शिवराज की ये सियासत…..

 

(प्रकाश भटनागर)
अर्श सिद्दकी का एक शेर पढ़ते हुए मुझे शिवराज सिंह चौहान याद आ गए। अभी दो दिन पहले उन्होंने बेटी बचाओं को लेकर भोपाल के रोशनपुरा चौराहे पर धरना दिया था और फिर मुख्यमंत्री कमलनाथ को ज्ञापन सौंपा था। गजब बात है, जो वो तेरह साल की सरकार में खुद नहीं कर पाए, उसकी मांग या अपेक्षा कमलनाथ से कर रहे हैं। तो शेर ये था कि, ‘मैं पैरवी-ए-अहल-ए-सियासत नहीं करता, इक रास्ता इन सब से जुदा चाहिए मुझ को।मैंने पैरवी-ए-अहल-सियासत का हिन्दी में अर्थ तलाशा तो इसका मतलब था कि अपने समर्थकों की सियासत, समर्थकों से सियासत। अच्छा होता तेरह साल मध्यप्रदेश में लगातार मुख्यमंत्री बने रहने के बाद अब जब शिवराज सिंह चौहान सत्ता से हट ही गए हैं तो उन्हें दूसरों के लिए रास्ता छोड़ देना चाहिए। उनकी कोशिश थी कि उनका बेटी बचाओं आंदोलन गैर राजनीतिक रहे, लेकिन इस धरने में वे ही लोग शामिल हुए जिन्हें भाजपा के इस नेता का समर्थक माना जाता है। मुझे लगा कि शिवराज सिंह कन्फ्यूज हो रहे हैं

न तो वे नेतृत्व छोड़ना चाह रहे हैं, न वे राजनीति से दूर हो सकते हैं, न बेटी बचाओं जैसा आंदोलन से उनकी राजनीति अब आगे परवान चढ़ सकती है। यानि जुदा रास्ते की कोई गुंजाइश ही नहीं है। फिर ऐसे सामाजिक टाइप आंदोलन राजनीतिज्ञों को शोभा भी नहीं देते। और जिस पार्टी का शीर्ष नेतृत्व चौबीसों घंटे राजनीति ही ओढ़ता-बिछाता हो, वहां ऐसे आंदोलनों से शिवराज की दाल अब कहां गलने वाली। दिल बहलाने को गालिब ये ख्याल अच्छा है….टाईप राजनीति वे करते रह सकते हैं। शिवराज सिंह चौहान न अभी नेता प्रतिपक्ष हैं और ना ही भाजपा प्रदेश संगठन में उनके पास कोई दायित्व हैं। वे फिलहाल पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष की भूमिका में हैं। उन्हें पार्टी ने सदस्यता अभियान का दायित्व सौंपा था। वो पूरा हो गया है। इस समय संगठन चुनाव की प्रक्रिया चल रही है। विधानसभा चुनाव से पहले जब नंदकुमार सिंह चौहान को हटा कर प्रदेशाध्यक्ष का दायित्व जबलपुर के सांसद राकेश सिंह को दिया गया था, यह तभी साफ था कि वे शिवराज की पसंद नहीं थे। अब शिवराज तो मुख्यमंत्री नहीं रहे लेकिन राकेश सिंह अध्यक्ष हैं।

वे बने रहेंगे या हटेंगे और हटेंगे तो उनकी जगह नया कौन होगा? यह सवाल इस समय भाजपाईयों को मथ रहा है। अभी गोपाल भार्गव विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं तो जाहिर है कि कोई ब्राह्मन नेता प्रदेशाध्यक्ष के पद पर नहीं आएगा। एक जमाने में भाजपा में सब कुछ चलता था। जात-पांत पर वहां ज्यादा विचार नहीं होता था। मसलन, सुंदरलाल पटवा मुख्यमंत्री थे तो लखीराम अग्रवाल प्रदेशाध्यक्ष थे। दोनों बनिए। इसलिए भाजपा कभी ब्राह्मण-बनियों की पार्टी कहलाती भी थी। अब पार्टी का जबरदस्त विस्तार हो गया है तो उसे सारे समीकरण साधने भी आ ही गए हैं। भाजपा पिछड़े वर्ग को पिछले दो दशक से महत्व देती आ रही है तो ज्यादा संभावना इसकी है कि इसी वर्ग से कोई नेता सामने आए। अब शिवराज क्योंकि पिछड़े वर्ग से हैं इसलिए वे खुद भी पार्टी की कमान संभालने की कोशिश कर रहे हैं। इस बात में कोई शक नहीं किया जा सकता कि शिवराज सिंह चौहान जनता के नेता है। संघर्ष उनकी आदत हैं और उनकी लोकप्रियता में कोई बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है।

पर बावजूद इसके कि राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है, मुझे लगता है कि अब शिवराज सिंह चौहान मध्यप्रदेश में तो किसी पद पर नहीं आ रहे हैं। आ जाएं तो उनके लिए शुभकामनाएं। ब्राह्मन होने के कारण नरोत्तम मिश्रा या राजेन्द्र शुक्ला या प्रभात झा के नाम पर भी शायद ही विचार हो। शिवराज सिंह चौहान खुद ना भी बने, पर दखल तो उनका सौ फीसदी रहेगा। राकेश सिंह के पहले के अध्यक्ष भाजपा में शिवराज की ही पसंद से तय होते आए थे। पर तब वे मुख्यमंत्री थे। अब नहीं हैं। ऐसे में उनका दांव भूपेन्द्र सिंह पर होगा। वे ठाकुर भूपेन्द्र सिंह भी रह चुके हैं और फिर भूपेन्द्र सिंह दांगी बन कर खुद को पिछड़ा भी बता चुके हैं। राकेश सिंह और भूपेन्द्र सिंह के बीच मामा-भांजे का रिश्ता है लेकिन राकेश सिंह खुद को ठाकुर ही मानते हैं। किसी दलित या आदिवासी नेता के नाम पर सूत्र बताते हैं कि फिलहाल कोई बातचीत नहीं है। पार्टी अभी विपक्ष में हैं तो धारदार अध्यक्ष शिवराज हो ही सकते हैं। पर फिर मैं अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि ऐसा नहीं होने वाला है।

ऐसा इसलिए भी कि भाजपा कभी भी प्रदेश में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार को गिराने की कोशिश कर सकती है। ऐसे इरादे पार्टी में बरकरार हैं। मुझे नहीं लगता कि ऐसी कोई कोशिश अब शिवराज के नेतृत्व में होगी। यदि ऐसा होना होता तो शायद भाजपा नेतृत्व प्रदेश में कांगे्रस की सरकार ही नहीं बनने देता। दूसरी बात अगर भाजपा ने प्रदेश में कमलनाथ सरकार को गिरा कर सरकार बनाने की कोशिश की तो मुख्यमंत्री इस बार शायद पार्टी नहीं, बाहर से आकर सरकार को तोड़ने वाले विधायक अपनी शर्तों पर तय कर सकते हैं। इसके अलावा एक बात और है कि तमाम खूबियों और खामियों के बावजूद भी शिवराज का लंबे अरसे तक मुख्यमंत्री बने रहना शायद अब भाजपाईयों को भी उकता गया है। इसलिए ज्यादा संभावना यही है कि राकेश सिंह अपने पद पर एक बार फिर कायम हो जाएं। पिछले विधानसभा चुनाव को हारने का ठीकरा प्रदेशाध्यक्ष के तौर पर उनके माथे फोड़ना ज्यादती होगा। तब शिवराज के प्रभाव के सामने सभी बौने थे। आखिर लोकसभा में 29 में से अट्ठाईस सीट जीतने का श्रेय भी क्या कोई राकेश सिंह को देना पसंद करेगा। अगर नहीं तो फिर प्रदेशाध्यक्ष की भूमिका में आने का मौका तो उन्हें अभी ही मिला है। और इस साल उन्होंने शिवराज पर खूब पाबंदियां लगाई है। इसलिए सितम्बर में तय शिवराज का बेटी बचाओं आंदोलन का धरना दिसम्बर तक टल गया। फिलहाल इंतजार करते हैं।

(साई फीचर्स)