सकती हैं। इसलिए बनर्जी के लिए भी यह कुआं और खाई वाली स्थिति का सबब बन गया है। पूर्वोत्तर के कुछ हिस्सों में इस विधेयक का तीखा विरोध हो रहा है। लेकिन इस शोर-शराबे के बीच उस चुप्पी का अर्थ बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है, जो वहां की बाकी आबादी ने साध रखी है। इस आबादी का बहुत बड़ा तबका अपने-अपने इलाके में मुस्लिम आबादी के तेजी से बढ़ते असर को साफ महसूस कर रहा है।

भले ही यह वर्ग इस मसले पर सरकार का खुलकर समर्थन करता नहीं दिख रहा, किंतु यह संभवना बचकाना नहीं कही जा सकती कि मतदान के जरिये जनता का यह तबका इस कदम के लिए भाजपा को समर्थन कर गुजरे। असम में आखिर भाजपा की सरकार ऐसे ही तो नहीं आ गई। विधेयक के एक प्रावधान का निरपेक्ष मूल्यांकन समय की जरूरत बन गया है। यह उन मुस्लिम राष्ट्रों के गैर-मुस्लिमों को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान करता है, जो वहां धर्म के आधार पर प्रताड़ित किए जा रहे हैं। परेशानी के शिकारों के हक में तो एमनेस्टी इंटरनेशनल तक हमेशा से चिंता जताता रहा है। तो फिर ऐसे ही तबके के हिंदू, बौद्ध और ईसाइयों की सुरक्षा हेतु उठाये जा रहे अहम कदम का विरोध किसलिए किया जाना चाहिए? वह भी तब, जबकि देश के मुस्लिमों की सुरक्षा की दिशा में बीते छह साल में अनेक महत्वपूर्ण कदम उठाये गये हैं। बहरहाल, मामला खालिस सियासी नहीं है, ऐसा कहना गलत होगा। मोदी-शाह ने शरणार्थियों के मसले को अलग रंग देकर विरोधी दलों के बीच खासी बेचैनी पैदा कर दी है। इस कदम से घुसपैठियों की उस खेप पर रोक लगने की बहुत अधिक संभावना है, जिस खेप ने देश में कई राजनीतिक दलों के लिए थोकबंद वोट बैंक का अब तक पुख्ता इंतजाम कर रखा है।

(साई फीचर्स)