ये बिग हार और बिहार का चुनाव

 

(प्रकाश भटनागर)

झारखंड में रघुकुल वालों की पार्टी के रघु को पुन: वरने से मतदाता ने इनकार कर दिया। उसने खुले दिल से झारखंड मुक्ति मोर्चा को बहुमत से नवाजा। भाजपा पंजा-मुक्त भारत का सपना देखती रही। नरेंद्र मोदी और अमित शाह इसके लिए लोकतंत्र को ताश की गड्डी की तरह फेंटने के दुस्साहस से भी पीछे नहीं हटे। लेकिन एक ही साल में सियासत के नाम पर पांचवां राज्य गंवाने के बाद भाजपा की दशा निश्चित ही दयनीय नजर आ सकती है।झारखंड का नतीजा रघुवर दास नहीं, बल्कि मोदी एवं शाह की सीधी-सीधी हार है। सियासी फितरत के लिहाज से सहोदर कहे जा सकने वाले इन गुजराती बंधुओं का बहुत कुछ इस राज्य में दांव पर लगा था। मोदी की अपराजेय वाली छवि, शाह की प्रक्षेपास्त्रीय रणनीतियां, इस युगल जोड़ी का राष्ट्रवाद गान, आदि आदि। सब निरर्थक रहा। सत्ता सुंदरी के राजसूय यज्ञ में ठेठ स्थानीय स्तर की मंगल ध्वनि बजी। आदिवासियों की भारी आबादी के बीच प्रदेश स्तरीय मुद्दों की पूछपरख रही। लेकिन भाजपा इसे समझने में चूक कर गयी। उसने राग दिल्ली पर यकीन किया

प्रदेश की स्थिति को देश के मुद्दों से तौलने की कोशिश की। यह समझने का किंचित मात्र भी जतन नहीं किया रघुवर दास कितनी तेजी से वहां अलोकप्रिय हो गये हैं। दिल्ली में बैठकर मोदी-मोदी की विरुदावली सुनने में मगन मोदी-शाह ने यदि पल भर को भी अपने कान रांची से बहकर आ रहे स्वरों की ओर कर लिए होते तो शायद यह नहीं होता, जो कल हो गया। अगर भाजपा, मोदी, शाह और संघ यदि इस हार से सबक लेना चाहे तो, वे सुधार करने में सक्षम हैं। सोचना यह होगा कि एक आदिवासी बाहुल्य राज्य में अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री क्यों नहीं हो सके या फिर बाबूलाल मरांडी को भाजपा से बाहर का रास्ता क्यों देखना पड़ा। जमीनी वास्तविकताओं को दरकिनार कर आजसू और रामविलास पासवान की पार्टी से अलग होकर उसे चुनाव लड़ने का अहंकार क्यों पैदा हुआ? इस हार से फर्क नहीं पड़ता मोदी और शाह के जादू का, लेकिन उन्हें सोचना होगा कि वे बेलगाड़ी के नीचे चल रहे उस भ्रमित जीव के समान नहीं है, जिसे यह मुगालता होता है कि गाड़ी का बोझ उसके ही कंधों पर है।

एक संगठन के तौर पर तमाम बुराईयों के बाद भी भाजपा की इस बात के लिए तारीफ करना होगी कि यह किसी परिवार पर आधारित दल नहीं है और यहां एक सामान्य कार्यकर्ता आज भी नीचे से ऊपर तक आसानी से जा सकता है। मोदी, शाह से लेकर तमाम भाजपा नेता इसके उदाहरण हैं जिनकी उनसे पहले कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं है। इसलिए भाजपा के वर्तमान नेतृत्व को अपने अजेय होने के अहंकार से मुक्त होना पड़ेगा। इसलिए यह पराजय समय की जरूरत बन गयी थी। बहुत बड़ा झटका खाये बगैर मोदी तथा शाह शायद यह नहीं समझ सकेंगे कि हर चुनाव सन 2014 और 2019 का प्रतिबिम्ब नहीं होता है। पौधे की पत्तियों पर पानी डालकर वहां जमी धूल हटायी जा सकती है। प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष यही करते रहे। दिल्ली में बैठकर अपनी छवि चमकाने का कोई मौका उन्होंने नहीं छोड़ा। यह जानने का जतन ही नहीं किया कि जड़ में पानी की कमी है। जिसके चलते पौधा मुरझाने की कगार पर आ गया है।

इस गफलत का ही परिणाम है कि राज्य की जिन सीटों पर मोदी ने प्रचार किया, उनमें से भी कई सीटें भाजपा के हाथ से जाती चली गयीं। इसलिए कि मोदी ने वहां राज्य की सरकार का प्रचार किया ही नहीं। ठेठ आदिवासी जनता के बीच वे उस नागरिकता संशोधन कानून की खूबियां गिनाते रहे, जिसका इस प्रदेश की बहुसंख्यक आबादी के लिए कोई खास महत्व था ही नहीं। शाह न जाने किस मगरूरियत के शिकार रहे कि उन्होंने आजसू एवं जदयू जैसे सहयोगियों की नाराजगी को कोई तवज्जो ही प्रदान नहीं की। आदिवासियों को नेतृत्व के नाम पर जो उपेक्षा दी गयी, उसकी ओर भी मोदी-शाह की जोड़ी का ध्यान नहीं गया। तो अब उम्मीद की जाना चाहिए कि कम से कम बिहार के आने वाले चुनाव में भाजपा यह गलतियां नहीं दोहराएगी। चुनाव तो दिल्ली का भी होना है, किंतु बिहार और झारखंड के हालात में बहुत समानता है। वहां भी स्थानीय मुद्दे हावी रहते हैं। जिनके चलते बिहार के डीएनए से जंग में एनडीए बुरी तरह पराजित हो गया था। सहयोगी दल जदयू बिहार में भी भाजपा से बहुत खुश नहीं है।

वहां भी झारखंड की तरह महागठबंधन तेजी से और ताकत अर्जित करता जा रहा है। भाजपा को यह ध्यान रखना होगा कि केन्द्र में लगातार दूसरी बार भारी बहुमत के बावजूद वो अभी अपने विस्तार की प्रक्रिया में ही है। उसे गठबंधन के सहयोगियों के साथ समन्वय का रूख अपनाते हुए अपने समर्थन और पार्टी के विस्तार की लाइन को लंबी करना होगा। इसलिए भाजपा के शुभचिंतकों के लिए यह कामना करने का मुफीद समय आ गया है कि बिहार में भी हार से बचने के लिए उन्हें अभी से सतर्क हो जाना चाहिए। यह सतर्कता इस लिहाज से और जरूरी हो गयी है कि झारखंड की जीत से उत्साहित विरोधी दल बिहार में पूरे उत्साह केसाथ जुट जाने को अभी से आतुर हो गये दिखते हैं। रालोसपा इस प्रदेश में पहले ही एनडीए से विरत हो चुकी है। रामविलास पासवान की लोजपा की लौ काफी मंद हो गयी है। नीतिश कुमार की जदयू अपनी मौकापरस्त राजनीति के तहत किसी भी समय भाजपा को गच्चा दे सकती है। सीएए का विरोध एवं राज्य में एनआरसी लागू न करने की बात कहकर नीतिश पहले ही अपने तेवरों का परिचय दे चुके हैं। ऐसे सर्वथा प्रतिकूल तूफानी हालात के बीच भाजपा के लिए उम्मीदों का दीया जलाये रखना आसान नहीं होगा। झारखंड की ऐसी बिग हार के बाद बिहार के चुनाव में भाजपा के लिए हालात प्रतिकूल ही दिख रहे हैं।

(साई फीचर्स)