भारत में सीएसआर का हाल

 

(नंदिनी देव) 

अगस्त, 2019 में भारतीय संसद ने व्यापार जगत के प्रमुखों को धमकाया कि अगर वे वर्ष 2013 में पेश किए गए कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी (सीएसआर) के प्रावधानों का पालन करने में विफल रहते हैं, तो उन्हें तीन साल तक की जेल की सजा दी जा सकती है। इसके अलावा, अगर कोई कंपनी अपने वार्षिक मुनाफे का दो फीसदी दान में नहीं देती है, उन्हें सीएसआर मद की शेष राशि सरकारी दान कोष में जमा करनी होगी। भारत में पिछले एक दशक में सीएसआर को स्वैच्छिक से अनिवार्य बना देने के फैसले से आखिर सरकार, बाजार और सामाजिक क्षेत्र के रिश्तों के बारे में क्या पता चलता है?

इस कानून और इसके नए दंडात्मक संशोधनों को लोकतांत्रिक मांगों के साथ तनावपूर्ण नवउदारवादी अधिनायकवाद के ढांचे में अच्छी तरह से समझा जा सकता है। लोकतांत्रिक सिद्धांत बताता है कि नीति निर्माण मुखर शिकायतकर्ता के प्रति उत्तरदायी होता है। यानी विभिन्न प्रकार के हित समूह एकजुट होकर कानून की मांग करते हैं। फिर से चुने जाने की इच्छा रखने वाले राजनेताओं को अपने मतदाताओं और उनके अभियान को समर्थन देने वालों को खुश रखने के लिए नीति बनानी चाहिए। आगे के शोध बताते हैं कि व्यवसायी समूह कानून के निर्माण में अहम भूमिका निभाते हैं, क्योंकि वे अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने की धमकी देने में सक्षम होते हैं। 2013 के कंपनी अधिनियम का अनुच्छेद 135 हैरान करने वाला है, क्योंकि लगता है कि कोई भी इसे सहारा नहीं देता है। यह एक अनाथ कानून है, जिसे समाज का कोई भी निश्चित तबका नहीं अपनाता है। वर्ष 2011 में योजना आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने इस विचार का विरोध किया था कि सीएसआर कोष के लिए भारतीय व्यवसायियों को अपने वार्षिक मुनाफे का अतिरिक्त दो फीसदी अलग रखना चाहिए। वह भारत की अधिकांश कंपनियों के साझा विचारों को सामने रख रहे थे, जो इस नए प्रस्ताव का दृढ़ता से विरोध कर रही थीं। लेकिन इसकी अनदेखी की गई और कानून को लागू किया गया।

इस बीच, परोपकारी क्षेत्र के भीतर अनिवार्य सीएसआर को लेकर गहरी उदासी थी। गिव इंडिया के सीईओ वेंकट कृष्णन के मुताबिक, यह एक सनकी विचार है। एक बार जब आप इसे अनिवार्य बना देते हैं, तो लोग इससे बाहर निकलने के तरीके और साधन ढूंढ लेंगे। उन्होंने तर्क दिया कि परोपकार को स्वैच्छिक होना चाहिए, यह एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें कोई जबर्दस्ती नहीं होनी चाहिए। उनका मानना है कि इसके लिए व्यवसायियों को मजबूर करने से अनिच्छुक निगमों में दुराचार बढ़ेगा और सिविल सोसाइटी क्षेत्र में समस्याएं पैदा हो सकती हैं। भारत की बड़ी परोपकारियों में से एक रोहिणी नीलेकणी ने कहा कि यह शासन की आउटसोर्सिंग है। उन्होंने चिंता जाहिर की थी कि ऐसे कानून का निर्माण सरकार को अपनी जिम्मेदारियों से दूर करने और उन्हें व्यावसायिक क्षेत्र पर डालने का उपाय है।

वर्ष 2009 में कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय ने पहली बार सीएसआर के लिए दो फीसदी खर्च करने का विचार पेश किया, जिसका तुरंत विरोध किया गया। फिर इसे नरम करके इस प्रावधान को निजी क्षेत्र के लिए स्वैच्छिक और सार्वजनिक क्षेत्र के लिए अनिवार्य बनाया गया। कॉरपोरेट मामलों के तत्कालीन मंत्री मुरली देवड़ा ने इस कानून की वजह बताते हुए कहा कि यह काफी आश्चर्यजनक है कि कंपनियां अपने मुनाफे का आधा फीसदी भी सामाजिक कल्याण के लिए खर्च नहीं करती हैं, लेकिन वे भूल रही हैं कि उनके अपने अस्तित्व के लिए एक समृद्ध समाज जरूरी है। उन्होंने कहा कि वे चाहते थे कि कंपनियां अमीर और गरीब के बीच के व्यापक अंतर को पाटने में मदद करें। इस कानून का औचित्य यह था कि हाल के दशकों में तेज आर्थिक विकास ने भारत में असमानता को बढ़ा दिया है और बड़े व्यवसाय इसे कम करने के लिए अपना उचित हिस्सा नहीं दे रहे हैं।

लेखिका अरुंधति रॉय 1990 के दशक की शुरुआत में भारत में सीएसआर के उदय को देखती है, जिसके माध्यम से कॉरपोरेट के आलोचक चुप्पी साध लेते हैं, सिविल सोसाइटी को खरीदा जाता है और जनता को लूटने और उनका शोषण करने के लिए आगे बढ़ा जाता है।

किसी भी तरह से समस्या तेज आर्थिक विकास से पैदा हुई है, जो कई लोगों की कीमत पर कुछ लोगों को लाभ पहुंचाती है। कांग्रेस पार्टी और अब भाजपा के लिए इस समस्या का समाधान सामाजिक क्षेत्र में व्यवसाय क्षेत्र को पेश करना है। इस कानून के परिणाम भारत की लगभग 16,000 कंपनियों से समझे जा सकते हैं। उनमें से केवल 1,000 कंपनियों ने ही सीएसआर कार्यक्रम को अच्छी तरह से विकसित किया है। बाकी 15,000 कंपनियां इस क्षेत्र में उतरने के लिए आंतरिक व्यवस्था और विशेषज्ञता के लिए संघर्ष कर रही हैं। इस कानून से नए पैसे के रूप में कम से कम 22.5 करोड़ डॉलर सालाना पैदा होता है, जो सिविल सोसाइटी में जा रहा है, जो पहले से ही एनजीओ और राज्य द्वारा खर्च किए जा रहे थे। भारत में 33 लाख एनजीओ हैं, जो नए समर्थक, नए साझीदार, नए फंड पाना चाहते हैं। लेकिन मेरा शोध बताता है कि वे नैतिक वैधता खो रहे हैं, क्योंकि वे कॉरपोरेट के साथ काम करने के आदी हो गए हैं। बीस वर्ष पहले सिविल सोसाइटी की वैधता को आलोचकों से खतरा था, जो उन्हें फंडिंग करने वाली विदेशी सरकारों की कठपुतली के रूप में देखते थे। आज भारत में चिंता यह होनी चाहिए कि एनजीओ फंडिग के घरेलू स्रोतों की ओर रुख कर रहे हैं।

सीएसआर ने कंपनियों को समावेशी और सतत विकास का प्रभावी एजेंट बनने के मामले में अज्ञानता के बावजूद सामाजिक क्षेत्र में धकेल दिया है। सीएसआर विभागों के धन ने एनजीओ के एजेंडे को दीर्घकालीन, चरणबद्ध हस्तक्षेप (जो परिवर्तनकामी बदलाव लाते हैं) के बजाय ज्यादा मात्रात्मक और नतीजे देने वाले कार्यक्रमों की तरफ झुका दिया है। भले ही राज्य सोच सकता है कि वह लोकतांत्रिक मांगों को पूरा करने के लिए कॉरपोरेट क्षेत्र की बेहतर दक्षता का उपयोग कर रहा है, लेकिन इससे सिविल सोसाइटी संगठनों और व्यवसायों की प्रतिष्ठा धूमिल होने की आशंका अधिक है। (लेखिका लेहाई यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान की एसोसिएट प्रोफेसर हैं.)

(साई फीचर्स)